विभिन्न आयोग व समितियों द्वारा सतत् व व्यापक मूल्यांकन की चर्चा किस प्रकार की गई।
विभिन्न आयोग व समितियों के अनुसार सतत् एंव व्यापक मूल्यांकन परीक्षाएं शिक्षा की प्रक्रिया के अपरिहार्य भाग हैं, क्योंकि अध्यापन और सीखने की प्रक्रियाओं की प्रभावकारिता का पता लगाने के लिए किसी न किसी प्रकार का मूल्यांकन करना आवश्यक है। विभिन्न आयोगों और समितियों ने परीक्षा-सुधारों की आवश्यकता महसूस की है।
हंटर आयोग (1882), कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग अथवा सेडलर आयोग (1917-1919), हारटोग समिति रिपोर्ट (1929), केंद्रीय सलाहकार बोर्ड/सार्जेंट योजना (1944), माध्यमिक शिक्षा आयोग/मुदलियर आयोग (1952-53) इन सबने बाह्य परीक्षाओं पर दिए जाने वाले जोर को घटाने और सतत् तथा व्यापक मूल्यांकन के जरिए आंतरिक मूल्यांकन को प्रोत्साहन देने के बारे में सिफारिशें दी हैं।
कोठारी आयोग (1966) की रिपोर्ट में यह कहा गया था ‘निम्न अथवा उच्च माध्यमिक स्तर (स्टेज) के अंत में, पाठ्यक्रम के पूरा होने विद्यार्थी को विद्यालय से पर, भी एक प्रमाणपत्र मिलना चाहिए, जिसमें उसके आंतरिक मूल्यांकन का रिकार्ड दिया गया हो, जैसाकि उसके संचित रिकार्ड में शामिल हो यह प्रमाणपत्र बाह्य परीक्षा के बारे में बोर्ड द्वारा दिए गए प्रमाणपत्र के साथ संलग्न किया जा सकता है…’। इसमें यह भी कहा गया है कि “विद्यालयों द्वारा किया गया यह आंतरिक निर्धारण अथवा मूल्यांकन अधिक महत्त्वपूर्ण है और उसे अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए, यह व्यापक होना चाहिए और इसमें विद्यार्थियों की संवृद्धि के सभी पहलुओं का मूल्यांकन किया जाना चाहिए, जिन्हें बाह्य परीक्षा द्वारा मापा जाता है, और इसमें उस वैयक्तिक विशेषताओं, रुचियों और अभिवृत्तियों का उल्लेख भी होना चाहिए, जिनका निर्धारण इसके द्वारा नहीं किया जा सकता”।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 में इस पहलू को पूरी तरह से ध्यान में रखा गया है; इसमें यह कहा गया है, “सतत् और व्यापक मूल्यांकन, जिसमें मूल्यांकन के शैक्षिक और गैर-शैक्षिक दोनों पहलू शामिल हों, और जो शिक्षा की संपूर्ण अवधि के लिए हो”।
राष्ट्रीय शिक्षा नीतिः 1986 (एन.पी.ई.) की समीक्षा करने वाली समिति की रिपोर्ट, – भारत सरकार द्वारा 1991 में प्रकाशित सिफारिश में “सतत् व्यापक आंतरिक मूल्यांकन के मापदंड तय किए गए हैं और इस मूल्यांकन प्रणाली के दुरुपयोग को रोकने के सुरक्षोपायों के सुझाव दिए गए हैं”।
सी.ए.बी.ई. की नीति संबंधी रिपोर्ट में, जो मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जनवरी, 1992 में प्रकाशित की गई थी, मूल्यांकन प्रक्रिया और परीक्षा सुधारों के बारे में एन.पी.ई. के उपबन्धों का उल्लेख किया गया है और “विद्यार्थियों की शैक्षिक और गैर-शैक्षिक उपलब्धियों के सतत् और व्यापक आंतरिक मूल्यांकन” का सुझाव भी दिया गया है।
स्कूल शिक्षा बोर्डों को नया रूप देना (रीमाडलिंग)- माध्यमिक शिक्षा बोर्डों की भूमिका और स्थिति के बारे में कार्य बल की रिपोर्ट (1997) में सतत् और व्यापक मूल्यांकन (सी.सी.ई.) के तत्त्व-ज्ञान अथवा विचारधारा की व्याख्या की गई है। इसमें यह कहा गया है कि “बोर्डों से भिन्न किसी अन्य अभिकरण को सतत् और व्यापक मूल्यांकन को बढ़ावा नहीं देना चाहिए और इसीलिए उसने इस बात पर बल देने का प्रयास किया है कि बोर्डों को इस बारे में एक पथप्रदर्शक की भूमिका निभानी है”।
“बोझ के बिना सीखना” – भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के शिक्षा विभाग द्वारा नियुक्त की गई राष्ट्रीय सलाहकार समिति की रिपोर्ट में यह कहा गया है कि:
” कक्षा 9 और 10 के अंत में होने वाली बोर्ड परीक्षाएं कठोर, दफ्तरशाहीयुक्त और मूल रूप से गैर-शिक्षाप्रद बनी हुई हैं…….”
