मानवाधिकार के सिद्धान्त | principles of human rights in Hindi
मानवाधिकार के विभिन्न सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
- नैसर्गिक विधि सिद्धान्त (Natural Law Theory)
- अस्तित्ववाद या राज्य के अधिकार का सिद्धान्त (Positivism or the theory of the Authority and State)
- मार्क्सवादी सिद्धान्त (Marxist Theory)
- न्याय पर आधारित सिद्धान्त (Theories based on Justice)
- गरिमा पर आधारित सिद्धान्त (Theories based on Dignity)
- समानता के सम्मान तथा चिंता पर आधारित सिद्धान्त (Theory based on equality of Respect and concern)
1. नैसर्गिक विधि सिद्धान्त (Natural Law Theory)- नैसर्गिक विधि को जन्म देने का श्रेय ग्रीक लोगों को जाता है। इस सिद्धांत ने ग्रीस के महान विद्वानों सोफोक्लीज (Sophocles) तथा अरस्तू (Aristotle) जैसे महान् विद्वानों को अपनी ओर आकर्षित किया है। ग्रीक विद्वानों के पश्चात् इस सिद्धान्त का विकास रोमन विद्वानों ने किया। रोम लोगों के पूर्व विधि को जस सिविल (Jus Civile) कहा जाता था। तत्पश्चात् रोमन लोगों ने एक अन्य विधिक प्रणाली का विकास किया जिसे जस जेन्टियम (Jus Gentium) कहा। इस प्रणाली को सार्वभौमिक रूप से लागू होने वाली प्रणाली कहा गया। रोम के गणतंत्रीय युग में जस जेन्टियस की नैसर्गिक विधि द्वारा इसे पुनः अर्जित किया गया। नैसर्गिक विधि को रोम में नैचुरेल (Jus naturale) भी कहा जाता था। ब्राइरली के अनुसार रोमन लोगों के अनुसार, “जस नैचूरेल” का तात्पर्य ऐसे सिद्धान्तों के समूह से था जिन्हें मानव आचरण को नियंत्रित करना चाहिये क्योंकि वह मनुष्य की प्रकृति, एक तर्कसंगत एवं सामाजिक जीव के रूप में निहित है। नैसर्गिक विधि उस बात की अभिव्यक्ति है जो सही है उसके विरुद्ध जो केवल समीचीन या कालौचित्य एक विशिष्ट समय या स्थान के लिये है, यह वह है जो युक्तियुक्त है उसके विरुद्ध जो मनमाना है, यह वह है जो नैसर्गिक या स्वाभाविक है उसके विरुद्ध जो सुविधाजनक है, तथा जो सामाजिक अच्छाई या भलाई के लिये जहै उसके विरुद्ध जो व्यक्तिगत इच्छानुसार है। अतः प्राकृतिक या नैसर्गिक विधि मनुष्य की प्रकृति की तार्किक एवं युक्तियुक्त आवश्यकताओं पर आधारित था। रोमन लागों के अनुसार नैसर्गिक विधि में न्याय के प्रारम्भिक सिद्धान्त थे जो उचित तर्क का अधिदेश था। दूसरे शब्दों में उक्त सिद्धान्त प्रकृति के अनुसार थे तथा वह अपरिवर्तनीय तथा शाश्वत थे
प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त आधुनिक मानवीय अधिकारों से निकट रूप से सम्बद्ध है। इसके मुख्य प्रवर्तक जान लॉक (John Locke) थे। उनके अनुसार, जब मनुष्य प्राकृतिक दशा में था जहाँ महिलाएं एवं पुरुष स्वतंत्र स्थिति में थे तथा अपने कृत्यों को निर्धारित करने के लिये योग्य थे तथा वह समानता की दशा में थे। लॉक ने यह भी कल्पना की कि ऐसी प्राकृतिक दशा में कोई भी किसी अन्य की इच्छा या प्राधिकार के अधीन नहीं था। तत्पश्चात् प्राकृतिक दश के कुछ जोखिमों एवं असुविधाओं से बचने के लिये उन्होंने एक सामाजिक संविदा की जिसक द्वारा उन्होंने पारस्परिक