हिन्दी साहित्य

आधुनिक हिन्दी काव्य की भाव व्यंजना तथा भाषा

आधुनिक हिन्दी काव्य की भाव व्यंजना तथा भाषा
आधुनिक हिन्दी काव्य की भाव व्यंजना तथा भाषा
आधुनिक हिन्दी काव्य की भाव व्यंजना तथा भाषा पर अपने विचार प्रकट कीजिये।

आधुनिक हिन्दी काव्य की भाव व्यंजना बहुआयामी भी रही है क्योंकि उसने विविध काव्य युगों के अनुरूप अपने को संजोया है। भारतेन्दु-युग एवं द्विवेदी-युग में देश प्रेम, राष्ट्रीयता की मुखर अभिव्यक्ति एवं समाज सुधार की प्रवृत्तियां ही कवि की भाव व्यंजना का मुख्य आधार रहीं। इसी प्रकार छायावादी युग में आत्मानुभूति, प्रकृति का मानवीकरण, वेदना, प्रेम एवं सौन्दर्य की भावनायें काव्य का विषय बनी। प्रगतिवादी चेतना के अनुरूप कवि ने कार्ल मार्क्स की चिनाना को नया रूप और सौन्दर्य दिया। सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति, पूंजीवाद के प्रति आक्रोश, समूल क्रान्ति के विषय रहे। अहं और काव्य की भाषा जनसामान्य की रही जो कि छायावाद में अपनी चरम सीमा पर थी। प्रयोगवाद एवं नयी कविता में जीवन की जटिलताओं और मानव की अहंवादिता और कुंठाओं को महत्व मिला जिसके कारण कवि ने भाषा में नये उपमान बिम्ब खोजे। समकालीन कविता में भी कवि ने भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से नये प्रयोग किये। श्रीकान्त वर्मा की निम्नलिखित पंक्तियों में विद्रोह की सशक्त अभिव्यक्ति है।

कुछ लोग! मूर्तिया बनाकर
फिर बेचेंगे ‘क्रान्ति की अथवा षडयन्त्र की’
कुछ लोग सारा समय
कसमें खायेंगे लोकतंत्र की
मुझसे नहीं होगा
जो मुझसे नहीं हुआ ‘

इस प्रकार आधुनिक हिन्दी कविता विविध काव्य युगों से जुड़ी कविता है जिसमें समय और परिस्थिति के साथ भाव और भाषा के क्षेत्र में परिवर्तन किए हैं।

( 1 ) भारतेन्दु युग सन् (1868 से 1903) – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक हैं। इस युग में उन्हीं से प्रभावित हो अन्य कवियों ने भी काव्य रचना की है, अतः इसे ‘भारतेन्दु युग’ की संज्ञा दी जाती है। यह आधुनिक हिन्दी कविता का आरम्भिक युग है, अतः इसमें अपने पूर्ववर्ती रीतिकाल का कुछ प्रभाव शेष रह जाना स्वाभाविक है। यही कारण है कि इस युग की कविता में ब्रजभाषा का ही प्राधान्य रहा। राष्ट्रीय भावना और देश भक्ति, समाज-सुधार, उदार मानवतावादी दृष्टिकोण, नवयुग की चेतना, अनेक लोक-छन्दों का प्रयोग, ब्रज के अतिरिक्त खड़ी बोली का भी प्रयोग आदि भारतेन्दु युगीन कविता की प्रमुख विशेषतायें है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बद्री नारायण चौधरी, प्रेमधन, श्रीधर पाठक, राधाकृष्णदास आदि इस युग के प्रमुख कवि हैं।

( 2 ) द्विवेदी युग (1903 से 1920) – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तत्कालीन हिन्दी साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया। इसीलिये इसे ‘द्विवेदी युग’ कहते हैं। देश-प्रेम, राष्ट्रीय-चेतना, समाज-सुधार, लोक-मंगल की भावना, नारी के प्रति सहानुभूति और समता की भावना, खड़ीबोली की प्रतिष्ठा, इतिवृत्तात्मकता आदि इस युग की कविता की विशेषतायें है। मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, रामनरेश त्रिपाठी आदि इस युग के प्रमुख कवि है।

