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साक्षात्कार (इण्टरव्यू) साहित्य के उद्भव व विकास

साक्षात्कार (इण्टरव्यू) साहित्य के उद्भव व विकास
साक्षात्कार (इण्टरव्यू) साहित्य के उद्भव व विकास
साक्षात्कार (इण्टरव्यू) साहित्य के उद्भव व विकास का विवरण दीजिए। 

साक्षात्कार (इण्टरव्यू)- ‘साक्षात्कार’ विधा हिन्दी साहित्य को पश्चिम की देन है। रेखाचित्र एवं संस्मरण की अपेक्षा यह हिन्दी के लिए नवीन वस्तु है। ‘साक्षात्कार के लिए ‘इण्टरव्यू’, ‘भेंट’, ‘भेटवार्ता’, ‘चर्चा’, ‘विशेष परिचर्चा’, ‘साक्षात्कार’ आदि शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं, किन्तु अधिकांशत: इण्टरव्यू शब्द ही प्रचलित है। ‘इण्टरव्यू’ का शाब्दिक अर्थ आन्तरिक दृष्टिकोण होता है। इस प्रकार ‘भेंटवार्ता’ वह विधा है, जिसके माध्यम से भेंटकर्त्ताकार किसी महान् व्यक्ति के मन और जीवन में प्रश्नों के झरोखे से झाँककर, उसके आन्तरिक दृष्टिकोण को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। प्रायः इण्टरव्यू उन विशिष्ट एवं ख्यातिप्राप्त व्यक्तियों का लिया जाता हैं जिनके विचारों को जानने की जनसाधारण के हृदय में सहज जिज्ञासा होती है। ‘इण्टरव्यू’ शब्द से आज एक ऐसी विशिष्ट कोटि में विद्यमान अन्य किसी व्यक्ति (विशेषकर प्रख्यात और महत्वपूर्ण व्यक्ति) से प्रत्यक्ष मिलकर उसके बारें में सीधे-सीधे जानकारी प्राप्त करता है।

डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत ने इण्टरव्यू के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “इण्टरव्यू उस रचना को कहते हैं, जिसमें लेखक किसी व्यक्ति विशेष से प्रथम भेंट में उसके सम्बन्ध में अनुभव होने वाली अपनी क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं को अपनी पूर्व धारणाओं, आस्थाओं एवं रुचियों से रंजित कर सरस भावपूर्ण ढंग से व्यंजना प्रधान शैली में बँधे हुए शब्दों में व्यक्त करता है।”

डॉ ओमप्रकाश सिंहल ने भी कहा है कि, “इण्टरव्यू से अभिप्राय उस रचना से हैं, जिसमें लेखक व्यक्ति विशेष के साथ साक्षात्कार करने के बाद प्रायः निश्चित प्रश्नमाला के आधार पर उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करता है और फिर अपने मन पर पड़े प्रभाव को लिपिबद्ध कर डालता है।”

इस विधा के लिए किसी महान् पुरुष से भेंट वार्ता को ही क्यों महत्व दिया जाता है, इसका उत्तर डॉ. रामचन्द्र तिवारी इस प्रकार देते है- “इण्टरव्यू में उत्तर देने वाले का विख्यात और महिमामय होना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में ही उनके उत्तर मूल्यावान होते हैं तथा अधिकाधिक लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं।”

इण्टरव्यू कुछ निश्चित प्रश्नों के आधार पर होता है। इण्टरव्यूकार कुछ निश्चित प्रश्नों के माध्यम से व्यक्ति विशेष का सीधा परिचयात्मक साक्षात्कार पाठकों से करा देता है। यह विधा पत्रकारिता के अधिक समीप है। इण्टरव्यू ‘महान् एवं लघु’ के मध्य ही अधिक शोभा देता है।

