स्वराज के विषय में महात्मा गांधी के विचारों को बताने वाली विषयवस्तु तथा उसका मूल्यांकन आप कैसे करेंगे? विस्तार से समझाइये ।
स्वराज के विषय में महात्मा गाँधी के विचार
महात्मा गाँधी (1869-1948) भारत के महान जन-नायक, राष्ट्रीय आन्दोलन के मार्ग दर्शक तथा समाज सुधारक के रूप में जाने जाते हैं। उनके विचारों, आदर्शों तथा कार्यों ने सम्पूर्ण मानव समुदाय को प्रभावित किया।
वह वस्तुतः महान मानवतावादी थे। कार्ल हीथ ने उन्हें “सभ्य तथा मानवतावादी मानव” कहा है। स्वतंत्रयोत्तर राष्ट्र-पिता के नाम से सम्बोधित मोहन दास करमचंद गाँधी ने पहले दक्षिण अफ्रीका (1893-1914) में रंगभेद नीति के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष किया। तत्पश्चात् (1914-1947 तक) भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का अहिंसा तथा सत्याग्रह के मार्ग का अवलम्बन करके सफल नेतृत्व किया। गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन ने जन-आन्दोलन का रूप ग्रहण कर लिया।
गाँधी ने राजनीतिक दर्शन पर अलग से कोई ग्रन्थ नहीं लिखा। वह न तो राजनीतिक चिन्तक थे, न ही राजनीतिक दार्शनिक थे। वह वस्तुतः व्यावहारिक आदर्शवादी तथा सच्चे कर्मचारी थे। ‘स्वराज’ उनके जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्वप्न था, जिसकी प्राप्ति के लिए समय-समय पर उन्होंने विचार प्रकट किए, जिनके समान्वित रूप को गाँधी का राजनीतिक दर्शन कहा जा सकता है। स्वयं गाँधी का कथन था, “गाँधीवाद जैसी कोई वस्तु नहीं है… मैं इस बात का दावा नहीं करता कि मैंने किसी मौलिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। मैंने प्राचीन सिद्धान्तों को ही नए ढंग से दोहराने की चेष्टा की है।” गाँधी का चिन्तन नैतिकता तथा आध्यात्मिकता पर आधारित है। वह साधन तथा साध्य दोनों की पवित्रता पर बल देते हैं गाँधी ने अहिंसा, सत्य, आत्मसंयम व आत्म-अनुशासन के महत्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने स्वराज प्राप्ति हेतु सत्याग्रह का मार्ग दिखाया। वह मैकियावली के समान धर्मविहीन राजनीति के समर्थक नहीं थे। धर्म के विषय में उनके विचार विस्तृत व उदार थे। वह सत्य को ईश्वर मानते थे।
गाँधी द्वारा लिखी गई अनेक पुस्तकों में उनकी आत्मकथा- ‘मेरे सत्य पर प्रयोग’, ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह’ तथा ‘हिंद-स्वराज’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। जहाँ गाँधी के विचारों पर ‘गीता’, ‘बाइबिल’, जैन व बौद्ध धर्म का प्रभाव पड़ा, वहीं वह पाश्चात्य विचारकों रसकिन, थोरे व टॉलस्टाय से भी प्रभावित थे।
स्वराज पर गाँधी के विचार: ‘स्वराज’ का अर्थ ‘स्वशासन’ है। राष्ट्रीय आन्दोलन के समय प्रचलित यह शब्द आत्म-निर्णय तथा स्वाधीनता माँग पर बल देता था। हुए ‘स्वशासन’ प्रारंभिक राष्ट्रवादियों (उदारवादियों) ने स्वाधीनता को दूरगामी लक्ष्य मानते के स्थान पर ‘अच्छी सरकार’ (ब्रिटिश सरकार) के लक्ष्य को वरीयता दी। तत्पश्चात् उग्रवादी काल में यह शब्द लोकप्रिय हुआ, जब बाल गंगाधर तिलक ने यह उद्घोषणा की, कि “स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” गाँधी ने सर्वप्रथम 1920 में कहा कि “मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की मांग है, जो वयस्क मताधिकार पर आधारित होगा। गाँधी का मत था स्वराज का अर्थ है जनप्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था जो जन-आवश्यकताओं तथा जन-आकांक्षाओं के अनुरूप हो।”
