कामायनी के ‘आशा सर्ग’ की विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
किसी भी काव्यगत के मूल्यांकन के दो पक्ष निर्धारित किये गये हैं जो पक्ष हमारे हृदय की भावनाओं एवं सम्वेदनाओं को आन्दोलित करे उसे भाव-पक्ष और जो तत्त्व उस कविता के स्वरूप तथा सौन्दर्य को प्रभावित अथवा उद्घाटित करे उसे कला-पक्ष कहते हैं।
भाव-पक्ष- आशा कामायनी का द्वितीय सर्ग है, जिसका नामकरण एक मनोभाव पर किया गया है। चिंता और निराशा में डूबा मनुष्य आशा के कारण ही जीवन धारण करने के लिए तत्पर होता है। आशा इस सृष्टि को स्थिर रखने वाली धुरी है। आशा में वह शक्ति है जो सम्पूर्ण सृष्टि में प्रलयोपरांत एकांकी बचे मनु को जीवन के प्रति सचेत करती है। आशा सर्ग इस सृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आशा सर्ग में प्रसाद का अनुभूतियाँ काव्य के भाव-पक्ष के भली भाँति रूप में अभिव्यक्ति हुई है। आशा सर्ग के भाव पक्ष की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
रस व्यंजना- प्रसाद रस सिद्ध कवि थे। उनके काव्य में सभी रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है। आशा सर्ग में प्रकृति के माध्यम से रसों की अभिव्यंजना की गयी है। संयोग शृंगार का सुंदर चित्र प्रकृति के फल पर प्रसाद जी ने खींचा है-
सिन्धु सेज पर धरा बधू अब
तनिक सकुचित बैठी सी,
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में,
मान किये सी ऐंटी सी।
नाटकीयता का प्रदर्शन- आशा सर्ग में यद्यपि मनु एकांकी पात्र हैं तथापि सर्ग के आरम्भ से ही प्रकृति-वर्णन की कुछ ऐसी रूपरेखा बनी है कि सम्पूर्ण सर्ग में मनु अकेले नहीं प्रतीत होते हैं सर्वत्र उनके साथ प्रकृति की छाया संयुक्त है। इससे वर्णन में एक प्रकार की नाटकीयता का समावेश हो गया है जो भाव-पक्ष की एक विशेषता मानी गई है।
प्रेम और सौन्दर्य वर्णन- प्रसाद जी प्रेम और सौन्दर्य के महान् कवि थे। उनकी कविताओं में प्रेम सौन्दर्य के विविध चित्र उभरे हैं। आशा सर्ग में मनु नायक हैं और नायिका है प्रकृति। मनु के सौन्दर्य को कतिपय पंक्तियों में रेखांकित किया गया है-
उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है,
क्षितिज बीज अरुणोदय काँत
मनन किया करते वे बैठे
ज्वलित अग्नि के पास वहाँ
एक सजीव तपस्या जैसे
पतझड़ में कर वास रहा।
प्रकृति चित्रण- प्रसाद जी के सुन्दरतम् प्रकृति के चित्र या तो मानवीय चेतन को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति बनाकर प्रकट हुए हैं या इसकी पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत करते हैं-
उषा सुनहले तीर बरसती,
जय लक्ष्मी सी उदित हुई।
उधरर पराजित कालरात्रि भी,
जल में अन्तर्निहित हुई।
दार्शनिक भावों की अभिव्यक्ति- आशा सर्ग के दार्शनिक भावों की अभिव्यंजना भी यत्र-तत्र उपलब्ध होती है। प्रसाद प्रतयभिज्ञादर्शन के समर्थक थे। प्रत्यभिज्ञादर्शन के समान ही वे संसार को सत्य और परिवर्तनशील मानते हैं-
