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उपभोक्ता संरक्षण की आवश्यकता एवं महत्व

उपभोक्ता संरक्षण की आवश्यकता एवं महत्व
उपभोक्ता संरक्षण की आवश्यकता एवं महत्व
उपभोक्ता संरक्षण की आवश्यकता एवं महत्व की व्याख्या कीजिए। 

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के प्रमुख प्रावधान-इस अधिनियम का नाम ‘उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986’ है जिसके अध्याय I, II & IV 1 जुलाई, 1987 से जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त सम्पूर्ण भारत में लागू हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम (संशोधन) 2012 द्वारा व्यापक संशोधन किये गये प्रावधानों को और स्पष्ट किया गया। इस अधिनियम के निम्नांकित प्रावधान हैं-

1. उपयुक्त प्रयोगशाला – ‘उपयुक्त प्रयोगशाला से आशय एक प्रयोगशाला या संगठन से है जो केंद्रीय सरकार द्वारा प्रमाणित है अथवा किसी विधान के क्रियान्वयन के अन्तर्गत स्थापित की गयी है तथा किसी प्रान्तीय या केन्द्रीय सरकार द्वारा वित्त पोषित है तथा वह माल के विश्लेषण द्वारा कमी के परीक्षण में संलग्न है।

2. शिकायतकर्त्ता से आशय- (i) एक उपभोक्ता या (ii) कम्पनी अधिनियम, 1956 या किसी अन्य अधिनियम के अन्तर्गत गठित ऐच्छिक उपभोक्ता संघ या (iii) शिकायतकर्त्ता केन्द्रीय या प्रान्तीय सरकार से है।

3. शिकायत- शिकायत से आशय शिकायतकर्त्ता द्वारा लगाये गये आरोप से है। जिससे कि-

(i) किसी व्यापारी द्वारा अनुचित व्यापार व्यवहार के परिणामस्वरूप शिकायतकर्त्ता को हानि या क्षति हुई है;

(ii) शिकायत में उल्लिखित माल में एक या अधिक कमियाँ (Defects) हैं;

(iii) शिकायत में उल्लिखित सेवा में किसी प्रकार की कमी है।

(iv) व्यापारी द्वारा वसूल किये गये माल का मूल्य, सरकार या किसी अधिनियम द्वारा निर्धारित मूल्य, माल या इसके पैकिंग पर प्रदर्शित मूल्य से अधिक है, वह इस नियम के अन्तर्गत राहत पाने के उद्देश्य से की गयी है।

4. उपभोक्ता – उपभोक्ता से आशय ऐसे व्यक्ति से है जो-

(i) नकद या स्थगित अथवा अंशत: नकद और अंशत: स्थगित या बाद में भुगतान की अन्य किसी प्रणाली के अन्तर्गत माल खरीदता है अथवा खरीदने की स्वीकृति के आधार पर प्रयोग करता है, परन्तु इसमें वह व्यक्ति सम्मिलित नहीं है, जो माल के पुनर्विक्रय या अन्य वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए प्राप्त है; या

(ii) किन्हीं सेवाओं को एक निश्चित प्रतिफल के बदले, जो चुका दिया गया है या चुकाने का वचन दिया है अथवा अंशत: चुकाया गया और अंशत: चुकाने का वचन दिया गया है अथवा अन्य किसी स्थगित भुगतान प्रणाली के अन्तर्गत प्राप्त करता है अथवा इस सेवा प्राप्तकर्ता की स्वीकृति पर कोई अन्य व्यक्ति उन सेवाओं का लाभ प्राप्तकर्ता है।

5. उपभोक्ता विवाद – ‘उपभोक्ता विवाद’ से आशय एक ऐसे शब्द से है, जिसके विरुद्ध शिकायत की गयी है, वह इससे मना करता है अथवा लिखित शिकायत में विवाद मानता है।

6. न्यूनता – न्यूनता अथवा सेवा न्यूनता से आशय ऐसी त्रुटि, अपूर्णता, अपर्याप्तता या अल्पता से है जो माल की किस्म, प्रकृति या क्षमता में है जो किसी अनुबन्ध या अधिनियम द्वारा निर्धारित की गयी है।

