हिन्दी के विभिन्न रूपों को लिखते हुए सर्जनात्मक भाषा तथा संचार भाषा पर प्रकाश डालिए।
हिन्दी के विभिन्न रूप
हिन्दी के विभिन्न रूप- आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में हिन्दी सर्वाधिक व्यक्तियों द्वारा बोली एवं प्रयोग की जाने वाली भाषा है। हिन्दी का प्रयोग देश-विदेश दोनों में होता है। हिन्दी भारत की राष्ट्रीयता की ही नहीं, अपितु अस्मिता की भी परिचायक है। भाषाओं में निरन्तर परिवर्तन होने के कारण शब्द कभी घट जाते हैं तो कभी बढ़ जाते हैं। इस घटा-बढ़ी के पीछे अनेक कारण कार्य करते हैं, जैसे हिन्दी में बहुतायत शब्द ऐसे हैं जिनका रूप संस्कृत जैसा ही है। कुछ शब्द संस्कृत पर आधारित हैं लेकिन उनका रूप बदल गया है। अन्य भाषाओं के शब्द भी हिन्दी में प्रचुर मात्रा में आ गये हैं। भाषा जब बड़े प्रदेश में बोली जाती है तो उसके क्षेत्र के अनुसार उसके कई रूप विकसित हो जाते हैं, जैसे बम्बइया हिन्दी, पंजाबी हिन्दी, राजस्थानी हिन्दी आदि हिन्दी के अनेक रूप हैं।
(1) सर्जनात्मक भाषा- भाषा जीवन की अभिव्यक्ति है। सर्जनात्मक भाषा का उद्भव बोलचाल की भाषा से होता है। कुछ प्रमुख विद्वानों का मत है कि भाषा में होने वाले नये प्रयोग या परिवर्तन को सर्जनात्मक कहा जाता है। देश का प्रत्येक सदस्य इससे प्रभावित होता है। यदि कोई बच्चा बिल्ली की ओर संकेत कर ‘म्याऊँ’ की आवाज निकालता है तो वह भी एक नये शब्द का सर्जन करता है, लेकिन यह सर्जनात्मकता का भ्रामक अर्थ है। भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है जिसके अंगों-उपांगों में नियमबद्ध सम्बन्ध है। भाषा का प्रयोजन संप्रेषण व विचारों का आदान-प्रदान होता है। जो व्यक्ति सम्प्रेषण के प्रयोजन से भाषा का प्रयोग करता है, उसे भाषा के सभी नियमों का पालन करना होता है। वक्ता भाषा का प्रयोग कर अपनी बात कहता है, लेखक लिखकर पाठक को पहुंचाता है। इसके लिए आवश्यक है। कि वक्ता और लेखक तथा श्रोता और पाठक को भाषा के नियमों का ज्ञान हो। ये प्रयोग सामान्य भाषा का प्रयोग कहे जाते हैं। इसके विपरीत जब भाषा के नियमों का प्रयोग नहीं किया जाता तो उसे हम असामान्य प्रयोग करते हैं। असामान्य प्रयोग में लेखक जो बात. जिस प्रकार से जितनी मात्रा में प्रेषित करता है, वह बात उसी प्रकार से श्रोता तक नहीं पहुंचती है। नियमों का ज्ञान न होने से संदेश का गुणात्मक ह्रास हो जाता है, क्योंकि श्रोता को बात समझने में बांधा आती है। दूसरी ओर यदि लेखक को नियमों का पूर्ण ज्ञान लेकिन वह किसी विशेष कारण से नियमों का उल्लंघन कर अपनी बात इस प्रकार कहता है कि श्रोता कही गई बात से अधिक प्राप्त करता है तो इस अतिरिक्त को सर्जना कहा जाता है। इस प्रकार लेखक का नियमों का अनायास उल्लंघन और अपने संदेश में अतिरिक्त अर्थ की सम्भावना का उद्घाटन ‘सर्जनात्मकता है। इसके लिए उपलब्ध शब्द से हटकर नये शब्दों का निर्माण, शब्दों में नये अर्थों को भरना, शब्दों का नया प्रयोग करना तथा शब्दों को नये ढंग से प्रस्तुत करना आदि सम्मिलित है। लेखक जितना प्रयास संदेश में अतिरिक्त अर्थ भरने में लगाता है, पाठक उतना या उससे अधिक अर्थ निकालने में करेगा। ऐसे