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अनुबन्ध करने की क्षमता से आप क्या समझते हैं? भारत में अवयस्क द्वारा किये गये अनुबन्धों के सम्बन्ध में राजनियम

अनुबन्ध करने की क्षमता से आप क्या समझते हैं? भारत में अवयस्क द्वारा किये गये अनुबन्धों के सम्बन्ध में राजनियम
अनुबन्ध करने की क्षमता से आप क्या समझते हैं? भारत में अवयस्क द्वारा किये गये अनुबन्धों के सम्बन्ध में राजनियम

अनुबन्ध करने की क्षमता से आप क्या समझते हैं? भारत में अवयस्क द्वारा किये गये अनुबन्धों के सम्बन्ध में राजनियम की व्याख्या कीजिए। 

अनुबन्ध करने की क्षमता’ का आशय- अनुबन्ध करने की क्षमता का आशय यह है कि अनुबन्ध के पक्षकारों में अनुबन्ध करने की वैधानिक क्षमता होनी चाहिए अन्यथा उनके बीच किसी प्रकार का वैधानिक दायित्व उत्पन्न नहीं होता है।

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 11 के अनुसार, “प्रत्येक वह व्यक्ति जो उस अधिनियम के अनुसार वयस्क है जिसका वह विषय है तथा जो स्वस्थ मस्तिष्क का है, एवं किसी अधिनियम द्वारा अनुबन्ध के लिए अयोग्य घोषित नहीं किया गया है, अनुबन्ध करने के योग्य हैं।” दूसरे शब्दों में निम्नलिखित व्यक्ति अनुबन्ध करने के अयोग्य होते हैं-

  1. अवयस्क
  2. व्यक्ति जो स्वस्थ मस्तिष्क के नहीं हैं
  3. ऐसे व्यक्ति जो किसी राजनियम द्वारा अनुबन्ध करने के अयोग्य घोषित कर दिये गये हों।

अत: अनुबन्ध करने योग्य व्यक्ति में निम्न तीन गुणों का होना आवश्यक है-

  1. उसे सम्बन्धित राजनियम के अन्तर्गत वयस्क होना चाहिए।
  2. उसे स्वस्थ मस्तिष्क को होना चाहिए।
  3. उसे अनुबन्ध करने से अयोग्य घोषित न किया गया हो।

प्रायः राजनियम की दृष्टि से यह समझा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अनुबन्ध करने के योग्य है अतः जब कोई व्यक्ति अनुबन्ध करने के अयोग्य होने के कारण दायित्व से मुक्त हो जाता है तो उसी को यह प्रमाणित करना होता है कि वह अनुबन्ध करने के अयोग्य है।

अवयस्क के सम्बन्ध में वैधानिक स्थिति

“एक अवयस्क दूसरों को बाध्य करता है लेकिन वह स्वयं दूसरों से बाध्य नहीं होता।” भारत में अवयस्क द्वारा अनुबन्ध करने की क्षमता के सम्बन्ध में निम्न व्यवस्थाएँ हैं-

1. अवयस्क के साथ किया गया अनुबन्ध पूर्णरूप से व्यर्थ होता है- धारा 11 के अनुसार अवयस्क के साथ किया गया अनुबन्ध पूर्णरूप से व्यर्थ होता है। अतः यदि कोई अवयस्क किसी अनुबन्ध के अधीन कुछ धन प्राप्त कर लेता है अथवा किसी कार्य को करने का वचन देता है तो उसे न तो धन लौटाने के लिए और न कार्य करने के लिए ही बाध्य किया जा सकता है। अवयस्क के साथ अनुबन्ध करने वाले पक्षकार को उसके अवयस्क होने की जानकारी न भी हो तो भी अवयस्क के साथ किया गया अनुबन्ध व्यर्थ होता है।

इस सम्बन्ध में मोहरी बीबी बनाम धर्मदास घोष (1930) 30 कलकत्ता, 539 का मामला बहुत महत्वपूर्ण है। इस विवाद ने भारतीय राजनियम में एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी, क्योंकि इस विवाद से पहले कानूनी मत था कि अवयस्क के साथ किया गया अनुबन्ध व्यर्थनीय (Voidable) होता है, व्यर्थ (Void) नहीं, किन्तु इस विवाद में स्पष्ट निर्णय दिया गया था कि अवयस्क द्वारा किया गया अनुबन्ध न केवल व्यर्थ है अपितु पूरी तरह व्यर्थ है।

