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डाल्टन विधि (Dalton Method)
बीसवीं शताब्दी में नवीन शिक्षण पद्धतियों का निर्माण हुआ। इनमें डाल्टन पद्धति’ भी एक महत्त्वपूर्ण पद्धति है। डाल्टन पद्धति की योजना ‘मिस हेलन पार्कहर्स्ट’ (Miss Helen Parkhurst) ने बनाई थी।
पुरानी शिक्षण पद्धतियों के दोषों को दूर करने के लिये डाल्टन पद्धति विकसित की गई थी। इस पद्धति का मुख्य प्रयोजन है कि शिक्षा प्रक्रिया में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता एवं प्रधानता दी जानी चाहिये। इसमें बालक की व्यक्तिगत भिन्नता का ध्यान रखा जाता है। शिक्षा का महत्त्व एक निर्देशक के रूप में स्वीकार किया गया है तथा छात्रों की स्वशिक्षा की व्यवस्था की गई है। साथ ही समस्याओं का हल सामूहिक रूप से किया जाता है।
डाल्टन प्रणाली में कुछ आवश्यक परिवर्तन करके लन्दन के एक स्कूल में भूगोल पढ़ाने के लिये प्रयोग किया गया है। उसी आधार पर भूगोल शिक्षण में डाल्टन प्रणाली का प्रयोग समझाया गया है।
हाई स्कूल परीक्षा के पूर्व का पाठ्यक्रम चार या पाँच वर्षों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ष चालीस मिनट के दो घण्टे अध्यापन तथा दो घण्टे स्वतः अध्ययन के रखे जाते हैं। दूसरे तथा अन्य वर्षों में भूगोल और इतिहास को छ-छ: महीने पढ़ाते हैं। दूसरे शब्दों में, अब भूगोल के तीन घण्टे प्रति सप्ताह होने की जगह छः महीने तक एक विषय के छः घण्टे प्रति सप्ताह होते हैं। इन छः घण्टों में से दो घण्टे अध्यापन तथा चार घण्टे स्वतः अध्ययन के लिये रखे जाते हैं। इन चार घण्टों में दो घण्टे पुस्तकालय में स्वाध्याय के लिये होते हैं, शेष दो घण्टे पाठशाला या घर पर अध्ययन में लगाये जाते हैं। हाई स्कूल के पहले वर्ष में दो घण्टे और दूसरे वर्ष में चार घण्टे प्रति सप्ताह भूगोल के लिये पर्याप्त होंगे।
इस विधि से भूगोल पढ़ाने के लिये वार्षिक पाठ्य सामग्री को सुविधानुसार कई भागों में बाँट लेते हैं, प्रत्येक भाग में 3 अथवा 4 सप्ताह के अध्ययन की सामग्री रहती है। छोटी कक्षाओं में एक सप्ताह की सामग्री विवरण सहित दी जाती है। एक निश्चित अवधि की यह सामग्री सायक्लोस्टाइल मशीन द्वारा कागजों में छाप ली जाती है। सप्ताह आरम्भ होने के पूर्व यह कागज प्रत्येक बालक को दे दिया जाता है। इस कागज में पाठ्यक्रम की सामग्री मिलने की पुस्तकों के नाम, उनके पढ़ने का क्रम, उनके पाठ्यस्थल तथा पृष्ठ संख्या आदि दिये रहते हैं। छात्र भूगोल के कमरे में अध्ययन करते हैं। शिक्षक छात्रों का समय पर निर्देशन करता है। पाठ्य-पुस्तकें, कोष, अवलोकनार्थ ग्रन्थ, मानचित्र, एटलस, चित्र आदि खुली अल्मारियों में बालकों के लिये स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग करने को रखी जाती है। छोटे बालकों को पढ़ने के लिये थोड़ी पुस्तकों का नाम बताया जाता है। बालक अपनी निजी पाठ्य-पुस्तक और एटलस का भी प्रयोग करते हैं।
छात्रों के स्वतः अध्ययन पर बल दिया जाता है। शिक्षक घूम-घूमकर बालकों की व्यक्तिगत कठिनाइयों को दूर करता है। पढ़ने के ढंग का निर्देशन करता है। जो बालक सप्ताह का कार्य जल्दी समाप्त कर लेते हैं, उनको शिक्षक अगले सप्ताह का कार्य करने की आज्ञा देता है। जिन बालकों का कार्य समाप्त नहीं होता, वे दूसरे सप्ताह में भी वही कार्य करते हैं तथा जब तक वह समाप्त नहीं होता, वे नया कार्य आरम्भ नहीं करते। इस विधि में बालक अपने बौद्धिक विकास के अनुकूल गति से अध्ययन करता है। कार्य समाप्त होने पर ही उसको कमरे से बाहर जाने की स्वतन्त्रता रहती है, चाहे घण्टा पूरा हो या न हो।
अध्यापक का कार्य- अध्यापक का कार्य निरीक्षण, निर्देशन एवं मार्ग-प्रदर्शन है। इसके साथ ही साथ उसे कक्षा में अध्ययन का उचित वातावरण बनाये रखना पड़ता है। स्वतः अध्ययन में कठिनाई प्रस्तुत करने वाले पाठ्य-स्थलों की व्याख्या करनी पड़ती है। कभी-कभी वह पाठ्यक्रम का विश्लेषण एवं पढ़े पाठों का पुनरावलोकन कराता है।
गुण
वास्तविकता यह है कि भूगोल अध्यापन की यह एक संशोधित डाल्टन प्रणाली है और इसमें अनेक गुण है—
- इसमें स्वतः अध्ययन पर बल दिया जाता है।
- यह प्रणाली मनावैज्ञानिक है, क्योंकि इसमें बालक अपनी योग्यता तथा रुचि के अनुसार कार्य करता है।
- प्रत्येक छात्र को व्यक्तिगत निर्देशन मिलता है।
- छात्रों का लिखित कार्य उनके समक्ष ही अध्यापक द्वारा शुद्ध किया जाता है। इससे वे उन गलतियों को ठीक प्रकार समझ जाते हैं।
- प्रत्येक बालक अपनी समस्यायें अलग-अलग शिक्षक के रख सकता है और उनका निराकरण करा सकता है।
- इस प्रणाली द्वारा छात्रों में सहयोग व सामाजिक कुशलता के भाव जाग्रत होते हैं।
- छात्र भौगोलिक सामग्री का उचित प्रयोग करना सीखते हैं।
- बालकों को पुस्तकालय का अधिक उपयोग करने का अवसर मिलता है।
दोष
1. मौखिक अभ्यास पर कम और लिखित कार्य पर अत्यधिक बल दिया जाता है।
2. छोटे बालक स्वतन्त्र रूप से कार्य नहीं कर सकते। इसलिये कार्य के उत्तरदायित्व का निर्वाह उनके लिये कठिन होता है।
3. प्रयोगशाला, पुस्तकों, विशेषज्ञों एवं शिक्षण यन्त्रों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है। भारत जैसे निर्धन देश में इस प्रणाली को विद्यालयों में लागू करना कठिन है।
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