राष्ट्रीय संस्कृति काव्य धारा के यशस्वी के रूप में दिनकर का मूल्यांकन कीजिए।
जब देश पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा था एवं स्वाधीनता के लिए संघर्ष हो रहे थे उसी समय दिनकर जी का प्रादुर्भाव एक क्रान्ति के पक्षधर कवि के रूप में हुआ। वे गाँधी जी के आहिंसा के पक्षधर नहीं थे बल्कि क्रान्तिकारियों के पक्षधर थे। जब युवा क्रान्तिकारी भगतसिंह, यतीन्द्रनाथ बटुकेश्वर दत्त पर जेल में अत्याचार किये जा रहे थे तब जहाँ सारा देश उत्तेजित हो उठा था, वहाँ दिनकर भी इससे अछूते नहीं रहे। यतीन्द्रनाथ की शहादत पर दिनकर जी ने 200 पंक्तियों की एक लम्बी कविता लिख डाली।
‘रेणुका’ की राष्ट्रीय चेतनामें करुणा और अवसाद का स्वर केवल अतीत से सम्बन्धित कविताओं में ही नहीं प्रत्युत वर्तमान परिस्थितियों से प्रेरित रचनाओं में भी मिलता है। यों वह गाँधी के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं आस्था रखते थे लेकिन उनकी अहिंसा नीति के पूर्ण समर्थक कभी नहीं रहे क्योंकि बंगाल और बिहार के क्रान्तिकारियों के आन्दोलन से प्रभावित थे। अतएव स्वाधीनता प्राप्ति के लिए हिंसा का मार्ग अपनाने में भी उन्हें हिचक नहीं थी। निम्न पंक्तियाँ उसकी पुष्टि कर देती हैं
“रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दो उनको स्वर्ग धीर ।
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर ।।”
अपने देश जहाँ के साम्प्रदायिक दंगो से क्षुब्द होकर दिनकर कह उठते हैं-
गुन बढ़ाया जा रहा इंसान का, सींग वाले जानवर के प्यार में।
मौन की तकदीर फोड़ी जा रही, मस्जिदों की ईंट की दीवार में।।
वही विश्व पटल पर हिटलर के अत्याचारों से रुष्ट हो वह कटु रूप से कहते हैं-
राइन तट पर खिली सभ्यता हिटलर खड़ा मौन बोलो।
सस्ता खून यहूदी का है नाली निज स्वास्तिक धोले ।।
‘सामधेनी’ और ‘कुरुक्षेत्र’ काव्य की रचना द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों द्वारा भोगी गयी कठिनाइयों और विपत्तियों को पृष्ठभूमि बनाकर हुई तथा राजनीतिक स्थितियों और चेतना से प्रभावित है। सन् 1942 में भारत छोड़ो प्रस्ताव पास होने पर अंग्रेजों का दमन चक्र निर्ममतापूर्वक चला। आग की दिशा में इसी पीड़ित जनता का ही चित्र है।
सुलगती नहीं यज्ञ की आग दिशा धूमिल यजमान अधीर ।
पुरोधा कवि कोई है यहाँ ? देश के ज्वाल के तीर ।।
देश की छोटी एवं महत्वपूर्ण घटनाएँ और समस्याएँ भी दिनकर की दृष्टि के स्पर्श से बची नहीं रह सकीं। आजाद हिन्द सेना के बलिदान और वीरता की कहानी सरहद के पार फूलेगी। ‘डाली में तलवार’ शीर्षक कविताओं में कही गयी है, गाँधी जी की निर्मम हत्या से पीड़ित होकर कवि वज्रपात और अघटन घटना का समाधान लिखने को प्रेरित हुआ है, तो दिल्ली और मास्को में भारत के साम्यवादियों की राष्ट्रविरोधी नीतियों और मास्कोमुखी दृष्टिकोण से क्षुब्ध होकर उन्हें स्वदेश के प्रति अपने कर्तव्य का बोध कराया। बिहार में हुए दंगे से दुःखी होकर उन्होंने ‘ हे मेरे स्वदेश’ शीर्षक कविता में लज्जा, ग्लानि और विवशता का चित्रण किया है-
यह विकट भास! यह कोलाहल इस वन से मन उकसाता है।
भेड़िये ठठाकर हँसते हैं, मनु का बेटा चिल्लाता है।।
इस प्रकार मिलने के पश्चात् देश में देशवासियों की आशा के अनुरूप प्रगति और विकास करते न देखकर कवि ‘जनतन्त्र का जन्म’ नामक कविता लिखता है तथा ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ कहकर तत्कालीन शासक जन प्रतिनिधियों को चुनौती दे डाली है।