इस विवाद में धर्मदास घोष एक अवयस्क था। उसने 20 जुलाई, 1905 ई० को अपनी सम्पत्ति की जमानत् पर 20,000 रुपयें का बन्धक लिखा था, किन्तु उसे सिर्फ 8,000 रुपये महाजन से मिले थे। अवयस्क ने बन्धक को रद्द करने के लिए न्यायालय में वाद प्रस्तुत किया। महाजन की तरफ से यह कहा गया कि अनुबन्ध व्यर्थनीय था और अवयस्क उसका परित्याग कर रहा था, अतः भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 64 और 65 के अनुसार अवयस्क को दिया गया 8,000 रुपया वापस होना चाहिए। प्रीवी कौन्सिल के निर्णय देते हुए यह बताया कि अवयस्क का अनुबन्ध बिल्कुल व्यर्थ होता है। इसलिए अनुबन्ध के अधीन प्राप्त रकम लौटाने के लिए अवयस्क उत्तरदायी नहीं है, क्योंकि धाराएँ 64 और 65 ऐसे विवादों में लागू नहीं हो सकती, जहाँ कोई अनुबन्ध ही नहीं हो सकता।

2. जीवन के अस्तित्व सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिए किये गये अनुबन्ध के लिए दायित्व- यद्यपि एक अवयस्क ऋण लेने के लिए अथवा लाभ के लिए किसी वस्तु या सम्पत्ति के क्रय करने का वैधानिक अनुबन्ध नहीं कर सकता, किन्तु अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह अनुबन्ध कर सकता है। ऐसी स्थिति में अवयस्क की सम्पत्ति (यदि कोई हो) दायी होगी, उसे व्यक्तिगत रूप से दायी नहीं ठहराया जा सकता।

अवयस्क की अनिवार्य आवश्यकताओं के सम्बन्ध में दिशा-निर्देश
  1. स्वयं या आश्रितों के भोजन, कपड़ा, मकान आदि सम्बन्धी व्यय ।
  2. स्वयं की या आश्रितों की शिक्षा व चिकित्सा सम्बन्धी व्यय ।
  3. सम्पत्ति की रक्षा के लिए व्यय ।
  4. स्वयं या आश्रितों के विवाह, यात्रा, अन्तिम संस्कार सम्बन्धी व्यय ।
  5. शृंगार व सजावट व्यय नहीं। (पीटर्स बनाम फ्लेमिंग)
  6. आवश्यक व्यय जीवन स्तर और आर्थिक स्थिति के अनुरूप ।
  7. वस्तुओं का उचित मूल्य।

3. अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए स्वयं दायी नहीं- इन आवश्यकताओं सम्बन्धी व्ययों के भुगतान के लिए अवयस्क व्यक्तिगत रूप से दायी नहीं हैं बल्कि उसकी सम्पत्ति से चुकता कराया जा सकता है। यदि उसके पास सम्पत्ति नहीं है तो देनदार अपना भुगतान नहीं प्राप्त कर सकता।

4. अवयस्क द्वारा अपने लाभ के लिए अनुबन्ध करना- सन्नियम अवयस्क को लाभ प्राप्त करने के अयोग्य नहीं मानता। यद्यपि ऐसे किसी अनुबन्ध को अवयस्क के विरुद्ध लागू नहीं किया जा सकता, जिसमें अवयस्क स्वयं जिम्मेदार हो जाता है, फिर भी भारतीय अनुबन्ध अधिनियम अवयस्क को वचनग्रहीता होने से नहीं रोकता। किसी अवयस्क के लाभ के लिए किया गया बन्धक, जिसकी रकम अवयस्क ने दी है, अवयस्क द्वारा या उसकी तरफ से किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा लागू कराया जा सकता है। इसी प्रकार अवयस्क के लाभ के लिए लिखा गया प्रतिज्ञा-पत्र भी मान्य होता है। अवयस्क द्वारा नौकरी करने का अनुबन्ध भी न्यायालय की दृष्टि से मान्य होता है।

5. अवयस्क के संरक्षक अथवा निरीक्षक द्वारा वैध अनुबन्ध- यद्यपि एक अवयस्क एक मान्य अनुबन्ध नहीं कर सकता, परन्तु उसके संरक्षक अथवा उसकी सम्पत्ति के निरीक्षक द्वारा उसकी ओर से किया गया अनुबन्ध उसके विरुद्ध लागू कराया जा सकता है यदि यह अनुबन्ध निम्नलिखित दो शर्तों को ध्यान में रखकर किया गया हो।

