आधुनिक हिन्दी कवि के रूप में जयशंकर प्रसाद का वर्णन कीजिए तथा उदाहरण सहित उनके काव्य पर प्रकाश डालिए।
परिचय- जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी के एक प्रतिष्ठिा कान्यकुब्ज वैश्य परिवार में माघ शुक्ल 10, संवत् 1946 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री देवी प्रसाद थे। काशी में वे सुघनी साहू के नाम से प्रसिद्ध थे। इसी से लोग प्रसाद जी को भी ‘सुघनी साहू’ कहते थे। उनके बड़े भाई का नाम श्री शम्भूरन था। पिता की मृत्यु के बाद श्री शम्भूरत्न को ही गृहस्थ जीवन का भार वहन करना पड़ा। प्रसाद जी उस समय काशी के क्वींस कॉलेज में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। उन्हें कॉलेज से उठाकर उनके बड़े भाई ने दुकान का काम सौंपा और घर पर ही उनकी शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया। पं0 दीनबन्धु ब्रह्मचारी प्रसाद जी को वेद और उपनिषद् पढ़ाते थे।
प्रसाद जी सरल, उदार, मृदुभाषी, स्पष्ट वक्ता और सहासी व्यक्ति थे। दानशीलता उनमें बहुत थी। उनकी मनोवृत्ति धार्मिक थी। वे शिव के उपासक और अपने जीवन में संयमी थे। 28 जनवरी, 1937 को वे बीमार पड़े और 22 फरवरी को डॉक्टरों ने यह कह दिया कि उन्हें राजयक्ष्मा हो गया है। इस रोग की सूचना पाकर वे अपने जीवन से उदासीन हो गये और अन्ततः कार्तिक शुक्ल एकादशी सं0 1994 को उनका स्वर्गवास हो गया।
प्रसाद जी की रचनाएँ- प्रसाद जी हिन्दी साहित्य के प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। उन्होंने साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में अपना स्वतन्त्र मार्ग बनाया था। उन्होंने नाटक, उपन्यास, काव्य, निबन्ध, आलोचना इन सब विषयों में उत्कृष्ट रचनायें की थीं। काव्य की दृष्टि से उनकी रचनायें इस प्रकार हैं
( 1 ) चम्पू- उर्वशी और बभ्रुवाहन,
( 2 ) महाकाव्य- कामायनी,
(3) काव्य-रूपक- करुणालय,
(4) खण्ड-काव्य- प्रेम-राज्य, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्त्व और आँसू,
(5) गीत काव्य- शोकोच्छवास, कानन कुसुम, चित्राधार, झरना और लहर।
गद्य के क्षेत्र में ‘चन्द्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘अजातशत्रु’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘राजश्री’ आदि। नाटक- ‘छाया प्रतिध्वनि’, ‘आकाश-दीप’ । कहानी संग्रह – ‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘इरावती’, (अपूर्ण) । उपन्यास- ‘काव्यकला’ और अन्य निबन्ध शीर्षक, निबन्ध संग्रह आदि उनकी प्रमुख रचनायें हैं।
प्रसाद जी की काव्य- प्रतिभा का विकास
प्रसाद जी का कविता-काल 1962 सं0 से आरम्भ होता है। उस समय वे ब्रजभाषा में कविता करते थे। द्विवेदी जी के प्रभाव से वे खड़ी बोली में रचनायें करने लगे। लेकिन उन्होंने द्विवेदी जी कालीन नीतिवाद इतिवृत्तात्मक शैली को नहीं अपनाया। वे बंगला की गीति-काव्य-शैली से अधिक प्रभावित थे। इसलिये वे उसी ओर झुके। ‘करुणालय’, ‘प्रेम पथिक’, ‘कानन कसुम्’ और ‘महाराणा का महत्त्व, में उन्होंने वही शैली अपनायी। यहाँ तक (सं0 1975) पहुँचकर उनके कवि जीवन के दो प्रारम्भिक अध्याय समाप्त हो गये।