गाँधी के स्वराज की अवधारणा अत्यन्त व्यापक है। स्वराज का अर्थ केवल राजनीतिक स्तर पर विदेशी शासन से स्वाधीनता प्राप्त करना नहीं है, बल्कि इसमें सांस्कृतिक व नैतिक स्वाधीनता का विचार भी निहित है। यह राष्ट्र निर्माण में परस्पर सहयोग व मेल मिलाप पर बल देता है। शासन के स्तर पर यह ‘सच्चे लोकतंत्र का पर्याय’ है।
गाँधी का स्वराज ‘निर्धन का स्वराज’ है, जो दीन-दुखियों के उद्धार के लिए प्रेरित करता है। यह आत्म-सयंम, ग्राम-राज्य व सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर बल देता है। गाँधी ने ‘सर्वोद्य’ अर्थात् सर्व-कल्याण का समर्थन किया।
अहिसांत्मक समाजः गाँधी की दृष्टि में आदर्श समाजव्यवस्था वही हो सकती जो पूर्णतः अहिंसात्मक हो। जहाँ हिंसा का विचार ही लुप्त हो जाएगा, वहाँ ‘दण्ड’ या ‘बल-प्रयोग’ की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी अर्थात् आदर्श समाज में राजनीतिक शक्ति या राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होगी। गाँधी हिंसा तथा शोषण पर आधारित वर्तमान राजनीतिक ढाँचे को समाप्त करके, उसके स्थान पर एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जो व्यक्ति की सहमति पर आधारित हो तथा जिसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीकों से जन-कल्याण में योगदान देना हो।
राज्य-विहीन समाजः गाँधी के अनुसार अहिंसात्मक समाज राज्यविहीन होगा। वह राज्य का विरोध इस आधार पर करते हैं, कि न तो यह स्वाभाविक संस्था है और न ही आवश्यक है। उन्होंने दार्शनिक अराजकतावादी की भाँति इस आधार पर राज्य को अस्वीकार किया-
- राज्य हिंसा पर आधारित है। यह संगठित रूप में हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है,
- राज्य की बल-शक्ति व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा व्यक्तित्व हेतु विनाशकारी है
- एक अहिंसात्मक समाज में राज्य की कोई आवश्यकता नहीं है।
गाँधी के अनुसार राजनीतिक शक्ति साध्य नहीं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में लोगों के विकास में सहयोग देने का साधन है। यह राष्ट्रीय प्रतिनिधियों द्वारा राष्ट्रीय जीवन का नियमन करती है। यदि राष्ट्रीय जीवन इतना परिपूर्ण हो जाएं कि आत्मनियमित हो जाएं तो किसी भी प्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक अपना शासक स्वयं है। वह स्वयं पर इस प्रकार शासन करता है, कि वह अपने पड़ोसी के लिए बाधा नहीं बनता। ऐसी आदर्श स्थिति में राजनीतिक शक्ति नहीं होती, क्योंकि उसमें कोई राज्य नहीं होता। गाँधी ने उसे “प्रबुद्ध अराजकता की स्थिति” कहा है। यही ‘राम राज्य’ है। टॉलस्टॉय ने इसे “पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य” कहा है।
ग्राम-गणराज्यों का संघ: गाँधी का राज्याविहीन, वर्गविहीन समाज अनेक स्व-शासित तथा आत्मनिर्भर ग्राम-समुदायों में विभक्त होगा। प्रत्येक ग्राम समुदाय का प्रशासन पाँच व्यक्तियों की ‘पंचायत चलाएगी, जो ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होगी। ग्राम पंचायतों को विधायी, कार्यकारी तथा न्यायिक शक्तियाँ प्राप्त होंगी। ग्राम पंचायतों के ऊपर मंडलों की, उनके ऊपर जिलों की तथा जिलों के ऊपर प्रान्तों की पंचायते होंगी। सबसे ऊपर सारे राष्ट्र के लिए केन्द्रीय (संघीय) पंचायत होगी। प्रत्येक गाँव अपनी आवश्यकताओं की पुखता तथा सुरक्षा की दृष्टि से स्वावलम्बी होगा। सैनिक शक्ति व पुलिस नहीं होगी। बड़े नगर, कानूनी अदालतें, कारागार तथा भारी उद्योग नहीं होंगे। सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा। प्रत्येक गाँव स्वयंसेवी रूप से संघ से सम्बद्ध होगा। गांधी ने इसे ‘वास्तविक स्वराज्य’ कहा है।
