निराला की बादल राग-6 कविता की विवेचना कीजिए।
महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपने काव्य संग्रह ‘परिमल’ से लेकर सान्ध्यकाकली वृति तक बादल को अनेक रूपों में काव्य-विषय के रूप में प्रस्तुत करते हुए उसके प्रति अपना एवं आत्मिक प्रेम वर्णित किया है। निराला जी के रचनाओं में कवि का बादल और वर्षा के प्रति बहुत आकर्षण रहा है। ‘घन गर्जन से भर दो वन’, ‘मुक्तादल जल बरसो’, ‘जलद के प्रति’, ‘बादल दाये’, ‘मेघ’, ‘गरजे बदरवा’, ‘बादल रे’, श्याम गगन नवधन मँडराये’, ‘गगन मेघ छाये’, ‘मेघ के घन-केश-पाश’, ‘अलि घिर आये घन पावस के’, ‘घन आये घनश्याम न आये. ‘बरसो मेरे आँगन बादल’ तथा ‘बादल राग’ आदि कविताएँ वर्षा और बादल के प्रति उनके असीम प्रेम की परिचालक हैं। वर्षां-बादल निराला के लिए सुख-समृद्धि, प्रेम-आनन्द, परिवर्तन क्रान्ति, विद्रोह-विप्लव आदि-इत्यादि प्रतीकों में रूपान्तरित होकर अर्थ गर्भित बिम्बों की सृष्टि करते हैं। निराला ने अपनी बादलराग कविता में वर्णित किया है-
“हँसते हैं छोटे पौधे लघुमार-
शस्य अपार,
हिल-हिल,
खिल-खिल,
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
वर्षा से सम्बन्धित उनकी सर्वाधिक कविताएँ उनके ‘गीतगुंज’ काव्य संकलन में संगृहीत हैं। जहाँ तक ‘बादल’ की बात है तो ‘अनामिका’, ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘बेला’, ‘नये पत्ते’ एवं ‘अर्चना’ में उपस्थिति बादल-सम्बन्धी कविताओं को एक जगह संगृहीत कर लें तो ‘बादल’ पर उनकी रचनाओं का एक अच्छा-खासा संकलन बन सकता है।’
‘बादलराग, शीर्षक से निराला जी द्वारा सृजित छह कविताएँ उनके ‘परिमल’ काव्यसंग्रह में संकलित हैं। इन कविताओं का रचनाकाल सन् 1920 है। ‘बादलराग’ की ये कविताएँ ‘परिमल’ की ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण निराला-साहित्य की मूल्यवान् धरोहर हैं। निराला जी ने यहाँ बादलों को ‘कुसुम-कोमल कठोर-पवि’ कहकर उनमें अपने व्यक्तित्व को समविष्ट कर दिया है। इन कविताओं में निराला का स्वर स्पष्टतः प्रगतिवादी है।
‘बादलराग’ की कविताओं का सृजन छह आयामों में हुआ है। पहली कविता में कवि ने बड़ी निष्ठा के साथ बादलों का आह्वान् एवं स्वागत किया है। इस कविता में कवि बादल से प्रणत निवेदन करता है कि वह अपने घनघोर शब्दशोर- (निजरोर) से अम्बर, निर्झर-गिरि-सर, घर-तरु-सागर, सरित-विजन-कानन सब को भर दे, गुंजायमान कर दे, अपनी रसवर्षा से सबके हृदय में उथल-पुथल और हलचल मचा दे। दूरी कविता में बादल विप्लव और क्रान्ति की प्रतिमूर्ति है। तीसरी कविता में बादल परम परोपकारी-रूप में चित्रित है। चौथी कविता में बादल को क्रीड़ारत बालक से उपमित करते हुए उसके परम निर्द्वन्द्व स्वरूप का चित्रण किया है। पाँचवीं कविता में कवि ने बादल को निराकार ब्रह्म से उपमित किया है, जो संसार में होते हुए भी सांसारिक प्रभाव से मुक्त रहता है। अन्तिम-छठी कविता में ‘बादल’ पुनः क्रान्ति के प्रतीक रूप में उपस्थित है। कविता का आरम्भ ‘समीर-सागर पर तिरती हुई क्षणिक ‘सुख पर दुःख की छाया’ के संकेत से होता है। पहले कवि बादल के प्रलयंकारी रूप का वर्णन करता है और ‘क्रान्ति के प्रतीक’ बादल को वह ‘विप्लव के वीर’ कहता है। यहाँ ग्रीष्म के भयंकर ताप से दग्ध जग के हृदय पर ‘क्रान्तिदूत’ की तरह छा जाता है। जिस तरह क्रान्ति दीन-दुःखियों के कष्टों का विनाश करती हुई सुखोन्मुखी नवीन वातावरण की सृष्टि करती है, उसी तरक क्रान्तिदूत बादल ग्रीष्म से पीड़ित दुनिया को नवजीवन का उपहार देता है।
निराला जी बादलराग कविता में कहते हैं-
धनी, वज्र-गर्जन से बादल!.
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे हैं!
जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर,
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के परावार!
कवि बादल का आह्वान करता हुआ निवेदन करता है कि नगाड़ों की भाँति तुम्हारी गर्जना को सुनकर पृथ्वी के भीतर (उर में) सोये हुए बीजांकुर, तुम्हारे जलकणों का स्पर्श पा नवजीन प्राप्त करने की आशा-आकांक्षा से अपना सिर ऊँचा करके तुम्हारी ओर बार-बार ताक रहे हैं। कवि देखता है कि जो बादल अपनी भीषण-भयंकर हुंकार से, अपने अशनि-प्रहार से ‘गगन-स्पर्शी स्पर्धा-धीर’ भीमकाय पहाड़ों को धूल-धूसरित कर देता है, उसी बादल का छोटे छोटे पेड़-पौधे, जीर्णबाहु-शीर्णशरीर किसान अधीर एवं प्रसन्नभाव से आह्वान करते हैं, हाथ हिलाकर बुलाते हुए हृदय से स्वागत करते हैं। इस कविता में निराला जी ने अपने ‘जनकवि’ होने की भूमिका का सर्वथा निर्वाह किया है।
यहाँ पर्वत पूँजीपतियों का प्रतीक है, जिन्हें क्रान्ति-प्रतीक बादल अपने अशनिपात द्वारा नष्ट कर देता है और शोषित-वर्ग दीन-हीन किसानों को उनके खेतों को हरा-भरा बनाकर उल्लसित उत्साहित करता है। ‘निराला’ जी की इन कविताओं में ‘बादल’ का मानवीकरण साफ-साफ परिलक्षित है। सन् 1920 में रचित इन कविताओं में ‘प्रगतिवाद’ के बीच स्पष्ट रूप से विद्यमान हैं।
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