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निष्पत्ति परीक्षण का अर्थ (Meaning of Achievement Test)
निष्पत्ति परीक्षण के अन्तर्गत बालक के ज्ञान प्राप्ति की उपलब्धि देखी जाती है। शिक्षक अपने शिक्षण के माध्यम से बालक को अधिगम अनुभव करवाता है तथा वह अपने कराये गए शिक्षण के विषय में जानने हेतु बालक का निष्पत्ति परीक्षण करता है। इसके माध्यम से वह यह ज्ञात कर सकता है कि सम्बन्धित विषय को बालक हृदयंगम (ग्रहण) कर लिया कि नहीं। निष्पत्ति परीक्षण अधिगम अनुभव का मापन करता है। जैसा कि लिंडक्विस्ट तथा मनु ने अपने विचारों में निष्पत्ति परीक्षण का अर्थ बताया है- “एक साधारण निष्पत्ति परीक्षण में एक ही फलांक द्वारा निष्पत्ति के किसी दिए हुए क्षेत्र में छात्र के अपेक्षित सूचना का ज्ञान कराये।”
सुपर के अनुसार- “एक निष्पत्ति अथवा दक्षता परीक्षा यह ज्ञात करने के लिए प्रयुक्त की जाती है कि क्या और कितना सीखा”। इस प्रकार निष्पत्ति परीक्षण में मूल्यांकन तथा मापन दोनों विधियों का सहयोग होता है। मापन से यह ज्ञात किया जाता है कि बालक ने कितना अधिगम किया तथा मूल्यांकन यह बतलाता है कि अधिगम किस प्रकार किया गया। अतः सुपर ने निष्पत्ति तथा दक्षता को समान माना है। किसी कार्य में दक्षता प्राप्त करना या निष्पत्ति करना समान मानते हुए उन्होंने अपना ध्यान वर्तमान में क्या हो रहा है, इसी पर दिया। बालक की सफलता-असफलता निष्पत्ति पर आधारित होती है। शिक्षक बालक का निष्पत्ति परीक्षण करते समय उसके स्तर पर ध्यान रखता है। इस परीक्षण में तुलना पर विशेष महत्त्व दिया जाता है। दो छात्रों के मध्य तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। यदि दोनों में से किसी एक छात्र के अधिक तथा दूसरे के कम अंक आये हैं तो इसका महत्त्व नहीं रखा जाता। विशेष तथ्य तो यह होता है कि इतने अंक अधिक कैसे आये ? अतः दोनों में सापेक्षित तुलना की जाती है।
जैसा कि आइकेन ने स्पष्ट किया है कि “निष्पत्ति परीक्षा वह मापन है जिसके द्वारा विद्यालय में तथ्य विद्यालय के बाहर प्राप्त किए हुए ज्ञान को परीक्षणकाल में प्रकृति के अनुसार देखा जाता है। इस प्रकार निष्पत्ति परीक्षा जिसे कुछ विद्वाद साफल्य परीक्षा भी कहते हैं, वह छात्रों के विषय से सम्बन्धित ज्ञान का बोध कराती है।”
शिक्षक द्वारा या अन्यत्र कहीं से बालक ने जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसने कितना और क्या सीखा है ? इसका मापन तथा मूल्यांकन ही निष्पत्ति परीक्षण है। ‘निष्पत्ति’ शब्द का अर्थ जन्म लेना या उदय होना, उपलब्ध होना या किसी वस्तु को उत्पन्न करने से लेते हैं। यहाँ पर बालक के प्राप्त ज्ञान के विषय में उपलब्धि ज्ञात करना होता है कि बालक ने पठित विषय को कहाँ तक ग्रहण किया, यह ज्ञात किया जाता है। अतः बालक की सफलता तथा असफलता को सापेक्षित रूप में देखा जाता है। यहाँ पर निरेपक्ष सफलता सफलता की अपेक्षा नहीं की जा सकती है, क्योंकि कई बार बालक निर्धारित स्तर से कम अंक भी प्राप्त करता है तथा असफल रह जाता है। अतः निष्पत्ति परीक्षण में अंकों की किसी प्रकार की कोई निश्चित सीमा नहीं होती। कई बार ऐसा होता है कि परीक्षा का विषय कठिन होने पर प्रतिभाशाली छात्र भी उसमें असफल रह जाते हैं।
