अज्ञेय का संस्मरण कवि वत्सलता पर प्रकाश डालिए।
संस्मरण- कवि वत्सलता – अपनी पुस्तक ‘स्मृति-लेखा’ में अपने अग्रज समकालीन लेखकों से सम्बन्धित 12 संस्मरण अज्ञेय ने लिखे हैं। इनमें भारत कोकिला-सरोजनी नायडू को छोड़कर सभी पुण्य स्मरण हिन्दी के वरेण्य साहित्यकारों पर केन्द्रित है। इस संग्रह की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र द्वारा लिखी गई है। इसी संग्रह में ‘कवि वत्सलता’ शीर्षक संस्मरण है जिसे अज्ञेय ने हेमवती देवी के सम्पर्क में आने पर उनके व्यक्तित्व पर जो उनकी छाप पड़ी, उसे रेखांकित किया है। डॉ० विद्यानिवास मिश्र ने भूमिका में लिखा है कि – “भाई के जीवन का वह संक्रमण काल हेमवती जी का स्नेह न पाता तो पता नहीं ऐसा उज्जवल पर साथ ही साथ इतना मृदु होता ही नहीं।” अर्थात् अज्ञेय के व्यक्तित्व को हेमवती जी ने प्रभावित किया था।
हेमवती जी का जन्म 20 नवम्बर 1906 को मेरठ वासित श्री राय नत्थ जी (पत्थर वाले) के परिवार में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती कुन्दनी देवी था। चूँकि इनके माता पिता ने सन्त प्राप्ति के लिए यज्ञ किया था, अतः का जन्म होने पर इनका नाम होता रखा गया जो कि हेमवती देवी के नाम से पहचानी गयी। आपका विवाह जलेसर के डॉ० चिरंजीलाल सिंहल से हुआ जो कि असिस्टेन्ट सर्जन थे। ललितपुर में एक दुर्घटना के उपरान्त उनका मेरठ में देहान्त हो गया। हेमवती जी को अज्ञेय एक कहानीकार के रूप में मानते हैं – ‘कहानी क्षेत्र में वह अपने ढंग की लेखिका थीं और हिन्दी साहित्य की उनके निधन से बड़ी क्षति हुई है। (कवि वत्सलता, स्मृति-लेखा पृ० १0) हेमवती जी के दो कविता संग्रह – उद्गार (1936 ई.) तथा अर्ध (1939 ई.) एवं चार कहानी संग्रह-निसर्ग (1939 ई.) धरोहर (1946 ई.) स्वप्न भंग (1948 ई.) तथा अपना घर (1950 ई.) में प्रकाशित हुए। उन्होंने उपन्यास भी लिखा किन्तु वह अधूरा रह गया। 3 फरवरी 1951 को आपका निधन हो गया।
‘कवि वत्सलता’ संस्मरण में अज्ञेय ने हेमवती जी के गुणों की चर्चा करते हुए, एक भारतीय नारी के चरित्र को उभारा है। साथ ही वर्तमान स्त्री विमर्श के लिए हेमवती जी का व्यक्तित्व- कृतित्व उद्धरण है।
हेमवती जी की सबसे बड़ी विशेषता सहज, शुद्ध मानवीयता थी। एक ओर वह स्नेह से आपूरित सर्वत्सला थी, वहीं दूसरी ओर उनमें भारतीय स्त्री के अनुरूप परम्परा बोध था। साथ ही आधुनिक स्त्री की भाँति स्वावलम्बन एवं अस्मिता की तलाश थी। उनमें आत्मीयता, सुघरता, अतिथेयता, शील, नये विचारों की गृहणशीलता, परिवार बोध, आर्द्र करुणा, अन्याय के प्रति सहज आक्रोश आदि भाव तो थे ही साथ ही स्वाभिमान, कर्तव्य परायणता, परन्तु दुख कातरता, स्वावलम्बन के प्रति भी निष्ठा थी। वह गम्भीर एवं संवेदनशील महिला थीं।
अज्ञेय ने उनकी सन्निकटता में अनुभव किया कि उनमें प्रबन्धन की अद्भुत क्षमता थी। में आर्थिक स्थिति से कमजोर होने की स्थिति में भी वह अपने निकटवर्ती लोगों की आवश्यकताओं के प्रति सजग थीं। केवल घर से जुड़े प्रजा वर्ग-कहारिन, ग्वाला, मेहतरानी, दर्जी, हलवाई ही नहीं अपितु उनके घर पर अतिथि बन कर आये स्वजनों एवं साहित्यकारों के प्रति अत्यन्त संवेदनशील थीं। यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के प्रति भी अत्यन्त भावाकुल हो जातीं।
लेखन में रुचि होने के कारण साहित्यकारों का सम्मान करतीं तथा अपनी साहित्यिक गतिविधियों को क्रियान्वित करने के लिए स्वयं कार्य करतीं और प्रबोधित करतीं। पुस्तकालय को अपने घर पर स्थानान्तरित करने, आयोजनों को सफल बनाने तथा हस्तलिखित पत्रिका ‘संक्रान्ति’ को ‘लिपिबद्ध करने में उनकी कार्य कुशलता उल्लेखनीय है। उनके अन्दर धैर्य एवं परिश्रम की अद्भुत क्षमता थी किन्तु किसी कार्य का ‘इनिशिएटिव’ लेने में संकोची थीं। साथ ही परिषद् एवं स्वयं की आर्थिक दृष्टि की सुदृढ़ता के लिए, उन्होंने चर्म शिल्प का उद्यम भी किया जो उनके स्वावलम्बी प्रवृत्ति की झलक प्रेषित करता है।
कुल मिलाकर अज्ञेय जैसे क्रान्तिकारी के उबाल को हेमवती जी ने अपने स्नेह की छींटों से आप्लावित किया, जिसका प्रभाव अज्ञेय जी के व्यक्तित्व पर पड़ा। अतः हेमवती जी उनके लिए ‘बहिन जी’ से अधिक अपनी हो गईं। उनकी स्मृति अज्ञेय की पूँजी बनी।
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