(क) अवयस्क का संरक्षक अथवा निरीक्षक अवयस्क की ओर से अनुबन्ध करने के योग्य हो।

(ख) अनुबन्ध अवयस्क की भलाई अथवा लाभ के लिए वैधानिक रूप से किया गया हो।

उदाहरण के लिए, अवयस्क की सम्पत्ति उसके संरक्षक द्वारा विक्रय या बन्धक रखी जा सकती है और अवयस्क इसके लिए उत्तरदायी होगा, किन्तु यदि यह सिद्ध हो जाता है कि संरक्षक ने ऐसा अवयस्क के लाभ या भलाई के लिए नहीं किया है, तो अवयस्क ऐसे विक्रय अथवा बन्धक के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

6. एजेन्ट के रूप में अवयस्क – किसी अवयस्क की नियुक्ति एजेन्ट के रूप में हो सकती है, परन्तु तृतीय पक्ष के प्रति अवयस्क एजेन्टों के प्रत्येक कार्य के लिए उसका नियोक्ता उत्तरदायी होता है। अवयस्क एजेन्ट अपने नियोक्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। अवयस्क एजेन्ट की लापरवाही, कर्तव्य पालन न करने अथवा जान-बूझकर गलती करने के कारण होने वाली किसी क्षति की पूर्ति उसका नियोक्ता उससे नहीं करा सकता।

7. साझेदार के रूप में अवयस्क – भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 30 के अनुसार, अवयस्क साझेदार नहीं हो सकता, परन्तु सभी साझेदारों की सहमति से एक अवयस्क को साझेदारी फर्म के लाभों में सम्मिलित किया जा सकता है। ऐसे अवयस्क को फर्म की सम्पत्ति और लाभ में वह भाग पाने का अधिकार है जो कि पहले से ही निश्चित कर लिया गया हो, परन्तु अवयस्क फर्म के कार्यों के लिए व्यक्तिगत रूप से दायी नहीं होता है।

8. अस्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति- निम्नलिखित व्यक्तियों को अस्वस्थ मस्तिष्क वाला माना जाता है-

1. उन्मत या पागल व्यक्ति- जिन व्यक्तियों का मस्तिष्क कभी स्वस्थ रहता है और कभी अस्वस्थ, वे उन्मत या पागल व्यक्ति कहलाते हैं। ऐसे व्यक्ति अनुबन्ध केवल उसी समय कर सकते हैं, जबकि उनका मस्तिष्क स्वस्थ हो।

2. शराबी अथवा बेसुध व्यक्ति- ऐसा व्यक्ति जो अत्यधिक शराब पिए हुए हैं या ज्वर से बिस्तर पर पड़ा है और वह अनुबन्ध करने में असमर्थ है और वह अनुबन्धों के सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभावों को समझ नहीं सकता है। ऐसे व्यक्ति से किया गया अनुबन्ध व्यर्थ होगा।

3. जन्मजात मूर्ख अथवा बेवकूफ व्यक्ति- जो व्यक्ति जन्म से मूर्ख अथवा बेवकूफ होता है, उसके द्वारा किया गया अनुबन्ध जीवन रक्षक वस्तुओं को छोड़कर व्यर्थ होता है।

4. मानसिक कमजोरी- यदि कोई व्यक्ति किसी कारण से मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है और वह न तो ठहराव समझ सकता है और नहीं विवेकपूर्ण निर्णय ले सकता है। ऐसा व्यक्ति अनुबन्ध करने के योग्य नहीं होता है।

5. मोहावस्था – जब कोई व्यक्ति कृत्रिम निद्रा में होता है, तो ऐसी अवस्था को मोहावस्था कहते हैं। यह अस्थायी अक्षमता होती है। इस अवस्था में वह अनुबन्ध करने की क्षमता नहीं रखता है।

9. विभिन्न व्यक्ति जो कानून द्वारा संविदा के अयोग्य हैं- भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 11 के ही अनुसार, वे व्यक्ति जो किसी राजनियम द्वारा (जिसके अधीन वह है) अयोग्य घोषित है, अनुबन्ध करने के योग्य नहीं हैं। इस श्रेणी में निम्नलिखित व्यक्तियों को सम्मिलित किया जा सकता है-

(1) अपनी राजनीतिक स्थिति के कारण अयोग्य व्यक्ति- कुछ व्यक्ति अपनी राजनीतिक स्थिति के कारण अनुबन्ध करने के अयोग्य होते हैं। उदाहरण के लिए, (क) विदेशी शत्रु, (ख) विदेशी सम्राट, राजदूत और प्रतिनिधि ।