गाँधी का मानना था कि इस प्रकार के संघ के प्रबन्ध व संपोषण के लिए सरकार आवश्यक होगी। अतः एक आधुनिक आलोचक का मत है कि गाँधी का आदर्श समाज से तात्पर्य मुख्यत: अहिंसक राज्य था, न कि अहिंसात्मक, राज्यविहीन समाज। दूसरी ओर आबिद हुसैन का मत है कि गाँधी का राम राज्य पूर्ण अराजकतावादी राज्यविहीन समाज है, जो नैतिक कानून द्वारा शासित है। इस प्रकार के अहिंसक समाज ‘शान्ति-व्यवस्था प्रेम की शक्ति या सत्याग्रह के रूप में आत्मबल द्वारा स्थापित होगी। गाँधी के अनुसार सत्याग्रह व्यक्तियों, वर्गों तथा राष्ट्रों के मध्य शोषण तथा दमन का प्रतिरोध करने का प्रभावपूर्ण यंत्र है।
गाँधी का मत था कि राज्यविहीन तथा वर्गविहीन अहिंसक समाज की स्थापना का लक्ष्य सहज रूप से प्राप्त नहीं होगा। अतः राज्य को तत्काल समाप्त करना ठीक है। फलतः उनका लक्ष्य राज्य को अहिंसा के सिद्धांतो के अनुरूप ढालना है। अहिंसक राज्य में सामाजिक व्यवहार को नियमित करने हेतु एक प्रकार की सरकार तथा राजनीतिक सत्ता होगी, किन्तु वह कम से कम शासन करेगी, क्योंकि सामाजिक जीवन आत्म नियमित होगा। व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होगी। अधिकांश कार्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्पन्न होंगे। गाँधी के ये विचार रसेल, जी.डी.एच. कोल जैसे गिल्ड समाजवादियों से मिलते जुलते हैं।
आर्थिक विकेन्द्रीकरण: गाँधी का जनतांत्रिक समाज एक समाजवादी राज्य होगा। भागवत पुराण से प्रभावित होने के कारण उनका मत था कि “सम्पत्ति धारण करने का अर्थ है, भविष्य के लिए पूर्वयोजना बनाना। एक सत्य का खोजी… कल के लिए कुछ नहीं रखता…… सम्पन्न व्यक्तियों के पास वस्तुओं का अतिरिक्त भण्डार होता है, जबकि करोड़ों व्यक्ति भरण-पोषण के अभाव में भूखों मरते हैं। यदि मनुष्य अपने पास इतना ही रखे, जितना आवश्यक है तो कोई भी अभावग्रस्त नहीं होगा तथा सभी सन्तुष्ट जीवन जी सकेंगे।”
गाँधी निजी सम्पत्ति के समापन के पक्ष में नहीं हैं किन्तु आर्थिक समानता लाना चाहते हैं। आर्थिक समानता से तात्पर्य है-सभी के लिए पर्याप्त व सन्तुलित भोजन, आवास तथा तन ढकने के लिए खादी। वह स्वदेशी का पक्ष लेते हुए कुटीर व लघु उद्योग तथा खादी उद्योगों के विकास पर बल देते हैं।
गाँधी ने प्रौद्योगिकी प्रधान उद्योगों या मशीनों द्वारा उत्पादन का विरोध किया तथा इसके स्थान पर श्रम प्रधान उद्योगों को वरीयता दी। उनके अनुसार उत्पादन लोगों द्वारा किया जाएं, फैक्ट्रियों द्वारा नहीं। गाँधी ने ‘श्रम-सिद्धांत” के अन्तर्गत यह शिक्षा दी कि प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक श्रम करके अपने उपभोग की वस्तुओं में योगदान देना चाहिए। चूँकि इसमें प्रत्येक प्रकार की सेवा (चाहे नाई हो या वकील) या श्रम को एक जैसा सम्मान दिया जाएगा, इसलिए श्रम की गरिमा स्थापित होगी तथा वर्गीय भेद मिट जाने से ‘वर्ग विहीन’ समाज की स्थापना होगी।