सन्देश में सर्जनात्मक तत्वों को समझकर अतिरिक्त अर्थ निकालना प्रत्येक भाषा प्रयोक्ता के वश की बात नहीं। कई पाठक ऐसे अर्थ भी निकाल लेते हैं जो लेखक ने सोचा भी नहीं होता। जिस संदेश से ऐसे अतिरिक्त अर्थ निकलने की संभावना जितनी अधिक होगी, उनमें सर्जनात्मकता का स्तर उतना ही अधिक ऊँचा होगा। सर्जनात्मक भाषा में लिखे संदेशों के रचयिता अपनी रचनाओं को बार-बार परिष्कृत करते हैं। यह अर्थ भाषा के नियमों के उल्लंघन से ही किया जाता है, विशेषकर व्याकरण के नियमों का यह प्रत्येक सर्जनात्मक प्रयास में नहीं होता। भाषा का सर्जनात्मक प्रयोग कई रूपों में होता है। कहानी, कविता, नाटक, संस्मरण, निबन्ध आदि सर्जनात्मक प्रयोग के उदाहरण हैं। इस तरह के प्रयोगों में यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि क्या कहा जाता है? अपितु महत्वपूर्ण यह होता है कि सन्देश कैसे दिया जा रहा है? काव्य की जो पंक्तियाँ ऊपर से सामान्य प्रतीत होती हैं वे भी कई अर्थ लिये रहती हैं।
इस तरह से भाषा प्रयोगों में इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि किसी एक संदेश का कोई निश्चित भाव या अर्थ नहीं होता, पाठक भिन्न-भिन्न अर्थ निकाल सकते हैं। ऐसे सर्जनात्मक प्रयोगों की व्याख्या करते हुए एक कविता या नाटक का अर्थ तो समझाया जा सकता है परन्तु ऐसे कोई निश्चित नियम नहीं बनाये जा सकते कि प्रत्येक कविता या नाटक का सम्पूर्ण अर्थ अपने आप समझ में आ जाये। इसका कारण खोजने के लिए भी दूर जाना नहीं पड़तौ। प्रत्येक कवि, नाटककार, कहानीकार अपने-अपने ढंग से रचना का सृजने करता है। इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि एक युग के सर्जनात्मक प्रयोगों में एक जैसी प्रवृत्तियाँ या लक्षण हों और उस युग विशेष के लेखक की रचनाओं में कुछ व्यक्तिगत विशेषताएँ हों, पर यह कोई निश्चित नियम नहीं।
(2) संचार भाषा- भावों का संचार या संप्रेषण मुख्यतः भाषिक और भाषिकेत्तर दो रूपों में होता है। भाषिक रुप मुख्यतः लिखित और उच्चरित दो रूपों में होता है। लिखित रूप लिपिबद्ध होने से स्थान और समय की दूरी पार कर लेता है। वर्तमान युग को कम्प्यूटर या संचार का युग माना गया। संचार माध्यम से आज हम एक स्थान पर बैठे हुए विश्व कोने-कोने की जानकारी पा लेते हैं। समाचार-पत्र, आकाशवाणी और दूरदर्शन संसार के प्रमुख संचार माध्यम है। इन वैज्ञानिक आधारों पर भाषा संचार का माध्यम बनती है। ऐसी भाषा को संचार भाषा की संज्ञा दी जाती है। हिन्दी भारतवर्ष के अधिकांश लोगों द्वारा समझी और प्रयोग की जाने वाली भाषा है। इसका प्रयोग भारतवर्ष से बाहर गयाना, सूरीनाम, फिजी, ट्रिनीडाड, टुबैगो, कनाडा और अमेरिका आदि देशों में होता है। विभिन्न संचार माध्यमों में हिन्दी अभिव्यक्ति का साधन है। इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों का आधार पाकर हिन्दी दिक काल की सीमा पार कर वैश्विक धरातल को अपना चुकी है। संचार माध्यमों आकाशवाणी, दूरदर्शन, दूरसंचार और कम्प्यूटर में हिन्दी के बढ़ते प्रयोग और प्रयुक्तियों को देख सकते हैं।