7. कमी- ‘कमी’ से आशय माल में व्यापारी द्वारा निदिष्ट अथवा किसी अधिनियम द्वारा अधिसूचित किस्म, गुण, क्षमता, शुद्धता या प्रमाप में त्रुटि अपूर्णता या अल्पता से है।

8. माल– ‘माल’ से आशय उसी माल से है जो वस्तु विक्रय अधिनियम 1930 में वर्णित किया गया है।

वस्तु विक्रय अधिनियम के अन्तर्गत माल से तात्पर्य सभी प्रकार के चलायमान सम्पत्ति और मुद्रा, जिसमें अंश, रहतिया, उगी अनाज, घास और कृषि से जुड़ी वस्तुयें, भूमि के कृषिजनित हिस्से जो कि इस बात से सहमति रखते हों कि बेचे जायेंगे।

9. निर्माता – ‘ निर्माता’ से आशय ऐसे व्यक्ति से है जो-

(i) किसी माल अथवा इसके किसी ढंग को बनाता है या निर्माण करता है; अथवा

(ii) अन्यों द्वारा निर्मित माल के अंगों का एकीकरण करता है तथा स्वयं को तैयार माल का निर्माता कहता है।

स्पष्टीकरण- जहाँ कोई निर्माता अपने माल या इसके अंगों को अपने किसी शाखा कार्यालय को भेजता है और वह शाखा उन अंगों का एकीकरण करके बेचती है तब इस शाखा को निर्माता नहीं कहा जायेगा।

10. व्यक्ति – ‘व्यक्ति’ में (i) एक पंजीकृत या अपंजीकृत फर्म, (ii) एक हिन्दू अविभाजित परिवार; (iii) एक सहकारी समिति, (iv) व्यक्तियों का प्रत्येक संघ सम्मिलित है।

11. सेवा- ‘सेवा’ से आशय किसी भी प्रकार की सेवा से है जो सम्भावित प्रयोक्ताओं को उपलब्ध है। इसमें बैकिंग, वित्तीय, परिवहन, बीमा, प्रसंस्करण, विद्युत या शक्ति आपूर्ति, आवासीय, खान-पान, मनोरंजन, मनोविनोद, समाचार जुटाना सम्मिलित है, परन्तु निःशुल्क सेवा व व्यक्तिगत सेवा अनुबन्ध इसमें सम्मिलित नहीं है।

12. व्यापारी- किसी माल के सम्बन्ध में व्यापारी से आशय ऐसे व्यक्ति से है जो माल बेचता है या बिक्री के उद्देश्य से वितरित करता है। इसमें माल का निर्माता भी सम्मिति है। यदि वह माल संवेष्ठित होकर बेचा या वितरित किया जाता है तब इसमें संवेष्ठनकर्ता भी सम्मिलित है।

13. अनुचित व्यापार- व्यवहार-अनुचित व्यापार व्यवहार से आशय ऐसे व्यापारिक व्यवहार से है जिसके द्वारा किसी वस्तु का विक्रय, उपभोग या आपूर्ति प्रोत्साहित करने के लिए या सेवाओं की व्यवस्था करने के लिए एक या अधिक प्रकार के अनुचित तरीके या अनुचित अथवा धोखाधड़ीपूर्ण व्यवहार का उपयोग किया जाता है।

भारत में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता एवं महत्व-

  1. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए।
  2. उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने के लिए।
  3. उपभोक्ताओं के सामाजिक जीवन स्तर में वृद्धि करने के लिए।
  4. परिवेदनाओं और शिकायतों का जल्दी से जल्दी समाधान दिलाने के लिए।
  5. व्यवसाय से सम्बन्धित कानूनों की उचित जानकारी को प्रदान करने के लिए।
  6. जिला स्तर, राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ताओं को एक मंच पर प्रस्तुत के लिए।
  7. मानवीय कल्याण करने और प्रदूषण से सुरक्षा प्रदान करने के लिए।
  8. व्यवसायियों की शोषण करने की प्रवृत्ति से मुक्ति प्रदान करने के लिए।
  9. अवांछनीय व्यापार व्यवहारों को रोकने के लिए।
  10. व्यवसायियों की एकाधिकारी प्रवृत्ति से मुक्ति प्रदान करने के लिए।

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Anjali Yadav

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