गाँधी ने भूस्वामियों तथा पूँजीपतियों की सम्पत्ति-अधिग्रहण का समर्थन नहीं किया है। ईसाई समाजवादियों की तरह वह पूँजीपतियों की मनोवृत्ति में प्रेम व अनुनय द्वारा परिवर्तन लाकर अपना आर्थिक समानता का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे। पूँजीपति स्वयं को सम्पत्ति का स्वामी न समझकर ट्रस्टी या न्यासी समझें। जो सम्पत्ति उनके पास है, उसे वे समाज की धरोहर समझें। उसमें से वे अपने लिए उतना ही व्यय करें, जिनकी उनकी सेवाओं के लिए उपयुक्त है, शेष समाज को लौटा दें अर्थात् निर्धनों में बाँट दें।
उत्पादन का लक्ष्य मुनाफा न होकर सम्पूर्ण समाज का हित होना चाहिए। श्रमिकों की प्रबन्ध में भागीदारिता होनी चाहिए। यदि पूँजीपति ट्रस्टी बनना स्वीकार न करें, तो कानून द्वारा राज्य को भूमि तथा उत्पादन के अन्य साधनों पर नियंत्रण कर लेना चाहिए।
सर्वोद्यः सामान्य हित या सर्व कल्याण की दृष्टि से गाँधी ने सर्वोद्य के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। यह सिद्धांत ऐसी नीति का समर्थन करता है, जिसका उद्देश्य जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय, स्त्री-पुरूष, ऊँच-नीच आदि के भेदभाव मिटाकर समाज के सभी स्तरों पर कल्याण कार्य को बढ़ावा देना है। यह परस्पर सहयोग व सद्भावना का विकास करेगा।
गाँधी के सर्वोदय का सिद्धांत राज्य के लक्ष्य का सिद्धांत है। उपयोगितावादी चिंतक बैंथम तथा जे.एस. मिल जहाँ “अधिकतम लोगों के अधिकतम कल्याण” के पक्ष में थे, वहीं जॉन रसकिन ने “सबसे अन्तिम या उपेक्षित अल्पसंख्यक” (अन्त्योद्य) का पक्ष लिया। गाँधी ने इन दोनों सिद्धांतों के सम्मिश्रण से एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे सर्वोद्य या “समाज के सभी लोगों के उत्थान या कल्याण” का सिद्धांत कहा जाता है। बाद में विनोबा भावे ने इसी सिद्धांत का अनुसरण किया।
मूल्याकंनः गाँधी परम्परागत अर्थ में न तो राजनीतिक चिन्तक थे और न ही सिद्धांत निर्माता थे, किन्तु वह भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के अग्रदूत तथा श्रेष्ठ समाज सुधारक थे। एक ओर सत्य और अहिंसा के आधार पर उन्होंने असहयोग, सविनय अवज्ञा तथा भारत छोड़ो आन्दोलन का नेतृत्व किया, दूसरी ओर जातिवाद, साम्प्रदायिकता तथा छुआ छूत के विरुद्ध अभियान चलाया। मैकियावली के विपरीत उन्होंने राजनीति व नैतिकता में सम्बन्ध स्थापित कर साधन व साध्य में सम्बन्ध स्थापित किया। पाश्चात्य उदारवादियों की तरह उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा प्रतिनिधियात्मक प्रजातंत्र में विश्वास जताया। राज्य के उद्देश्य के रूप में उनकी सर्वोद्य की संकल्पना महत्वपूर्ण है। कर्मयोगी होने के नाते गाँधी श्रम की गरिमा में विश्वास रखते । गाँधी की वर्गहीन तथा राज्यविहीन समाज की परिकल्पना अव्यावहारिक प्रतीत होती है। स्वयं गाँधी भी इसे स्वीकार करते हैं। किन्तु उनके राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण, ग्रामीण स्वयत्तशासी व्यवस्था एवं रोजगार, स्वदेशी आदि सम्बन्धी विचारों के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उनके सत्याग्रह, स्वराज तथा सर्वोदय के सिद्धांतों का राजनीतिक दर्शन में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
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