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चुनौतिपूर्ण लिंग की असमानता से क्या तात्पर्य है ?
चुनौतिपूर्ण हेतु अंग्रेजी में ‘Challenging’ शब्द प्रयुक्त किया जाता है। चुनौती शब्द का प्रयोग शिक्षा, अध्ययन, कार्य-क्षेत्र, व्यापार, समाज इत्यादि क्षेत्रों के लिए किया जाता है। यह शब्द यह दर्शाता है कि जिस क्षेत्र विशेष के साथ यह प्रयुक्त किया जा रहा है, उसका मार्ग सीधा-सपाट न होकर तमाम बाधाओं और परेशानियों से परिपूर्ण है ।
वर्तमान में प्रत्येक क्षेत्र की अपनी-अपनी चुनौतियाँ हैं, परन्तु यहाँ हम लिंग आधारित चुनौतियों का निरूपण कर रहे हैं। लिंग के आधार पर भेद-भावों का इतिहास पुराना है और हमारे समाज में पुरुष प्रधानता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि लिंगीय असमानता खान-पान से लेकर शिक्षा आदि प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त है। चुनौतिपूर्ण लिंग से तात्पर्य स्त्रियों से है, क्योंकि अभी तक पुरुष-प्रधान समाज में ये हाशिये पर रही हैं स्वतन्त्रता के पश्चात् तमाम संवैधानिक तथा कानूनी प्रावधानों के पश्चात् भी इनकी चुनौतियाँ कम नहीं हुई हैं ।
लिंग से तात्पर्य बालक या बालिका अथवा स्त्री या पुरुष होने का निर्दिष्टीकरण है। लिंग के आधार पर वैयाकरणों द्वारा भी समस्त वस्तुओं, व्यक्तियों तथा स्थलों को तीन लिंगों-
स्त्रीलिंग, पुल्लिंग तथा नपुंसकलिंग में विभक्त किया गया है। स्त्रीलिंग स्त्री सूचक, पुल्लिंग पुरुष सूचक तथा इन दोनों के अतिरिक्त का बोध नपुंसक लिंग के द्वारा होता है ।
असमानता अर्थात् ‘Inequality’ । यह शब्द व्यापक अर्थों में प्रयुक्त होता है। सर्वप्रथम इसके प्रकारों का वर्णन प्रस्तुत है-
असमानता को यदि हम देखें तो प्रत्येक व्यक्ति के समकक्ष दूसरा व्यक्ति असमान ही मिलेगा, चाहे वह जुड़वाँ ही क्यों न हो। भारतीय नास्तिक दर्शन, बौद्ध दर्शन का भी मानना है कि प्रत्येक क्षण वस्तुओं में परिवर्तन होता रहता है, अतः वे ‘क्षणभंगुरवाद’ के सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हैं, परन्तु असमानता यही नहीं है कि किसी मोटे व्यक्ति की किसी सामान्य शरीर के व्यक्ति के साथ तुलना की जाये, अपितु यहाँ पर असमानता से तात्पर्य ऐसी असमानता से है जो विशिष्टीकृत न होकर सामान्यीकृत है अर्थात असमानता की एक सीमा रेखा का निर्धारण कर दिया गया है, जैसे- तीव्र बुद्धि तथा मन्द बुद्धि में असमानता, भाषा की विविधता की असमानता, शारीरिक बनावट, रंग-रूप की असमानता, सामाजिक स्तर की असमानता, आर्थिक स्तर की असमानता, बनावट, रंग-रूप की असमानता, सामाजिक स्तर की असमानता, आर्थिक स्तर की असमानता, निवास स्थान तथा भौगोलिक वातावरण की असमानता, सांवेगिक असमानता तथा लिंगीय असमानता इत्यादि ।
लिंगीय असमानता के अन्तर्गत बालक तथा बालिकाओं में लिंगीय आधार पर किया जाने वाला भेद-भाव है। लिंगीय असमानतापूर्ण व्यवहार की पहचान इस प्रकार निम्न क्षेत्रों में देखी जा सकती है—
1. खान-पान- लिंगीय असमानता बालक तथा बालिकाओं के खान-पान में भी परिलक्षित होती है। बालकों की अपेक्षा बालिकाओं के खान-पान तथा पोषण और शारीरिक स्वास्थ की उपेक्षा की जाती है। प्राथमिकता पर बालकों को रखा जाता है। यह असमानता परिवार में परिवार के सदस्यों तथा माता-पिता द्वारा की जाती है।
2. रहन-सहन – लिंगीय असमानता बालक और बालिकाओं के रहन-सहन के स्तर में भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। बालिकाओं हेतु समुचित वस्त्र, कक्षादि की व्यवस्था नहीं की जाकर सारी व्यवस्था और सुख-सुविधाओं के केन्द्र में बालकों को ही रखा जाता है।
3. शिक्षा- बालिकाओं की पिछड़ी स्थिति का एक प्रमुख कारण हैं उनकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था का न होना। लड़की को परिवार वाले पराया धन समझते हैं और उसकी शिक्षा पर व्यय नहीं करना चाहते जिससे शैक्षिक दृष्टि से वे बालकों की अपेक्षा पिछड़ जाती हैं।
