घनानन्द की आध्यात्मिक चेतना की विवेचना कीजिए।
घनानन्द का हृदय प्रारम्भ में लौकिक प्रेम में अनुरक्त था लेकिन उनकी प्रेमिका सुजान की निर्दयता एवं विश्वासघात ने उस लौकिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम में परिवर्तित कर दिया। घनानन्द अपनी प्रेमिका सुजान के परोक्ष उद्धोधन से अलौकिक प्रेम के अनन्त आकाश में विचरण करने लगे। अतः उसकी व्यक्ति निष्ठा और व्यक्तिक आस्था असीम और अनन्त होकर ईश्वर भक्ति का रूप धारण कर गयी। घनानन्द की भक्ति भावना की विशेषतायें निम्न हैं-
( 1 ) वैष्णव भक्ति- घनानन्द ने सूर और मीरा की भक्ति में गाय पदों की रचना की है, जिससे उनकी भक्ति में दास्य सख्य एवं कान्त भाव की अधिकता दृष्टिगोचर होती है। मधुर-भक्ति इस प्रकार के भाव में उनके वासनाहीन पुनीत प्रेम की झलक मिलती है।
मेरे मितवा तुम बिन रहयो न जाय।
विषम वियोग जरावै जियरा सहयो न जाए।
-निपट अधीर पीर बस हियरा गह्यो न जाए
आनंद घन पिउ बिहुरन को दुख कहयो न जाए।
सख्य भावः सूर के समान घनानंद भी कृपा मैत्री और बराबरी के रूप में बात करते हैं और अपना उद्धार होने की बात कहते हैं।
( 2 ) मुरली का महत्व- घनानंद ने श्रीकृष्ण की मुरली की महत्ता का भी निरूपण किया है।
मुरलिया में त्यौनार भरे है।
धुनि सुनि हिय बेहाल होत है इन ये हाल करे है।
कान्ह कुँवर ब्रजमोहन मोहे याही ढार ढेर है।
फल न देती काहू, थिर चर की सबसे मरम छरे है।
( 3 ) परमेश्वर के प्रति अनन्यता- घनानंद के काव्य में ईश्वर के प्रति अनत्यता एवं एकनिष्ठा का भावभरा है। यथा-
तुम ही गति हो तुम ही मति हौ, तुम ही पति हौ अति दीनन कौ
नित प्रीति करौ सुन-हीनन सौ यह रीति सुजान प्रवीनन कौ
बरसौ धन आनन्द जीवन को सरसौं सुधि चातक छीनन को
मुट्ठ तो चित के पन पै दूत के निधि हाँ हित के मीनन कौ।
( 4 ) निर्गुण रूप- घनानंद के काव्य में कतिपय स्थल ऐसे भी मिलते हैं, जहाँ पर निर्गुण तत्व की विवेचना की गई है। इसलिए भी इन्हें कबीर और नानक की परम्परा में स्थान गया दिया है। इसी निर्गुण भावना का एक उदाहरण प्रस्तुत हैं-
आयु रजो आवयु गो धरि सबै सुख
जीवन मरि सम्हारति क्यों नहीं।
वाहि महागति तोहि महा गति,
बैठे बनेगी विचारित क्यों नहीं।
नैमिनी स फिरयो भतक्यो पल,
मूँदि, स्वरूप निहारति क्यों नहीं।
स्वाम सुजान कृपा घन आनंद
प्रान पयोहन पारति क्यों नहीं।
( 5 ) वैराग्य – सुजान के वियोग में घनानंद ने वैराग्य ले लिया। उनके काव्य में भी यह भाव दृष्टिगोचर होता है
पाती मधि छाती छत लिखि न लिखाए जहि
काती लौ विरह घाती कीन्है जैसे हाल है।
आगुरी वह कि तही पंगुरी फिलभि होति,
ताती राति दसानि के जाल ज्वालमाल हो।”
( 6 ) रहस्यवाद- रहस्यात्मक संकेत भी घनानंद के काव्य में मिलते हैं। प्रिय हृदय में रहता हो, फिर भी उनसे भेंट न हो तो विराह और भी बढ़ जाता है। जैसे-
पिऊ हिरदै मा भेटि न होई। कोउ मिलाव कही केहि सेई ।
इसी प्रकार घनानंद भी तो व्याकुल होकर कहते हैं-
अंतर हौ किधौं अन्त रहौ द्रुग फारि फिरौं कि अयागिन भीरौ।
आगि जरों अकि पानी परी अब कैसी करौ हिय का विधि धीरौ ॥
जोधन आनंद ऐसी रूची तो कहा वसहै अहौ प्राननि पीरौ ।
पाऊँ कहाँ हरि हाय तुम्हें धरती में धसौ कि अकासहि से चीरौ॥
( 7 ) सूफी संतो का प्रभाव- घनानंद के काव्य में सूफी मत का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। सफियों की प्रेम भावना की मूल विशेषताओं लौकिक प्रेम द्वारा आलौकिक द्वारा उच्च सोपान पर पहुँचना इश्क मिजाजी द्वारा हकीकी की उपलब्धि के सिद्धांत घनानंद के काव्य में भी कहीं-कहीं देखे जा सकते हैं।
प्रेम कौ महौद धानि अपार हेरि कै विचार
वापुरी हहरि वार ही ते फिरि आयो है।
ताही एक रस है विवस अवगाह दोऊ,
नेही हरि राधा जिहे देखे सरसायो है।
ताकि कोऊ तरल तरंग मं घुट्यो कन।
पूरी लोक लोकन उमगि उफ नायों है।
सोई घन आनंद सुजान लागि हेत होता।
ऐसे ग्यानि मन पै सरूप ठहरायो है।
उपरोक्त विवेचन और उद्वरण से स्पष्ट हो जाता है कि घनानंद के काव्य में भक्ति का व्यापक क्षेत्र विद्यमान है। अपना परिस्थितियों के कारण जीवन की एक सीमा पहुँचकर घनानंद का उत्कृष्ट प्रेम और विरही हृदय शुद्ध भाव बन बैठा है। घनानंद का सुजान के प्रति प्रेम भावना राधा-कृष्ण की उपासना में परिवर्तित हो गयी है। यही घनानंद को भक्ति भावना की विशेषता है।
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