प्रसाद जी के कवि-जीवन का तीसरा अध्याय ‘झरना’ (सं0 1975) के प्रकाशन से प्रारम्भ हुआ। हिन्दी-काव्य साहित्य में उनकी यह अभिनव रचना थी। इसमें उन्होंने ‘कानन कुसुम’ आदि की शैली में भिन्न स्वछन्दतावाद की काव्य-शैली अपनायी। स्वच्छंदतावाद की काव्य-शैली हिन्दी जगत् के लिये सर्वथा नवीन नहीं थी। इस शैली में उनके पूर्व पं० श्रीधर पाठक आदि रचनायें कर चुके थे। प्रसाद जी की इस शैली में उनके अपनेपन के अतिरिक्त यदि कोई उल्लेखनीय विशेषता थी तो वह यह कि इसमें छायावाद के अंकुर वर्तमान थे। इस काव्य के पश्चात् सात वर्ष तक वे नाटक लिखने और छायावाद के अध्ययन में संलग्न रहे। फलस्वरूप सं0 1982 में उनकी प्रौढ़ रचना ‘आँसू’ का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ। इस समय तक हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में छायावादी रचनायें अवश्य प्रकाशित होने लगी थीं, लेकिन काव्य-संग्रह के रूप में किसी की रचना सामने नहीं आयी थी। छायावादी काव्य में ‘आँसू’ का ही प्रथम स्थान था। इसके पश्चात् सं० 1994 में ‘झरना’ का प्रथम और फिर सं0 1988 में ‘आँसू’ का संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण निकला। इस प्रकार प्रसाद जी को छायावाद की भाव-भूमि पर उतरने में लगभग 13-14 वर्ष लग गये।
‘आँसू’ के द्वितीय संस्करण के पश्चात् सं0 1990 में ‘लहर’ का प्रकाशन हुआ। इसके प्रकाशन से प्रसाद जी के कवि-जीवन का चौथा और अन्तिम अध्याय प्रारम्भ हुआ। इसमें उन्होंने अपना रहस्यवादी दृष्टिकोण व्यक्त कर अपनी काव्य-प्रतिभा को चरम सीमा पर पहुँचा दिया और फिर इसके दो वर्ष बाद ही सं0 1992 में वे हमें ‘कामायनी’ जैसी अद्भुत महाकाव्य देने में समर्थ हुए यह महाकाव्य छायावाद-रहस्यवाद-युग की अभूतपूर्व देन है। इसके मुकाबले का महाकाव्य खड़ी बोली में अब तक नहीं लिखा गया है।
काव्य प्रवृत्तियाँ- प्रसाद जी मूलतः कल्पना और भावना के कवि हैं। अपनी समस्त रचनाओं में उन्होंने अपने कवि-हृदय को ही प्रधानता दी है। भावना के क्षेत्र में वे मुख्यतः प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। सौन्दर्य के भौतिक आकर्षण की उन्होंने अवहेलना नहीं की, लेकिन उसको ऐन्द्रिकता के शिखर से ग्रसित नहीं किया है।
प्रसाद जी ने अपने काव्य में नारी भावना को भी स्थान दिया है। इस दृष्टि से उनका महाकाव्य ‘कामायनी’ सर्वोत्तम है। ‘कामायनी’ में श्रद्धा नारी का प्रतीक है। नारी अपने इसी रूप में चिरसंगिनी है। वह स्त्री (श्रद्धा) पुरुष (मनु) के नीति च्युत हो जाने पर भी उनका साथ नहीं छोड़ती और उनको कल्याण का मार्ग दिखाती है। इस प्रकार पुरुष के जीवन में नारी ही सौन्दर्य, सन्तुलन और शक्ति का विधान करती है। नारी में इस गुण का आविर्भाव आत्म समपर्ण द्वारा होता है। वह अपना सब कुछ खोकर पुरुष के जीवन को सार्थक करती है।
प्रसाद जी प्रकृति- प्रेमी भी हैं। उनके प्रकृति प्रेम ने ही उनके काव्य का शृंगार किया है। लेकिन उनके प्रकृति-चित्रण की शैली सर्वथा भिन्न है। उन्होंने प्रकृति में अपने भावों की छाया देखी है और वे उससे अपना सम्बन्ध जोड़ने के लिये व्याकुल हो उठे हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रसाद जी अपने कवि-रूप में अत्यन्त समर्थ हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य को जिन भावों, विचारों और कल्पनाओं में सम्पन्न किया है उसकी स्थायी महत्व है। आज की यांत्रिक सभ्यता में पीड़ित और शोषित मानव को उन्होंने ‘कामायनी’ द्वारा जो संदेश दिया है वह अमर है।
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