(क) विदेशी शत्रु- किसी देश का नागरिक जिसके साथ भारतीय संघ का युद्ध छिड़ जाता है वह विदेशी शत्रु हो जाता है। युद्ध के समय में विदेशी शत्रु भारतीय नागरिक के साथ न तो अनुबन्ध कर सकता है और न किसी भारतीय नागरिक पर, केन्द्रीय सरकार की आज्ञा के बिना, कोई वाद ही प्रस्तुत कर सकता है। युद्ध छिड़ने के पहले का अनुबन्ध या तो रद्द कर दिया गया है या युद्ध काल तक के लिए स्थगित कर दिया जाता है।

(ख) विदेशी सम्राट, राजदूत तथा प्रतिनिधि- विदेशी सम्राट, उनके प्रतिनिधि या राजदूत भारतीय न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र के बाहर हैं। इन लोगों पर भारतीय न्यायालय में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता जबकि इन लोगों का अधिकार है कि वे अपनी इच्छानुसार भारत में अनुबन्ध कर सकते हैं और उसे भारतीय न्यायालय में लागू करा सकते हैं।

(2) कैदी या अपराधी- वे व्यक्ति जो कि किसी अपराध में जेल या फांसी की सजा पा चुके हैं, किसी तरह का अनुबन्ध बिना सरकारी आज्ञा के नहीं कर सकते, लेकिन यदि अपराधी सजा पाने के पहले अनुबन्ध कर चुका है, तो उस अनुबन्ध को पूरा करने के लिए वह प्रबन्धक नियुक्त कर सकता है। सजा काट लेने के बाद या फांसी की सजा की दशा में सरकारी क्षमा मिल जाने पर अपराधी भी वैधानिक रूप से अनुबन्ध कर सकता है और दूसरे व्यक्तियों पर मुकदमा भी चला सकता है। अत: अपराधी के लिए अनुबन्ध करने का अधिकार कुछ समय के लिए ही स्थगित रहता है।

(3) उच्च पेशे वाले व्यक्ति, जैसे-डाक्टर व बैरिस्टर- बार काउन्सिल अधिनियम, 1927 के पारित होने के पश्चात् प्रत्येक वकील एवं बैरिस्टर को अनुबन्ध करने तथा अपनी फीस प्राप्त करने के लिए वाद प्रस्तुत करने का अधिकार है। इस सम्बन्ध में निहाल चन्द बनाम दिलवार खाँ का विवाद उल्लेखनीय है। इसी प्रकार डाक्टरों को (उन्हें छोड़कर जिन पर सरकार द्वारा अथवा उनके नियोक्ता द्वारा निजी प्रैक्टिस करने पर रोक लगायी गयी है) भी अपनी फीस प्राप्त करने के लिए मरीजों पर वाद प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त है।

(4) निगमित कम्पनियाँ अथवा निगम- कानून की दृष्टि से एक कम्पनी अथवा से निगम एक कृत्रिम व्यक्ति हैं। ये स्वयं कोई अनुबन्ध नहीं कर सकते। ये कोई भी अनुबन्ध अपने एजेन्ट के माध्यम से कर सकती है। ऐसी संस्थाओं के अनुबन्ध करने के सम्बन्ध में पार्षद अन्तर्नियमों द्वारा सीमा निर्धारित होती है और उन सीमाओं के बाहर कोई कम्पनी अथवा निगम अनुबन्ध नहीं कर सकती।

(5) विवाहित स्त्रियाँ- एक विवाहित स्त्री केवल व्यक्तिगत सम्पत्ति या स्त्रीधन के लिए ही अलग से अनुबन्ध कर सकती है। यदि पति अपनी पत्नी का पालन-पोषण करने से इन्कार कर देता है तो सभी सम्प्रदायों की विवाहित स्त्रियाँ जीवन की आवश्यक वस्तुओं के लिए अनुबन्ध कर सकती है और ऐसे अनुबन्ध के लिए उनके पति उत्तरदायी होते हैं। इसके लिए पति अपनी स्थिति के अनुसार ही अपनी पत्नी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दायी होता है, किन्तु जब कोई स्त्री अपनी इच्छा से अपने पति से पृथक् होकर उसका सहारा छोड़ देती है, तो ऐसी दशा में उसका पति उसकी जीवन की आवश्यकताओं के अनुबन्ध के लिए उत्तरदायी नहीं होता।

(6) दिवालिया – वह व्यक्ति जो न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिया गया है, अनुबन्ध करने के अयोग्य हो जाता है।

(7) भारत का राष्ट्रपति- भारतीय संविधान के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति पर किसी न्यायालय में न तो मुकदमा चलाया जा सकता है और न बुलाया जा सकता है।

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Anjali Yadav

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