इण्टरव्यू साहित्य का उद्भव एवं विकास

इण्टरव्यू साहित्य का इतिहास उतना ही नवीन है, जितना कि पत्रकारिता का। हिन्दी में इण्टरव्यू विधा के सूत्रपात का श्रेय पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को है। सितम्बर, 1931 के ‘विशाल भारत’ में उनका ‘रत्नाकरजी से बातचीत’ शीर्षक इण्टरव्यू प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा इण्टरव्यू जनवरी 1932 के विशाल भारत में ‘प्रेमचन्द जी के साथ दो दिन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय उपरान्त नवम्बर, 1933 में पं. श्रीराम शर्मा का ‘कबूतर’ शीर्षक इण्टरव्यू प्रकाशित हुआ। सन् 1941 में ‘साधना’ में सत्येन्द्रजी ने एक निश्चित प्रश्नावली के आधार पर गणमान्य साहित्यकारों के इण्टरव्यू प्रकाशित किये। इनमें जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा भदन्त आनन्द कोसल्यायन से तथा चिरंजीलाल ‘एकांकी’ द्वारा महादेवी वर्मा से लिया गया इण्टरव्यू विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ग्रन्थ रूप में भेंटवार्ताओं के प्रथम संग्रह रूप का श्रेय बेनी माधव शर्मा कृत ‘कविदर्शन’ को प्राप्त है, जिसमें अयोध्या सिंह उपाध्याय, श्यामसुन्दर दास, रामचन्द्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त सदृश साहित्यकारों के लिए गये इण्टरव्यू संग्रहीत हैं।

इण्टरव्यू साहित्य का अगला चरण का प्रारम्भ होता है-डॉ. कमलेश के ‘मैं इनसे मिला’ शीर्षक दो भागों में प्रकाशित (1952 ई.) 22 व्यक्तियों की भेंटवार्ताओं से। इन भेंटवार्ताओं में लेखक ने अनेक प्रयोग भी किये हैं। पहले निश्चित प्रश्नों के आधार पर व्यक्ति विशेष का परिचय देने की चेष्टा की, फिर महादेवीजी तथा निरालाजी जैसे व्यक्तियों से सीधे प्रश्न न पूछ पाने पर कुछ ‘ इम्प्रेशन’ के सहारे भेंटवार्ताएँ प्रस्तुत की और फिर स्वच्छन्दतापूर्वक बिना प्रश्नों के पूर्वाग्रह के, आवश्यकतानुसार प्रश्नों से प्रश्न निकालते हुए व्यक्ति विशेष की भेंटवार्ताएँ प्रस्तुत कीं। वस्तुतः यह उनकी कला के विकास के सोपान थे, जो व्यक्ति विशेष के प्रभाव से विकसित होते रहे।

श्री देवेन्द्र सत्यार्थी की ‘कला के हस्ताक्षर’ भी इण्टरव्यू साहित्य की पुस्तकाकार कृति है, जिसमें संगीतकार, चित्रकार, अभिनेता आदि कला-मर्मज्ञों के इण्टरव्यू वर्णित हैं। कैलाश कल्पित की ‘साहित्य-साधिकाएँ’, शरद देवड़ा की ‘पत्थर का लैम्प’ आदि भी इस सन्दर्भ में अन्य उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। इनमें संस्मरण, रेखाचित्र और निबन्ध के गुण भी आ गये हैं।

इण्टरव्यू की एक अन्य महत्वपूर्ण कृति डॉ. रणवीर रांग्रा की ‘सृजन की मनोभूमि’ (1968 ई.) है। इसमें 21 शीर्षस्थ साहित्यकारों से सन्दर्भित भेंटवार्ताएं संकलित हैं, जिनके माध्यम से लेखक ने पाठकों को साहित्यकारों के अवचेतन की अतुल गहराइयों से परिचित कराने का स्तुत्य प्रयास किया है।

इसके अतिरिक्त दिनकर, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, शिवदान सिंह चौहान, रामचरण महेन्द्र आदि लेखकों का भी इण्टरव्यू साहित्य के सृजन में विशेष सहयोग रहा इण्टरव्यू का नवीनतम रूप वीरेन्द्र कुमार गुप्त कृत ‘समय, समस्या और हम’ में देखने को मिलता है। इनमें एक ही साहित्यकार (जैनेन्द्र) से की गई भेंटवार्ताओं का संग्रह है।

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Anjali Yadav

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