देव न थे हम और न ये हैं
सब परिवर्तन के पुतले,
हाँ, कि गर्व-रथ में तुरंग सा
जितना जो चाहे जुत ले।
मानवता के विकास की भावना- आशा सर्ग में निराश दुःखी एकाकी मनु भी नव-संस्कृति के विकास के लिए यज्ञ करने लगे। वे यज्ञ करते हैं और अवशिष्ट अन्न को किसी के अपरिचित की तृप्ति के लिए दूर रख देते हैं। मानवता की दृष्टि से मनु यह कर्त्तव्य श्लाध्य है और भाव-पक्ष की दृष्टि से यह प्रसाद जी की भावुकता का उदाहरण है।
कर्मवाद का संदेश– प्रसाद जी का भाव जगत इतना व्यापक है कि उसमें मानव मात्र के समस्त हितों का चिंतन व्याप्त रहता है। मानव हित के लिए वे सदैव कर्मवाद का संदेश देते रहे। आशा सर्ग में भी कर्मशीलता का संदेश व्यक्त किया गया है। प्रलय की कालरात्रि के समाप्त होने के पश्चात् एकाकी मनु को प्रसाद ने कर्म की ओर प्रवृत्त किया है। मनु अपनी चिंता से ऊपर उठकर समष्टिगत चिंतन में लीन होते और पुनः यज्ञादि कर अपनी नव संस्कृति के निर्माण के उपकरण एकत्र करते हैं-
तम में निर हुए मनु नियमित,
कर्म लगे अपना करने।
विश्व रंग में कर्म जाल के,
कल्पना तत्व- प्रसाद जी के काव्य की सबसे बड़ी शक्ति उनकी अनुभूतिमूलक कल्पना है। अनुभूति को रूपायित करने में उनकी कोमलांगी कल्पना अधिक सचेत रही है। मनोवृत्तियाँ पात्रों तथा प्राकृतिक दृश्यों के चित्रांकन में उनकी कल्पना का विशाल वैभव देखते ही बनता है। वे अपनी कल्पना को अनुभूति के अनुशासन में ही प्रसारित करते हैं इसलिए उनका चित्रांकन अत्यन्त सजीव एवं स्वाभाविक होता है।
आशा सर्ग का कला-पक्ष- प्रसाद जी की प्रतिभा अप्रतिम है। कामायनी उनकी अप्रतिम प्रतिभा का चूडान्त निर्देशन है। कामायनी का प्रत्येक सर्ग साहित्यिक सौष्ठव में स्वयं में पूर्ण है। ‘आशा’ सर्ग में भाव-पक्ष जितना सबल है, कला-पक्ष भी उतना ही मोहक। भाषा, अलंकार, छन्द आदि की दृष्टि से भी यह सर्ग उत्कृष्ट है।
भाषा – आशा सर्ग प्रसाद जी के भाषागत वैशिष्ट्य का एक सुंदर नमूना है। प्रसाद जी की भाषा में सर्वत्र एक विशिष्ट माधुर्य और प्रवाह रहता है। शुद्ध संस्कृतिनिष्ठ भाषा में ऐसा लालित्य और ऐसी सरलता प्रसाद जैसे प्रतिभावान कवि से ही सम्भव हो सकती थी। माधुर्य गुणयुक्त ललित पदावली की सरलता और प्रवाहमयता देखिए-
उषा सुनहले तीर बरसाती,
जय लक्ष्मी सी उदित हुई।
उधर पराजित काल रात्रि भी
जल में अन्तर्निहित हुई।
अलंकार- आशा सर्ग में अलंकारों का सुष्ठु प्रयोग हुआ है, जिससे काव्य की शोभा के साथ-साथ भाव-जगत भी समृद्ध हुआ। शब्दगत और अर्थगत दोनों ही प्रकार के अलंकारों को प्रसाद ने यथास्थान प्रयुक्त किये हैं। आशा सर्ग में प्रयुक्त प्रमुख अलंकार निम्नलिखित हैं-
अनुप्रास- जीवन अस्थिर ‘दिन-दिन-दिन’।
उपमा –
- विश्व कल्पना सा ऊंच वह
- उस दुर्भद्य अचल सदृश प्रसार
पूर्णोपमा-
- उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है
- क्षितिज बीच अरुणोदय कांत
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