सुमित्रानन्दन पंत का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके कृतियों पर प्रकाश डालिये।
छायावादी कवियों में पंत जी का महत्वपूर्ण स्थान है। यह पद्य ग्रन्थ की भूमिका पंत जी का छायावाद के शुभारम्भ का घोषणा पत्र माना जाता है। पंत जी ने खड़ी बोली के प्रवर्तक का निस्तारण छायावाद के माध्यम से किया है। इनकी कविताओं में कल्पनाओं की मुख्य प्रधानता है।
संक्षिप्त परिचय- अल्मोड़ा से लगभग 32 मील उत्तर की ओर कौसानी एक रमणीक पर्वतीय ग्राम है। इसी कौसानी ग्राम में 20 मई सन् 1990 को सुमित्रा नन्दन पंत का जन्म हुआ था। उनके पिता पं० गंगा दत्त पंत जमींदार थे और कौसानी राज्य में कोषाध्यक्ष का काम करते थे। उनकी माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। पंत जी की बाल्यावस्था में ही उनकी मृत्यु हो जाने से उनका पालन-पोषण उनके पिता तथा उनकी दादी ने किया।
पंत जी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में सात वर्ष की अवस्था से आरम्भ हुई। तब ही उन्होंने पहली बार छन्द रचना की। इसके बाद 1911 ई. में वे अल्मोड़ा के गवर्नमेंट हाई स्कूल में प्रविष्ट हुये। इस स्कूल में वे नवीं कक्षा तक पढ़े। यहाँ के अध्ययन काल में उन्होंने अपना नाम गोसाई दत्त से बदल कर सुमित्रानन्दन रख लिया और अपने भाई के साथ काशी चले गये। वहाँ के जयनारायण हाई स्कूल में उन्होंने 1918 ई० में स्कूल लीविंग की परीक्षा पास की। 1919 ई० में वे प्रयाग आये और म्योर सेंट्रल कालेज में प्रविष्ट हुए। यहाँ उनकी विकासोन्मुखी प्रतिभा को प्रथम स्थान मिला। पं० शिवधार पाण्डेय ने पंतजी में काव्य-प्रतिभा देखकर अंग्रेजी कवियों की रचनायें पढ़ने में उन्हें विशेष सहायता दी। उन्हीं की देख-रेख में पंतजी ने उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचनात्मक निबन्धों, काव्यों और भास आदि के नाटकों का अध्ययन किया।
पंत जी की रचनायें- पंतजी का रचना-काल सं0 1975 से आरम्भ होता है। उस समय से अब तक उन्होंने हमें जो काव्य-ग्रन्थ दिये हैं उनकी सूची इस प्रकार है-
(1) महाकाव्य- लोकायतन, जिस पर ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’ दिया गया। ‘सत्यकाम’ महाकाव्य ।
( 2 ) खंड काव्य- ग्रन्थि और मुक्तियज्ञ ।
( 3 ) रूपक- ज्योत्सना, रजत-शिखर और उत्तरशती।
(4) मुक्तक काव्य- उच्छवास, वीणा, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णधूलि, स्वर्ण-किरण, मधुज्वाल, युग-पथ, उत्तरा, अतिमा, वाणी सौवर्ण, कला और बूढ़ा चाँद।
(5) संकलन – पल्लविनी, आधुनिक कवि, रश्मि-बंध, चिंदम्बरा और हरी बाँसुरी सुनहरी टेर
पंतजी ने उमर खय्याम की रूबाइयों का भी हिन्दी रूपान्तर किया है- कला और बूढ़ा चाँद पर उन्हें साहित्य एकेदमी ने 5 हजार रुपये का पुरस्कार दिया है।
हिन्दी के छायावादी कवियों में पंतजी एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने प्रकृति से प्रेरणा ग्रहण कर काव्य क्षेत्र में प्रवेश किया है। वे प्रकृति की गोद में जन्में और बड़े हुये। ‘वीणा’ में संग्रहीत उनकी प्रारम्भिक रचनायें उनके प्रकृति-प्रेम के उल्लास से भरी हुई है। साथ ही उनमें प्रकृति और मानव जीवन के प्रति एक किशोर जिज्ञासा और रहस्यमय भावना भी है जिसे ‘पल्लव’ में पूर्णता प्राप्त हुई हैं। पल्लव में उनकी प्रकृति प्रेम की भावना सौन्दर्य प्रधान हो गयी है। इसके बाद उनकी काव्य-साधना जीवन दर्शन की ओर अग्रसर होती है। इसकी सूचना ‘पल्लव’ में संग्रहीत ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता से मिलती है। इस रचना पर स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानन्द के जीवन दर्शन अभावात्मक नहीं है। इसलिये पंतजी नियतिवादी और निराशावादी होने से बच गये हैं।
