सुमित्रानन्दन पंत की कविता ‘मानव’ की विवेचना कीजिए।
सुमित्रानंदन पंत का आरम्भिक कवि प्रकृति का पुजारी है। वह ऐसा समय है जब प्राकृतिक सौन्दर्य ही कविमन को आकर्षित करता है, बाकी कुछ भी नहीं—“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया/तोड़ प्रकृति से थी माया/वाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूं लोचन।” किन्तु काव्य यात्रा के विकास में आगे बढ़ने पर कवि को विहग, सुमन आदि प्राकृतिक पदार्थों की तुलना में ‘मनुष्य’ सबसे ज्यादा सुंदर लगने लगता है— “सुंदर हैं, विहग/सुमन सुंदर/मानव! तुम सबसे सुन्दरम्”। कवि इस ‘मानव’ शीर्षक कविता में अपनी अवधारणा व्यक्त करता है कि इस सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य अनुपम-अद्वितीय प्राणी है, जिस पर सम्पूर्ण प्रकृति के रूप-रंग न्योछावर किये जा सकते हैं-
“निर्मित सबकी तिल-सुषमा से/तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम।
न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति/छाया प्रकाश के रूप-रंग।”
यहाँ कवि पहले मनुष्य के ‘नखशिख-शोमन सौन्दर्य का-शारीरिक सौन्दर्य का सुकोमल वर्णन करता है, फिर उसके आत्मिक सौन्दर्य पर व्यापक प्रकाश डालता है। कवि बताता है कि ‘नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग, आशा-अभिलाषा-उच्चाकांक्षा, अविरल उद्यम की प्रवृत्ति, विघ्न बाधाओं पर विजय, दृढ़ श्रद्धा-विश्वास, सद्-असद् का विवेक, सत्य-प्रेम की रक्षा, सहृदयता, त्याग, सहानुभूति, सभ्यता-संस्कृति का वरण, मनुष्य का मनुष्य पर विश्वास, मानव द्वारा ज्ञान-विज्ञान का अन्वेषण आदि-आदि मानव में प्रतिष्ठित वे गुण हैं जो इस सम्पूर्ण धराधाम में और किसी प्राणी में नहीं हैं। पंत जी कहते हैं-
“सुंदर है विहग, सुमन सुन्दर,
मानव! तुम सबसे सुन्दरतम्,
तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!
यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,
मृदु त्वच, सौन्दर्य प्ररोह अंग,
न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,
छाया प्रकाश के रूप-रंग।”
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