संविदा / अनुबन्ध की परिभाषा दीजिए। वे कौन-कौन से तत्व हैं जो अनुबन्ध की वैधानिकता पर प्रभाव डालते हैं? अथवा “अनुबन्ध एक ऐसा ठहराव है जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय है।” स्पष्ट कीजिए।
संविदा से आशय- संविदा को अनुबन्ध या प्रसंविदा के नाम से भी जाना जाता है। अनुबन्ध का शाब्दिक अर्थ यह निकलता है कि दो व्यक्तियों के बीच में कोई बन्धन की स्थिति है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अनुबन्ध में एक या एक से अधिक पक्ष किसी कार्य को करने या न करने का दायित्व लेते हैं वैध अनुबन्ध से आशय ऐसे अनुबन्ध से लगाया जाता है जिस अनुबन्ध को न्यायालय के द्वारा परिवर्तित कराया जा सके।
अनुबन्ध से आशय एवं परिभाषा – अनुबन्ध एक वैधानिक शब्द है जिसकी परिभाषा एवं व्याख्या विभिन्न न्यायाधीशों एवं विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रस्तुत की है। अध्ययन में सुविधा की दृष्टि से अनुबन्ध की विभिन्न परिभाषाओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (अ) प्रमुख न्यायाधीशों द्वारा दी गयी परिभाषाएं (ब) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 में दी गयी परिभाषा ।
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(अ) प्रमुख न्यायाधीशों द्वारा दी गयी परिभाषाएँ-
(1) सालमण्ड के शब्दों में, “अनुबन्ध वह ठहराव (समझौता) है जो पक्षकारों के बीच दायित्व उत्पन्न करता है तथा उन्हें परिभाषित करता है।” (यह परिभाषा ठहराव की वैधानिकता पर प्रकाश नहीं डालती, साथ ही इसमें दायित्वों को भी स्पष्ट नहीं किया गया है क्योंकि दायित्व विभिन्न प्रकार के होते हैं जैसे-सामाजिक दायित्व, राजनीतिक दायित्व एवं वैधानिक दायित्व इत्यादि । )
(2) सर विलियम ऐन्सन के अनुसार, “अनुबन्ध दो या दो से अधिक पक्षकारों के बीच हुआ एक समझौता है जो कि राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है और जिसके द्वारा एक या एक से अधिक पक्षकार दूसरे पक्षकारों के विरुद्ध कुछ अधिकार प्राप्त कर लेते है।” (यह परिभाषा भी दायित्व को परिभाषित नहीं करती है।)
(3) लीक के शब्दों में, “एक वैधानिक अनुबन्ध होने का आशय एक ऐसे ठहराव से है जिसके द्वारा एक पक्षकार कुछ निष्पादन करने के लिए बाध्य होगा जिसको प्रवर्तनीय कराने का दूसरे पक्षकार को वैधानिक अधिकार होगा।” (यह परिभाषा अनुबन्ध के प्रमुख लक्षणों को परिभाषित करती है।)
(4) फ्रेडरिक पोलक के अनुसार, “प्रत्येक ठहराव (समझौता) तथा वचन जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय है, एक अनुबन्ध है।” (यह परिभाषा अनुबन्ध के वैधानिक पक्ष को महत्व प्रदान करती है।)
(ब) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 में दी गयी परिभाषा –
धारा 2 (h) के अनुसार, “अनुबन्ध एक ऐसा ठहराव है जो कि राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है।” अधिनियम द्वारा की गयी उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार एक अनुबन्ध होने के लिए मुख्य रूप से दो तत्वों का होना आवश्यक है—(अ) पक्षकारों के बीच ठहराव या समझौता होना (ब) उस समझौते का राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होना। अन्य शब्दों में केवल वहीं समझौते अनुबन्ध होते हैं, जिनकों वैज्ञानिक रूप से क्रियान्वित कराया जा सकता है।
निष्कर्ष रूप में – (अ) प्रस्ताव + स्वीकृति = समझौता (ठहराव),
(ब) समझौता + राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय = अनुबन्ध।
अब प्रश्न यह उठता है कि कौन से करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय हैं। इस सम्बन्ध में भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 10 अधिक स्पष्ट प्रकाश डालती है। इसके अनुसार, “सब करार संविदाएँ हैं, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की सहमति से किसी विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और किसी विधिपूर्ण उद्देश्य से किये गये हैं और एतद् द्वारा अभिव्यक्त शून्य घोषित नहीं किये गये हैं।
अनुबन्ध की वैधानिकता पर प्रभाव डालने वाले तत्व
1. पक्षकारों के मध्य ठहराव होना- ठहराव में कम से कम दो पक्षकार होने चाहिए। क्योंकि ठहराव की उत्पत्ति एक पक्षकार द्वारा प्रस्ताव करने और दूसरे के द्वारा उसकी स्वीकृति करने पर होती है।
2. पक्षकारों के मध्य हुए ठहराव से दायित्व उत्पन्न होना- अनुबन्ध बनने के लिए ठहराव के द्वारा पक्षकारों के मध्य दायित्व का उत्पन्न होना आवश्यक है। सालमण्ड के अनुसार- अनुबन्ध अधिनियम केवल उन्हीं ठहरावों का अधिनियम है जो दायित्व उत्पन्न करते हैं तथा उन्हीं दायित्वों का अधिनियम है जिनका स्रोत ठहराव होता है। ठहराव वैधानिक दायित्व उसी दशा में उत्पन्न कर सकता है जब पक्षकारों में सहमति या मतैक्य हो। पक्षकारों में सहमति या मतैक्य से आशय दोनों पक्षकारों द्वारा अनुबन्ध की विषय सामग्री का एक ही आशय समझा जाना है।
अनुबन्ध का राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होना- भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872 के धारा 2(h) के अनुसार, “अनुबन्ध एक ऐसा ठहराव है जो कि राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है।
दायित्व के राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होने से आशय है कि यदि एक पक्ष अपने वचन को निभाने में त्रुटि करता है दूसरा पक्ष उसे न्यायालय की सहायता से वचन को निभाने के लिए बाध्य कर सकता है। परन्तु कुछ दायित्व ऐसे भी होते हैं जो अधिनियम द्वारा प्रवर्तनीय तो होते हैं परन्तु कोई ठहराव उत्पन्न नहीं करते। ऐसे दायित्व निम्नलिखित हैं-
(i) न्यायालयों द्वारा घोषित निर्णय, (ii) अर्द्ध अनुबन्ध, (iii) दीवानी अपकार या दुस्कृति, (iv) पति-पत्नी, ट्रस्टों व लाभ पाने के मध्य उत्पन्न दायित्व।”
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि वे ठहराव जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होते हैं तथा कुछ शर्तों को पूर्ण करते हैं, अनुबन्ध कहलाते हैं।
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