4. सामाजिक कार्यों में सहभागिता- बालिकाओं के साथ होने वाला असमानतापूर्ण व्यवहार सामाजिक कार्यों में सहभागिता के अवसरों पर देखा जा सकता है। बालकों को सामाजिक कार्यों में अधिक प्राथमिकता दी जाती है, वहीं बालिकाओं को इन क्रिया-कलापों से दूर रखा जाता है, क्योंकि स्त्रियों को घरेलू कार्यों के ही योग्य समझा जाता है।
5. निर्णय लेने में विषयी – बालिकाओं को बालकों की अपेक्षा निर्णय लेने की छूट परिवार तथा समाज में नहीं प्रदान की जाती है। बालिकायें पिता, पति तथा पुत्र के सान्निध्य में ही जीवन व्यतीत करती हैं और आजीवन उन्हीं पर आधारित रहती हैं। अतः निर्णय लेने विषयी विषयों पर भी लैंगिक असमानता दिखाई देती है ।
6. जिम्मेदारियों के वितरण में— बालिकायें चाहे कितनी भी योग्य क्यों न हों, परन्तु उन्हें बाह्य और महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ प्रदान नहीं की जाती हैं, क्योंकि यह धारणा है कि पुरुष ही जिम्मेदारीपूर्ण विशेषतः घर से बाहर का अच्छी प्रकार निर्वहन कर सकते हैं। इस प्रकार जिम्मेदारियों के वितरण में भी हमें लिंगीय असमानता दिखती है ।
7. आर्थिक सुरक्षा तथा अधिकारों में- बालिकाओं को आर्थिक सुरक्षा और अधिकारों में भी असमानतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है। पितृसत्तात्मक भारतीय व्यवस्था में स्त्रियों को पिता तथा ससुर दोनों ही स्थानों पर आर्थिक सम्पत्ति का अधिकार प्रदान नहीं किया जाता है, भले ही उत्तराधिकार अधिनियम द्वारा प्रावधान किया गया है, परन्तु वास्तविक स्थिति तो यही है कि वे सदैव अपने अधिकारों और आर्थिक हितों के लिए पुरुषों पर निर्भर रहती हैं। ऐसी स्थिति में लिंगीय असमानता और भी बढ़ती जाती हैं ।
8. धार्मिक कार्यों में— धार्मिक क्रिया-कलापों में पुत्रों के ही द्वारा इनका सम्पादन किये जाने से बालिकायें इस दृष्टि से भी असमानतापूर्ण व्यवहार को सहन करती हैं। पिण्ड दान, मुखाग्नि, श्राद्ध, नरक से मुक्ति इत्यादि दिलाने में पुत्रों को ही महत्त्व दिये जाने से लिंगीय असमानता में वृद्धि होती है ।
इस प्रकार चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता से तात्पर्य ऐसे लिंगों से है जिनको आज भी समानता और स्वतन्त्रता का अधिकार नहीं प्राप्त हैं और उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है।
चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता के कारण
चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता के पीछे सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक इत्यादि अनेक निम्न कारण हैं-
1. गरीबी — भारतीय जनता अभी भी दो वक्त के भोजन का प्रबन्ध करने और सिर पर छत के आयोजन में अपनी पूरी उम्र व्यतीत कर देती है। गरीबी के कारण बालिकाओं को अभिशाप माना जाता है। कहावत है कि गरीबी में आटा गीला, ठीक इसी प्रकार गरीब घर में यदि बालिका का जन्म हो जाये तो उसके पालन-पोषण के साथ-साथ दहेज में दी जाने वाली मोटी रकम के विषय में सोचकर ही व्यक्ति चिन्तित हो जाता है। इस प्रकार चुनौतीपूर्ण लिंग के प्रति असमानता का एक कारण गरीबी है ।
2. अशिक्षा – शिक्षा के प्रसार हेतु किये जाने वाले अथक प्रयासों के पश्चात् भी अभी अशिक्षित लोगों की भरमार है जो वही पुराने ढर्रे पर चलते हैं कि लड़की पढ़-लिखकर क्या करेगी, उसका काम चूल्हा-चौका संभालना है। इस प्रकार अशिक्षित परिवारों में बालिकाओं की शिक्षा पर कोई भी ध्यान नहीं दिया जाता, जिस कारण से स्त्रियाँ असमानतापूर्ण व्यवहार आजीवन सहने के लिए विवश हो जाती है :