पंतजी विकासशील कवि हैं उनकी काव्य-साधना का विकास युग के अनुकूल स्वाभाविक ढंग से हुआ है। युगजीवन से नये-नये प्रभाव ग्रहण करने के लिये उन्होंने अपने हृदय और मस्तिष्क को सदैव खुला रखा है। प्रतिभा भी उनमें इतनी सबल है कि वे अपने ऊपर खड़े हुये प्रभावों को अपनी इच्छानुसार काव्य-रूप देने में सफल हुये हैं।
अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि पंत सौन्दर्य के कवि हैं। प्रारम्भ में उन्होंने छायावाद में सौन्दर्य देखा है, बाद में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित और अन्त में पंत ने अरविन्द दर्शन में उस सौन्दर्य को देखा है। ‘लोकायतन’ और ‘सत्यकाम’ महाकाव्य इसी अरविन्द दर्शन की चरम परिणति है। निष्कर्ष यही है कि पंत स्वस्थ जीवन दृष्टि के कवि हैं किन्तु उनकी आधारभूमि छायावादी ही है।
पंतजी ने कविता के माध्यम से समाज की जनभावना के सौन्दर्यीकरण की मुख्य भूमिका पर प्रकाश डाला है। इसके पश्चात पंत जी का काव्य एक नवीन दिशा की तरफ उन्मुख होता है उनके जीवन की वास्तविकता यथार्थता और गहन विषाद से कवि का परिचय होता है। युगान्त का कवि विगत युग की समाप्ति और नवयुग का उल्लासपूर्वक अभिनन्दन करता है। यह प्राचीन मान्यताओं, विश्वासों की पत्रावली को छूट जाने के लिये कहता है।
“द्रुत झरो जगत् के जीर्ण पत्र
हे सृष्ट स्वस्त हे शुष्क जीर्ण”
IMPORTANT LINK
- सूर के पुष्टिमार्ग का सम्यक् विश्लेषण कीजिए।
- हिन्दी की भ्रमरगीत परम्परा में सूर का स्थान निर्धारित कीजिए।
- सूर की काव्य कला की विशेषताएँ
- कवि मलिक मुहम्मद जायसी के रहस्यवाद को समझाकर लिखिए।
- सूफी काव्य परम्परा में जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
- ‘जायसी का वियोग वर्णन हिन्दी साहित्य की एक अनुपम निधि है’
- जायसी की काव्यगत विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
- जायसी के पद्मावत में ‘नख शिख’
- तुलसी के प्रबन्ध कौशल | Tulsi’s Management Skills in Hindi
- तुलसी की भक्ति भावना का सप्रमाण परिचय
- तुलसी का काव्य लोकसमन्वय की विराट चेष्टा का प्रतिफलन है।
- तुलसी की काव्य कला की विशेषताएँ
- टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त | Tagore’s theory of education in Hindi
- जन शिक्षा, ग्रामीण शिक्षा, स्त्री शिक्षा व धार्मिक शिक्षा पर टैगोर के विचार
- शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त या तत्त्व उनके अनुसार शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्य
- गाँधीजी के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन | Evaluation of Gandhiji’s Philosophy of Education in Hindi
- गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा व्यवस्था के गुण-दोष
- स्वामी विवेकानंद का शिक्षा में योगदान | स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन
- गाँधीजी के शैक्षिक विचार | Gandhiji’s Educational Thoughts in Hindi
- विवेकानन्द का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान | Contribution of Vivekananda in the field of education in Hindi
- संस्कृति का अर्थ | संस्कृति की विशेषताएँ | शिक्षा और संस्कृति में सम्बन्ध | सभ्यता और संस्कृति में अन्तर
- पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi
- पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi
- घनानन्द की आध्यात्मिक चेतना | Ghanananda Spiritual Consciousness in Hindi
- बिहारी ने शृंगार, वैराग्य एवं नीति का वर्णन एक साथ क्यों किया है?
- घनानन्द के संयोग वर्णन का सारगर्भित | The essence of Ghananand coincidence description in Hindi
- बिहारी सतसई की लोकप्रियता | Popularity of Bihari Satsai in Hindi
- बिहारी की नायिकाओं के रूपसौन्दर्य | The beauty of Bihari heroines in Hindi
- बिहारी के दोहे गम्भीर घाव क्यों और कहाँ करते हैं? क्या आप प्रभावित होते हैं?
- बिहारी की बहुज्ञता पर प्रकाश डालिए।
Disclaimer