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सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए।
सूर्यकान्त त्रिपाठी के काव्य सौष्ठव में आत्मा उनके व्यक्तित्व की भाँति बड़ी उर्जस्वित और पौरुषमय है। व्यक्तित्व की जैसी निर्बाध अभिव्यक्ति निराला जी की रचनाओं में हुई है वैसी अन्य छायावादी कवियों में नहीं हुई, वे हिन्दी साहित्य के ऐसे प्रगान्तर कवि हैं जिनकी रचनाओं में तत्कालीन मानव की पीड़ा, परतन्त्रता एवं असमानता के प्रति विद्राह की घोषणा सुनाई पड़ती है और विषमताओं, विभेदों एवं विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करने की तीव्र गर्जना दीख पड़ती है।
निराला का भावपक्ष अत्यन्त सबल और प्रौढ़ है। उनके काव्य की भावभूमि प्रारम्भ से ही विस्तृत रही है। उनकी कविता के अनेक विषय हैं।
प्रेम का निरूपण- निराला जी के काव्य में प्रेम तत्व का अत्यन्त भव्य चित्रण प्राप्त होता है। प्रेम उनके काव्य की महानतम प्रेरणा है। उनके काव्य में प्रेम कहीं तो पुरुष के माध्यम से व्यक्त हुआ है और कहीं स्त्री के माध्यम से इसलिए उन्होंने लिखा है-
बैठ लें कुछ देर
आओ एक पथ के पथिक से।
मौन मधु हो जाय।
भाषा मूकता की आड़ में।
मन सरलता की बाढ़ में,
जल-बिन्दु-सा बह जाय।”
सौन्दर्य भावना- निराला जी सौन्दर्य प्रेमी कवि थे। उनके काव्य में सौन्दर्य के स्थूल और सूक्ष्म दोनों रूपों के दर्शन होते हैं। जैसे ‘जूही की कली’ कविता में कवि ने एक सलज्ज नई नवोढ़ा वधू का रूप-चित्र अंकित करते हुए उसके हृदय रूप भावों की भी अत्यन्त मनोरम व्यंजना की है-
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय आगमन वह?
नायक ने चूमे कपोल
डोल उठी बल्लरी की लड़ी जैसे हिण्डोल।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक क्षमा माँगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही-
किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये कौन है?
मानवतावादी भावना – निराला मानवतावादी कवि थे। उन्होंने अपने काव्य में सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की भावना व्यक्त की है। कल्पना, सौन्दर्य और आध्यात्म की गजदन्ती मीनार (आइवरी टावर) से नीचे उतरकर इन्होंने यथार्थ की कठोर धरती को भी छुआ है। यही कारण है कि इनकी अनेक रचनाओं में मिट्टी की सौंधी गन्थ व्याप्त है। इस दृष्टि से आपकी ‘भिक्षुक’, ‘विधवा’, ‘तोड़ती पत्थर’ आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं।
देश-प्रेम की भावना- डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने लिखा है- “कवि ने राष्ट्र प्रेम के इन ओजस्वी भावों से प्रेरित होकर ही भारत माता के उस साकार रूप की वन्दना की है, जिसके पदतल में शतदल के तुल्य लंकाद्वीप विराजमान है, जिसके चरणों को गर्तिजोर्मि सागर जल थो रहा है, तरु-तृणवत-लता आदि जिसके शुभ्र वसन हैं, गंगा ज्योतिर्जल कणों का हार जिसके गले में सुशोभित हो रहा है, हिम-तुषार या शुभ मुकुट जिसके सिर पर शोभायमान है और जिसके प्रवण (ओंकार) की मधुर ध्वनि से समस्त दिशाएँ ध्वनित हो रही है। कवि ऐसे ही समुन्नत विचारों से ओत-प्रोत होकर ‘माँ सरस्वती’ को वन्दना करता है और उनसे भी भारत में स्वतंत्रता की अमर ध्वनि को भरने का प्रार्थना करता है। साथ ही समस्त बन्धनों को काटने की कलुष एवं अन्धकार को हटाकर प्रकाश भरने की ओर स्वातंत्र्य नभ के विहंग वृन्द सरीखे भारतवासियों को नव गति, नव लय, नवीन ताल छन्द, नवल कण्ठ, नव ध्वनि, नवीन पंख एवं नवीन स्वर प्रदान करने की याचना करता है। जिससे सर्वत्र स्वाधीनता का अमर राग सुनाई दे।