3. सामाजिक कारण- लिंगीय असमानता के मूल में सामाजिक कारणों की भूमिका भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। लिंगीय असमानता के सामाजिक कारण हैं, दहेज, बाल-विवाह, विधवा विवाह को समाज में अच्छी दृष्टि से नहीं देखना इत्यादि । माता-पिता अपने सपने और जीवन-भर की जमा पूँजी बच्चों के पालन-पोषण में व्यय कर देते हैं, फिर भी दहेज के लोभी थोड़े-से पैसों के लिए लड़कियों को जला देते हैं । बाल-विवाह के कारण बालिकाओं को कलम-कॉपी की जगह पारिवारिक जिम्मेदारियाँ सौंप दी जाती हैं और विधवा होने पर स्त्री को ताने सुनकर ही अत्यन्त दयनीय अवस्था में जीवन व्यतीत करना पड़ता है । इन सामाजिक कारणों से चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता बढ़ती ही जाती है ।
4. आर्थिक कारण — स्त्रियों को पुरुषों की भाँति समाज के सम्पर्क में आने और समाजीकरण की छूट नहीं होती है, जिस कारण वे बाहर के कार्यों से सर्वथा अनभिज्ञ और स्वयं को इन कार्यों के लिए अयोग्य मानने के मनोविज्ञान से ग्रसित हो जाती हैं। यदि पुत्र होता है तो वह कहीं भी जाकर चार पैसे कमाकर अपने परिवार का पेट पाल सकता है, पारिवारिक व्यापार तथा उद्योग को सँभाल सकता है, परन्तु इन आर्थिक क्रिया-कलापों के लिए बालिकाओं को सर्वथा अनुपयुक्त समझा जाता है। इस प्रकार आर्थिक कारणों से चुनौतीपूर्ण लिंग की चुनौती बनी ही रह जाती है।
5. धार्मिक कारण— हमारे धर्म-ग्रन्थों में लिखी बातों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने तथा देश, काल और परिस्थिति समझे बिना तब कही गयी बातों को जस का तस अपनाने की प्रवृत्ति से लिंगीय असमानता में वृद्धि हो रही है ।
6. सुरक्षात्मक कारण– यदि किसी माता-पिता के पुत्र हों तो वे उसकी सुरक्षा के लिए उतने चिन्तित नहीं होते जितना लड़की का पिता बालिकाओं के लिए हमारा समाज और समाज ही नहीं, घर तक भी असुरक्षित हो गया है। ऐसे में बालिकाओं के उत्पन्न न होने की कामना की जाती है और यदि वे उत्पन्न हो भी गयीं तो उनकी सामाजिक सुरक्षा के लिए चिन्तित माता-पिता उनको घर की चारदीवारी तक ही सीमित कर देते हैं। इससे लिंगीय असमानता में वृद्धि होती है।
7. जागरूकता का अभाव – समाज में जागरूकता का अभाव है जिस कारण अभी भी तमाम कार्यों में बिना बुद्धि और विवेक का प्रयोग किये ही पुरुषों का एकाधिकार समझा जाता है। इस प्रकार चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता में जागरूकता का अभाव प्रमुख कारणों में से एक है।
8. राजनैतिक कारक—हमारे यहाँ राजनैतिक दल लिंगीय समानता की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, परन्तु स्वयं महिलाओं के हाथ में नेतृत्व नहीं सौंपते हैं तथा समय-समय पर महिलाओं के लिए अनुचित टिप्पणी तथा उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए उन्हें ही उत्तरदायी मानते हैं। ऐसे में सामान्य व्यक्ति के मनो-मस्तिष्क पर बालकों की श्रेष्ठता की स्थापना हो जाती है और लैंगिक भेद-भावों में वृद्धि होती है ।
9. दोषपूर्ण शिक्षा व्यवस्था – दोषपूर्ण शिक्षा व्यवस्था के कारण चुनौतीपूर्ण लिंग की असमानता में वृद्धि हो रही है, क्योंकि शिक्षा में व्यावसायिकता, रुचिपूर्णता, क्रिया तथा व्यवहार प्रधान ज्ञान का अभाव है, जिससे शिक्षा जीवनोपयोगी न रहकर सैद्धान्तिक रह जाती है। शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि एक के बाद एक कक्षायें पढ़ते जाने, पास कर जाने पर भी न तो हाथ में कोई कौशल होता है और न ही नौकरी की गारण्टी । बीस साल पढ़ने के बाद भी यदि उस शिक्षा का लाभ न तो व्यवहार ज्ञान में मिले, न ही आर्थिक उन्नति में तो भला अभिभावक क्यों बालिकाओं को पढ़ायेंगे। वे तो उनका शीघ्र विवाह कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करना श्रेयस्कर समझते हैं, जिससे असमानता में वृद्धि होती है।
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