रूप से तय किया कि वह एक समुदाय तथा राजनीतिक निकाय स्थापित करेंगे। परन्तु उन्होंने कुछ प्राकृतिक अधिकार जैसे जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार तथा सम्पत्ति का अधिकार अपने पास रखा। यह सरकार का कर्त्तव्य था कि वह अपने नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों का सम्मान एवं संरक्षण करें। वह सरकार जो इसमें असफल रही या जिसने अपने कर्त्तव्य में उपेक्षा बरती अपने पद या कार्यालय की वैधता खो देगी।
2. अस्तित्ववाद या राज्य के प्राधिकार का सिद्धान्त (Positivism or the Theory of the Authority of State)- अस्तित्ववाद अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दियों में प्रचलित था। अस्तित्ववादी यह विश्वास करते थे कि यदि विधि उपुयक्त विधायनी या प्रभुत्वसम्पन्न शासक द्वारा निर्मित की गयी है तो लोग उसे मानने को बाध्य होंगे चाहे वह युक्तियुक्त या अयुक्तियुक्त हो। अस्तित्ववादी इस विधि को लॉ पाजिटिवम (Law Positivum) अर्थात् ऐसी विधि कहते थे जो वास्तव या तथ्य में विधि है न कि ऐसी विधि जिसे होना चाहिए (ought) था। बायन्कर शोएक (Bynker Shock) इस विचारधारा के एक प्रमुख प्रवर्तक थे। अस्तित्ववादियों के अनुसार, मानवीय अधिकारों का स्रोत ऐसी विधिक प्रणाली है जिसमें अनुशास्ति होती है। उन्होंने ‘है’ (is) और ‘होना चाहिये’ (ought) के अन्तर पर बहुत बल दिया गया प्राकृतिक विधि के प्रवर्तकों की आलोचना की जिन्होंने इस अन्तर को भुला दिया। अस्तित्ववादी मत के एक आधुनिक प्रवर्तक प्रो. एच. एल. ए. हार्ट (prof. H.L.A. Hart) हैं। उनके अनुसार विधि की अवैधता तथा विधि की नैतिकता में अन्तर होता है। यही प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त तथा अस्तित्ववादी सिद्धान्त में मूल अन्तर है। अस्तित्ववादियों के अनुसार विधि के वैध होने के लिये यह आवश्यक है कि उसे एक उपयुक्त विधायनी प्राधिकार या शक्ति द्वारा अधिनियमित किया जाय। ऐसी विधि वैध रहेगी चाहे वह अनैतिक ही क्यों न हो।
3. मार्क्सवादी सिद्धान्त (Marxist Theory) – मार्क्सवादियों के अनुसार केवल समुदाय या समाज के उत्थानसे ही व्यक्तियों को उच्च स्वतंत्रतायें प्राप्त हो सकती है। इस सिद्धान्त के दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तियों की मूल आवश्यकताओं की संतुष्टि भी सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के अधीन है। उनके अनुसार, व्यक्तियों के अधिकारों की धारणा एक पूँजीवादी भ्रम है। उनके अनुसार, विधि नैतिकता, प्रजातंत्र, स्वतंत्रता आदि की धारणाएँ ऐतिहासिक कोटियों में आती हैं तथा जिनकी अर्न्तवस्तु या विषयवस्तु समाज या समुदाय के जीवन की दशाओं से निर्धारित होती है। धारणाओं एवं विचारों में परिवर्तन समाज में रहने वाले लोगों के जीवन में होने वाले परिवर्तनों के साथ होते हैं। पिछले दो दशकों में मार्क्सवादियों की धारणा में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये हैं।