सजीव प्रकृति चित्रण- निराला जी ने अपने काव्य में प्रकृति का विविध रूपों में चित्रण किया है। मानवीकरण के चित्र उनके काव्य में अधिक प्रभावकारी हैं-
“दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही
वह संध्या सुन्दरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे ॥
निराशावाद की प्रधानता- निराला जी के काव्य में निराशा की भावना के भी दर्शन होते हैं। ‘स्नेह’ – ‘निर्झर’, ‘मैं अकेला’ और ‘ठूंठ जैसी रचनाओं में इसी का करुण क्रन्दन है। उदाहरण के लिए-
“स्नेह निर्झर बह गया है।
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सुखी दिखी,
कह रही है- अब यहाँ पिक या शिखी,
नहीं आते, पंक्ति में वह हूँ लिखी,
नहीं जिसका अर्थ-
जीवन ढह गया है।”
वे जीवन में अधिकतर अकेले ही रहे-
‘मैं अकेला,
देखता हूँ आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला।’
नारी की महत्ता का प्रकाशन- निराला जी ने नारी के प्रति अपना स्वतन्त्र दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। इस कविता में निराला जी ने सीता, शक्ति और अंजना तीनों नारियों के चित्रण से यह सिद्ध करना चाहा कि नारी पुरुष के पराजित जीवन में आशा और विश्वास का संचार करती है। राम की शक्ति का स्मरण आने पर बल मिलता है; यथा-
‘फूटी स्मृति सीता ध्यान-लीन राम के अधर।
फिर विश्व-विजय – भावना हृदय में आई भर।’
रस निरूपण- निराला रस को काव्य की आत्मा मानते हैं आपने-अपने काव्य में शृंगार, वीर, रौद्र, शान्त, करुण, भयानक आदि रसों का निरूपण किया है। पं. गौरी शंकर चतुर्वेदी की मान्यता है- वीर शृंगार तथा करुण रसों की ऐसी दिव्य धारा केवल एक कवि के साहित्य में यदि मिल सकती है तो तुलसी अथवा निराला ही ऐसे कवि थे-
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद कौशल समूह
राक्षस-विरुद्ध प्रत्यूह क्रुद्ध कवि-विषम हूह
विच्छुरित वह्नि राजीव नयन हम लक्ष्य वाण
लोहित-लोचन रावण मद मोचन महीयान।
रहस्यवाद- निराला की रहस्य भावना विश्व कवि रवीन्द्र की गीतांजलि से प्रभावित है, जिसमें अद्वैत भावना की प्रधानता है। ‘तुम और मैं में कवि ने आध्यात्म के सत्य को सुलभ कल्पना के माध्यम से व्यक्त किया हैं-
तुम तुंग हिमालय श्रृंग
और मैं चंचल गति सुर सरिता ।
छायावादी भावना- निराला को छायावाद का प्रवर्तक और उन्नायक माना जाता है। उनकी छायावादी कविता ने हिन्दी काव्य को नवीन भाषा, नये छन्द, नये भाव, नयी, शैली, नये अलंकार और नयी दिशा प्रदान की है।
प्रगतिवादी भावना- प्रगतिवादी कवियों में निराला जी की गणना सर्वप्रथम होती है। ‘परिमल’ में उन्होंने ‘भिक्षुक’ और ‘विधवा’ के जो मार्मिक चित्र प्रस्तुत किये हैं उनमें मानवीय सहानुभूति का स्वर गहरा है। पूँजीवादी व्यवस्था शोषण की स्थितियों पर उन्होंने गहरा प्रहार किया है-
अब सूने वे गुलाब।
भूल मत-गरपाई खुशबू रंगों आब।
खून चूसा स्वाद को तूने अशिष्ट।
डाल पर इठला रहा, केपिटलिस्ट ।।
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