‘साकेत’ के नवम् सर्ग की काव्यगत विशेषता का वर्णन कीजिए।
‘साकेत’ के नवम् सर्ग की काव्यगत विशेषता – ‘साकेत’ में गीतिकाव्य के लक्षणों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। उर्मिला का तो जीवन ही गीतमय है। उसका जीवन वियोग से परिपूर्ण है। अतः अपने वियोग को प्रकट करने तथा उसकी व्यथा को हल्का करने के लिए वह गीतों का आश्रय लेती है। इसलिए चित्रकूट लक्ष्मण को देखकर वह कहती है-
“सिद्धि शिलाओं के आधार, औ गौरव गिरी, उच्च उदार।”
उर्मिला के अपने प्रिय लक्ष्मण के दर्शन जाग्रत अवस्था में होना तो दुर्लभ प्रतीत होता है। अतः वह स्वप्न का आश्रय लेती है। वह व्यथित अपने प्रलोभनों को देकर रात्रि का आह्वान करती है, जिससे कि वह निद्रा देवी की गोद में शान्ति से सो सके तथा अपने प्रिय का दर्शन कर सके। एक निराश्रित प्राणी इससे अधिक और कर भी क्या सकता है।
मानव हृदय पर वातावरण का बड़ा प्रभाव पड़ता है। वातावरण के उल्लास को देखकर उसका हृदय तरंगित हो उठता है। परन्तु वियोगी के लिए ऐसा वातावरण असह्य हो जाता है। एक विरहिणी के लिए बसन्त कैसा? उसे तो बसन्त ऋतु में खिलने वाले लाल-फूल अंगारे के समान प्रतीत होते हैं। ठीक यही दशा लक्ष्मण के बिना उर्मिला की हो रही है। उसे संसार का कोई रंग नहीं भाता। अन्ततोगत्वा है तो वह भी एक मानव वर्ग का प्राणी। परन्तु उर्मिला महान नारी है। वह अन्य सांसारिक विरहणियों के समान नहीं है, जो केवलं आत्मसुख तथा अपना स्वार्थ ही देखती है जन कल्याण का उनके लिए कोई महत्व नहीं। उर्मिला तो अपने मिले हुए प्रिय को भी लौटा देती है, उसे अपने कर्त्तव्य पर आरूद रहने का आदेश देती है। धन्य है उसकी कर्त्तव्यपरायणता-
“सखे, आजो तुम हंसकर, भूली रहूँ मैं सुध करके रोती।
तुम्हारे हँसने में है फूल, हमारे रोने में मोती ॥
मानती हूँ तुम मेरे साध्य अहर्निशी एक मात्र आराध्य ॥
साधिका मैं भी किन्तु अबाध्य, जगती होऊँ या सोती।”
कभी-कभी तो उर्मिला का स्वर प्रकृति के स्वर में मिल जाता है। दोनों में तादात्म्य हो जाता है। उर्मिला के मुख से निःसृत गान को सुनकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई निर्झर कल-कल स्वर से से मुखरित हो तथा हम उसका आनन्द लेने के लिए तटवासी खग हो गये हों। प्रकृति जीवन से तादात्म्य स्थापित करना गुप्त जी की अपनी विशेषता है। शरद ऋतु में चारों ओर निर्मल जल से युक्त नदियां बह रही हैं। उर्मिला का स्वर भी उनके कल-कल स्वर में मुखरित हो उठता हैं-
“सखी, निरख नदी की धारा!
ढलमल-ढलमल चंचल, अंचल, झलमल- झलमल तारा,
निर्मल जल अन्तस्थल भरके, उछल-उछल कर छल-छल करके,
चल चल तरके, कल-कल धरके, बिखरता है पारा।।”
उन्माद विरही की अन्तिम दशा होती है। उर्मिला में भी हमें इसी उन्माद की झलक दिखाई देती है। उसे कभी-कभी ऐसा भास होता है, मानो उसके प्रिय उसके निकट हों। परन्तु जब उसे वास्तविकता का ज्ञान होता है तो वह बड़ी दुखी होती है तथा विभिन्न रूपों में गा-गाकर अपनी व्यथा को कम करने का प्रयत्न करती है। वह अपनी सखी से कहती है-
लाना, लाना सखी, तूली!
आँखों में छवि झूली!
जब जल चुकी विरहिणी बाला।
बुझने लगी चिता की ज्वाला।
तब पहुँचा विरही मतवाला, सतीहीन ज्यूं शूली।
इस प्रकार ‘साकेत’ के गीत उर्मिला के हृदय की व्यथा को व्यक्त कर देते हैं।
नवम् सर्ग में जो गीत आते हैं, उनका महत्व गीति-कला की दृष्टि से बहुत अधिक है। इन गीतों में प्राचीन एवं नवीन भाव-धाराओं का अपूर्व संगम दिखाई देता है। उर्मिला को इनमें विरह विधुरा नायिका के रूप में अंकित किया गया है, जो कि रीतिकालीन कवियों की प्रमुख विशेषता है। किन्तु इसके साथ ही उर्मिला का वियोगिनी रूप रीतिकालीन नायिका से पृथक हैं। रीतियुगीन कवियों ने नायिका की विरह वेदना की ऊहात्मक व्यंजना की है किन्तु गुप्त जी ने उर्मिला की विरह व्यथा में अन्तर्वृत्तियों का प्राधान्य दिखाया है। उर्मिला की विरहोक्तियों में कोरा चमत्कार नहीं है, अपितु अनुभूति एवं चमत्कार का कवि साँचन संयोग है। नवम् सर्ग में प्रायः सभी गीत अत्यन्त मार्मिक प्रभावपूर्ण एवं उत्कृष्ट बन पड़े हैं।
साकेत के कथानक का गठन प्रबन्धात्मक है, परन्तु सर्वत्र गीतों की भरमार है। प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति के कारण कथा प्रवाह शिथिल पड़ जाता है। साकेत और उसमें विशेषकर नवम् सर्ग का महत्व उसकी प्रगीतात्मकता के कारण है।
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