( 3 ) छायावादी युग (1920 से 1935) – द्विवेदी युग की कविता के विरुद्ध नवीन प्रतिभाशाली युवा कवियों ने प्रेम-सौन्दर्य की भावनाओं से एक नयी अनुभूति और कल्पनामयी कविता को जन्म दिया। यही आगे चलकर छायावाद के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस काव्यधारा की प्रमुख विशेषतायें हैं अनुभूति एवं कल्पना की प्रधानता, प्रेम और सौन्दर्य की अभिव्यंजना, प्रकृति का सजीव चित्रण और उसका मानवीकरण, रहस्य-भावना, प्रतीकात्मकता, नव-नव छन्दों और अलंकारों का प्रयोग आदि। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा आदि इस युग के प्रमुख कवि है।

( 4 ) प्रगतिवादी युग ( 1935 से 1942 )- छायावादी कविता जनजीवन से दूर चली गयी तो उसे धरती पर उतारने का प्रयास हुआ। फलस्वरुप प्रगतिवाद का जन्म हुआ। धरती के मनुष्यों की समस्यायें और सख-दख इस कविता के वर्ण्य-विषय बने। कवियों ने देखा कि असंख्य श्रमजीवी लोग नारकीय जीवन बिता रहे हैं जबकि कुछ वैभव सम्पन्न व्यक्तियों के कुत्ते भी इनसे ज्यादा सुखी हैं। इन परिस्थितियों में कुटिया और महल के अन्तर को मिटाने का क्रान्तिकारी स्वर हिन्दी की इसी कविता में दिखाई पड़ा। प्रगतिवादी कविता में हमें भाषा-शैली की दृष्टि से फिर द्विवेदी युग की झलक मिलने लगती है। दिनकर, निराला, हरिकृष्ण प्रेमी, रामविलास शर्मा आदि इस कविता धारा के उल्लेखनीय कवि हैं।

( 5 ) प्रयोगवाद और नयी कविता का युग (1943 से अब तक) – सन् 1943 में प्रथम ‘तार सत्तक’ के प्रकाशन के साथ हिन्दी में प्रयोगवाद का आरम्भ हुआ। यही धारा विकसित होकर 1952-54 तक ‘नयी कविता’ के रूप में स्थापित हो गयी। आज इसी का युग चल रहा है। इसकी मुख्य विशेषतायें ये हैं अति वैयक्तिकता, यथार्थवाद, नैतिकता का आग्रह, विद्रोह का स्वर, यौन भावनाओं का मुक्त चित्रण, सामाजिक विषमता के प्रति व्यंग्य, विचित्रता का प्रदर्शन, प्रकृति का बहुविधि चित्रण, कल्पनाओं, भावों और भाषा की अनगढ़ता और भदेसपन, प्रतीकात्मकता, नवीन उपमान विधान, भाषा और शैली के नव प्रयोग आदि। अज्ञेय, मुक्तिबोध, नलिन-विलोचन शर्मा, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, राम विलास शर्मा, जगदीश गुप्त, भवानी प्रसाद मिश्र आदि इस धारा के प्रमुख कवि हैं।

आधुनिक हिन्दी कविता के नये दौर में धूमिल एवं मुक्तिबोध सशक्त कवि हुए जिन्होंने बिम्ब एवं प्रतीकों के माध्यम से काव्यभाषा को संवारने का प्रयास किया है। मुक्तिबोध की ‘अधेरे में’ कविता सर्वाधिक सशक्त है।

कवि कहता है। –

अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब
पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार ।
जब कहीं देखते मिलेंगी बातें।
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता।
अरुण कमल एक।’
‘संसद से सड़क तक’ कविता में धूमिल कहते हैं
‘इस वक्त जब कान नहीं सुनते हैं कवितायें
कविता पेट से सुनी जा रही है
आदमी गजल नहीं गा रहा है।
गजल आदमी को गा रही है।’

इस प्रकार कवि अपने परिवेश के प्रति पूर्ण सजग है। निष्कर्ष यह है कि आधुनिक हिन्दी कविता ने भारतेन्दु युग से समकालीन कविता अपने सोपान पार किये हैं और उसी के साथ अपने को परिवर्तित भी किया है। इस प्रकार हिन्दी की आधुनिक कविता सतत् विकासमान रही है।

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Anjali Yadav

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