(अ) आकाशवाणी और हिन्दी- श्रव्य संचार माध्यमों में आकाशवाणी सर्वाधिक लोकप्रिय है। हिन्दी का प्रयोग भारतवर्ष के अतिरिक्त विदेश में भी किया जाता है। बी. बी. सी. लंदन से हिन्दी का आकर्षक प्रयोग सुनाई देता है। ऐसी भाषा में उच्चारण की शुद्धता पर विशेष बल दिया जाता है। व्याकरण-सम्मत रूप होने के साथ बलाघात, विराम, मात्रा और आरोह-अवरोह पर विशेष ध्यान देना होता है।
आकाशवाणी का समाचार पठन या प्रसारण सामान्य जन के लिए होता है। इसलिए विज्ञान, खेल-कूद, चिकित्सा, कृषि और स्वास्थ्य आदि सभी विषयों की भाषा यथासाध्य सरल रखी जाती है।
आकाशवाणी के माध्यम से हिन्दी में वार्ता, परिसंवाद, नाटक और गीत आदि प्रस्तुत किये जाते हैं। आकाशवाणी के प्रारम्भिक चरण में हिन्दी की प्रस्तुति प्रायः ऐसी होती है-
“यह आकाशवाणी का………. केन्द्र है।
अब आप…….. से समाचार सुनिए। “
(ब) दूरसंचार और हिन्दी- दूरसंचार के माध्यमों में टेलीग्राम, टेलीफोन, फैक्स आदि विशेष उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। तार की भाषा की संरचना संक्षिप्तता लिए हुए होती है। हिन्दी में तार देने से शुल्क कम लगता है और वाक्य के पदों को गिनकर शुल्क लिया जाता है। वाक्य को पद आधार पर शिरोरेखा लगाना अनिवार्य है; यथा-“तुम्हारे लिए दिल्ली से छतरी ले जा रहा है।” टेलीफोन आज लगभग सर्वसुलभ संचार माध्यम है।
(स) कम्प्यूटर इन्टरनेट और हिन्दी- वर्तमान युग में कम्प्यूटर मानव को प्रत्येक दिशा में गति देने वाला लोकप्रिय यंत्र है। कम्प्यूटर पर सभी भाषा के कार्य संभव हैं और हो रहे हैं। त्वरित गति से लेखन, छपाई के साथ सामग्री का स्थायी संसाधन संभव है। इंटरनेट पर दूर-देश से E-mail के माध्यम से समाचार आदान-प्रदान संभव हो गया है। इंटरनेट पर दूर देश के पुस्तकालय की किसी भी पुस्तक की सामग्री उपलब्ध कर सकते हैं। चिकित्सा के लिए हर देश में डॉक्टर से सलाह ले सकते हैं। यह श्रेष्ठतम संचार माध्यम है।
(द) दूरदर्शन और हिन्दी- वर्तमान समय में दूरदर्शन सर्वाधिक लोकप्रिय दृश्य श्रव्य माध्यम है। भारतवर्ष की अधिकांश जनसंख्या के द्वारा हिन्दी का प्रयोग किया जाता है। उपभोक्ता संस्कृति के प्रसार-प्रचार के कारण दूरदर्शन पर हिन्दी को गंभीरता से अपनाया जा रहा है। दूरदर्शन पर आने वाले हिन्दी सीरियलों की प्रतिस्पर्धा हिन्दी के महत्व को उजागर करती है। प्रचार-प्रसार की दृष्टि से विज्ञापन में हिन्दी को बढ़ते प्रयोग से हिन्दी का उज्जवल भविष्य सामने आ रहा है। दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के कारण प्रयोक्ता को पर्याप्त अभ्यास करना होता है। दूरदर्शन की हिन्दी भाषा की विविधता विभिन्न चैनलों और उनके कार्यक्रमों में देख सकते हैं। सीरियलों में परिमार्जित, व्यंग्य प्रधान और खिचड़ी भाषा उनके प्रारूप के अनुसार मिलती है। विज्ञापनों की हिन्दी का अपना ही रूप होता है। चलचित्र जगत के अदाकारों मुख्यतः अभिनेत्रियों की अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी का अपना ही रूप होता है; यथा “मैं चलूँगी बट जल्दी आ जाऊँगी।”
दूरदर्शन कार्यक्रम के अन्त में अभिवादन- ‘नमस्कार’ ऐसे शब्दों का प्रयोग करना विशेष प्रभाव छोड़ता है।
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