तद्नुसार, राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 (एन.सी.एफ.-05) में परीक्षा सुधारों को प्रस्तुत करते समय यह कहा गया था – ‘वास्तव में, बोडर्डों को वैकल्पिक बनाने पर विचार करना चाहिए और इस प्रकार उसी विद्यालय में बने रहने वाले छात्रों को (और जिन्हे बोर्ड प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है) इसके बजाय एक आंतरिक विद्यालय परीक्षा देने की अनुमति दे देनी चाहिए।
एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा तैयार किए गए ‘परीक्षा सुधार’ संबंधी स्थिति पत्र, 2006 में यह कहा गया है, “वास्तव में, हमारा मत यह है कि दसवीं ग्रेड परीक्षा को अभी से वैकल्पिक बना दिया जाना चाहिए। दसवीं कक्षा के उन विद्यार्थियों को, जिनका इरादा उसी स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ाई जारी रखने का हो और जिन्हें किसी तात्कालिक प्रयोजन के लिए बोर्ड के प्रमाणपत्र की आवश्यकता न हो, बोर्ड की परीक्षा के स्थान पर विद्यालय द्वारा ली जाने वाली परीक्षा देने की छूट होनी चाहिए।”
स्पष्टतः, सी.सी.ई. को कार्यान्वित करने में, नेतृत्व करने और एक पथप्रदर्शक की भूमिका निभाने के लिए केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का प्रयास एक प्रमुख कदम है। इसके द्वारा शिक्षार्थी उपलब्धि स्तर के मूल्यांकन में विद्यालयों की स्थिति को बोर्ड के बराबर के भागीदारों के रूप में ऊंचा उठाने की कोशिश की गई है।
केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में सी.सी.ई. संकल्पना का उदय
केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने अपने विद्यालयों में सतत् और व्यापक मूल्यांकन में की स्कीम को चरणबद्ध रूप से लागू किया है। वर्ष 2000 में, बोर्ड ने उन विद्यार्थियों को, जो केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की कक्षा X में उत्तीर्ण हुए हों, विद्यालयों द्वारा प्रदान किए जाने वाले विद्यालय-आधारित मूल्यांकन के स्वतंत्र प्रमाणपत्र की संकल्पना को कार्यान्वित किया था। यह प्रमाणपत्र बाह्य परीक्षा के सम्बन्ध में बोर्ड के नियमित प्रमाणपत्र, और अंकों के विवरण के अलावा प्रदान किया जाता था। इसमें एक पाद टिप्पणी होती थी कि विद्यालय द्वारा सतत् और व्यापक मूल्यांकन का एक प्रमाणपत्र भी जारी किया जा रहा है और विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को परखने के लिए उसका अध्ययन भी किया जाना चाहिए। और विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को परखने के लिए उसका अध्ययन भी किया जाना चाहिए। दो वर्षों, अर्थात् IX और X की निरंतर अवधि में निर्धारण के लिए सतत् और व्यापक मूल्यांकन में शैक्षिक क्षेत्रों के अतिरिक्त, सह शैक्षिक क्षेत्र भी शामिल किए गए थे। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा विस्तृत मार्गनिर्देशों के साथ एक सिफारिश किया गया फार्मेट तैयार किया गया था और अपनाए जाने के लिए विद्यालयों में वितरित किया गया था।
एक अगले कदम के रूप में, वर्ष 2004 में, सतत् और व्यापक मूल्यांकन का कार्यान्वयन 000 की प्राथमिक कक्षाओं में किया गया था। कक्षा V की उत्तीर्ण / अनुर्तीण प्रणाली की संकल्पना को समाप्त करने के अलावा, निर्धारित इस अवस्था में लक्ष्य बच्चे के विकास के सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केन्दित करना था। तद्नुसार, सम्पूर्णवादी शिक्षा को सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य से प्राथमिक कक्षाओं (कक्षा I और II और कक्षा III से V) के लिए उपलब्धि रिकार्डों का विकास भी किया गया था और विद्यालयों को उनकी सिफारिश की गई थी। अनुवर्ती कार्यवाही के रूप में, बोर्ड ने 2006 में सी.सी.ई. (सतत् और व्यापक मूल्यांकन) को कक्षा VI से VIII में लागू करने का फैसला किया।
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