4. न्याय पर आधारित सिद्धान्त (Theories based on Justice)- जॉन रोल इस सिद्धान्त के प्रमुख प्रवर्तक हैं। उनके अनुसार, सामाजिक संस्था का प्रथम गुण न्याय है। उनके मतानुसार, मानवीय अधिकारों को समझने के लिए न्याय की भूमिका निर्णायक है। वास्तव में मानवीय अधिकार न्याय का लक्ष्य है। न्याय के सिद्धान्तों द्वारा समाज की मूल संस्थाओं में अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समनुदेशित किया जाता है तथा इसके द्वारा सामाजिक सहयोग के लाभ एवं भार उपयुक्त रूप से विभाजित किये जा सकते हैं। न्याय के सिद्धान्तों के पीछे न्याय की सामान्य धारणा औचित्य की है। न्याय पर आधारित सिद्धान्त औचित्य (Fairness) की धारणा से ओतप्रोत हैं। न्याय एवं औचित्य की धारणायें सामाजिक प्राथमिक लक्ष्यों जैसे स्वतंत्रता एवं अवसर, आय, धन तथा के आधार जो समान रूप से विभाजित किये जायें जब तक कि सबसे कम अनुगृहीत (least favoured) के लाभ के लिये कोई अपवाद न किया जाय, को निर्धारित करने में सहायक होते हैं।
5. गरिमा पर आधारित सिद्धान्त (Theories based on Dignity)- इस मत के प्रवर्तक गरिमा के संरक्षण को सामाजिक नीति का सर्वोपरि उद्देश्य मानते हैं। मूल्यों से अनुस्थापित नीति मानव गरिमा के संरक्षण पर आधारित दृष्टिकोण अपनाते हुए उनका मत है कि मानव अधिकारों की माँगें हैं जिनसे उन सभी मूल्यों में बड़े पैमाने में सभी मूल्यों में हिस्सा लेने जिन पर मानवीय अधिकार समुदाय के सभी मूल्य प्रक्रियाओं में प्रभावशाली ढंग भाग लेने पर निर्भर करते हैं। उनके अनुसार, अन्तर्निर्भर रहने वाले मूल्य हैं जिन पर मानवीय अधिकार निर्भर करते हैं। यह 8 मूल्य निम्नलिखित हैं-
- सम्मान,
- भक्ति,
- जागृति (Enlightenment)
- कल्याण या भलाई,
- स्वास्थ्य,
- कौशल,
- स्नेह या अनुराग, तथा,
- ऋजुता या सिधाई (rectitude)
इस मत के प्रवर्तकों का अन्तिम लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि विश्व समुदाय जिसमें मूल्यों का प्रजातंत्रीय विभाजन है सभी द्रव्यों (resources) का अधिकतम उपयोग हो तथा सामाजिक नीतिक का उद्देश्य मानव गरिमा का संरक्षण हो ।
6. समानता के सम्मान तथा चिंता पर आधारित सिद्धान्त (Theory based of Respect and concern)- इस सिद्धान्त के प्रवर्तक डोवोरकिन (Dovorkin) हैं। इस सिद्धान्त का आधार यह भी है कि सरकार को अपने सभी नागरिकों की समान चिंता तथा सम्मान करना चाहिये। डोवोरकिन ने उपयोगिता के सिद्धान्तों (Utilitarian principles) का अनुमोदन करते हुए कहा है कि प्रत्येक को एक गिना जा सकता है तथा किसी को भी एक से अधिक नहीं गिना जा सकता है। उन्होंने सामाजिक कल्याण के लिये राज्य हस्तक्षेप के विचार का भी अनुमोदन किया। उनके मतानुसार, स्वतंत्रता का अधिकार बहुत ही अस्पष्ट है परन्तु कुछ विनिर्दिष्ट स्वतंत्रतायें हैं जैसे व्यक्त करने का अधिकार पूजा करने का अधिकार व्यक्तिगत तथा लैंगिक सम्बन्धों के सरकारी हस्तक्षेप के विरुद्ध विशेष संरक्षण की आवश्यकता है। यदि स्वतंत्रताओं की उपयोगिता की गणना या बिना नियंत्रित गणना के लिए छोड़ दिया जाए तो संतुलन सामान्य हित के बजाय नियंत्रित या परिसीमन के पक्ष में होगा।
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