दिनकर जी की राष्ट्रीय चेतना वर्तमान की पुकार से सजग होती है और क्रान्ति का नारा लगाती है। उन्हें शक्ति के प्रति अगाध आस्था है।
दिनकर की राष्ट्रीय चेतना पर सत्य और अहिंसा के प्रभाव के दो स्रोत है। (1) प्रतीक परम्परा का प्रभाव तथा (2) गाँधी जी का प्रभाव। वह एक ओर अहिंसावादी नीति का विरोध करते है तो दूसरी ओर शक्ति और क्रान्ति के महत्व का वर्णन करते हैं। परशुराम की प्रतीक्षा में अहिंसा की नीति का विरोध करते हुये प्रतिशोध शक्ति की प्रशंसा करते हैं।
दिनकर की राष्ट्रीयता आपद धर्म के रूप में ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में व्यक्त हुई है। भारत पर चीन के आक्रमण से सारे देश में आक्रोश व्याप्त हो गया। दिनकर का आक्रोश केवल चीन के आसुरी आक्रमण के कारण नहीं हैं। इसके लिए वह भयभीत राजतन्त्र, विचार दर्शन और नेताओं की निर्वीर्य शान्ति नीति को उत्तरदायी मानते हैं जिससे भारत के शक्ति बल का विकास नहीं हो सका और चीन को आक्रमण करने का दुस्साहस हुआ इसलिए उन्होंने गाँधीवादी के नाम पर चलती हुई कृत्रिमता और निर्बाध कल्पनाओं का खण्डन एवं विरोध किया। भारत की शान्ति और तपस्या नीति की अव्यावहारिकता और भ्रान्त आध्यात्मिकता का त्याग किया साथ ही राजनीतिज्ञों और सत्ताधारियों के भ्रष्टाचारों तथा आन्तरिक अवस्थाओं की ओर संकेत किया ऐसी अभिव्यक्ति कहीं-कहीं उग्र और चोट करने वाली बन गयी है।
चीन के आक्रमण की घटना से दिनकर की यह आस्था और भी दृढ़ हो गयी कि लाल लपट से भारत की और भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए हमें दृढ़ सैन्य बल का सहारा लेना पड़ेगा तथा शक्तिशाली बनकर ही हम उस लपट का मुँहतोड़ जवाब दे सकते हैं।
दिनकर की राष्ट्रीयता वास्तव में भाववादी राष्ट्रीयता है जिसमें चिन्तन के संगीत की अपेक्षा आवेग और आवेश ही प्रधान है। गुलामी के वातावरण में अंग्रेजों के शोषण और अत्याचारों की प्रतिक्रिया का शक्तिशाली रूप दिनकर के काव्य में दिखाई देता है। उसमें उत्साह, उमंग, प्रेरणा और आस्था है। दिनकर ने हिंसा आदि को प्रकाशित करने के साथ-साथ अहिंसा और प्रेम दर्शन का भी वर्णन किया है। उनकी राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता यथा मानवतावाद में परिणत होने का प्रयास करती है। भीष्म, युधिष्ठिर, कर्ण और परशुराम मानवतावादी और आदर्शवादी है। दिनकर उस पुनरुत्थानवादी धारा के राष्ट्रीय कवि हैं जो भारतेन्दु से आरम्भ होकर छायावादी काव्य में व्यक्त हुई। जिस प्रकार प्रसाद ने चन्द्रगुप्त के माध्यम से प्राचीन पात्रों में कर्म और शक्ति का सौन्दर्य दिखाया है उसी प्रकार दिनकर ने भीष्म, परशुराम आदि के माध्यम से कर्म और क्रान्ति का प्रेरक वर्णन किया है। किन्तु शक्ति और क्रान्ति का जो वेग खुलकर दिनकर के काव्य में व्यक्त हुआ है वह अन्य में नहीं मिलता।
इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से यह सिद्ध होता है कि दिनकर जी का काव्य राष्ट्रीयता से परिपूर्ण ओजस्वी स्वर मुखरित करने वाला है। दिनकर जी जन साधारण के प्रति समर्पित रहे हैं और राष्ट्रीय जागरण के प्रेणता होने के कारण दिनकर जी को राष्ट्रीय हिन्दी कविता का वैतालिक भी कहा जा सकता है। दिनकर छायावादोत्तर काल के प्रमुख राष्ट्रीय कवि हैं।
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