कई विद्वान् निष्पत्ति-परीक्षण को अभियोग्यता से भी संयोजित करते हैं। परम्परागत प्रणाली में निष्पत्ति परीक्षण और अभियोग्यता परीक्षण को समान रूप में प्रस्तुत किया है यों तो अभियोग्यता और निष्पत्ति में भेद किया जाना मुश्किल है किन्तु यदि गहराई से आकलन करें तो इसमें पर्याप्त भेद है। अभियोग्यता में पूर्व कथन के माध्यम से पश्चातवर्ती क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित करती है। जबकि निष्पत्ति परीक्षण में प्रशिक्षण से सम्बद्ध तकनीकी मूल्यांकन किया जाता है। इन दोनों में पीछे के अधिगम अनुभवों की समानता में भी अन्तर पाया जाता है। निष्पत्ति परीक्षण के अन्तर्गत अपेक्षित मानकीकृत अनुभव समूह के प्रभावों का अध्ययन करते हैं तथा अभियोग्यता परीक्षा में दैनिक जीवन में काम आने वाले अनुभवों को प्रमुखता से दर्शाया जाता है।
अतः अभियोग्यता और निष्पत्ति परीक्षण को एक मानना भ्रम ही है। दोनों में पर्याप्त अन्तर है। निष्पत्ति परीक्षण में बालक के प्राप्त ज्ञान को ज्ञात किया जाता है। शिक्षक अपने बालक में देखना चाहता है कि शिक्षण के माध्यम से बालक ने क्या और कितना सीखा या ग्रहण किया ? उसकी उपलब्धि की सूचना प्राप्त करता है। निष्पत्ति परीक्षण से बालक की श्रेणी निर्धारित की जाती है। प्राप्त किए गए ज्ञान का मापन तथा मूल्यांकन किया जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक परीक्षण है। इसमें परीक्षण के लिए विषय वस्तु बालक के स्तर के अनुरूप संकलित की जाती है। विभिन्न परिभाषाओं को पढ़ने से ज्ञात होता है कि निष्पत्ति परीक्षण में सफलता की सापेक्षता होती है। यह तुलना पर बल देता है। इस परीक्षण में यह नहीं देखा जाता कि निर्धारित अंकों से कम या अधिक आये हैं। इसमें यह ज्ञात किया जाता है कि अधिक किस प्रकार आये ? अतः दो छात्रों या अधिक छात्रों के मध्य तुलना की जाती है। इस परीक्षण में यह देखा जाता है कि वर्तमान में बालक कितना ज्ञान रखता है। यह ये नहीं देखता कि उसमें पहले कितना था और आगे कितना होगा।
इसमें प्रमुखतया बालक को विद्यालय में प्रदान किया गया ज्ञान का ही परीक्षण किया जाता है। परीक्षा की दृष्टि से निष्पत्ति परीक्षण बहुपयोगी है। इसमें प्राप्त ज्ञान का मूल्यांकन तथा मापन दोनों ही किए जाते हैं। इसका सर्वमान्य अर्थ यही होगा कि विद्यालय में विद्यार्थी को दिया गया ज्ञान बालक ने किस रूप में और कितना ग्रहण किया है।
इस प्रकार के सापेक्षित ज्ञान का बोध करने के लिए निष्पत्ति परीक्षण विशिष्ट है।
निष्पत्ति-परीक्षण निर्माण के सोपान
किसी भी प्रक्रिया को सम्पूर्ण रूप से पूर्ण करने हेतु उसका नियोजन कर लेना आवश्यक होता है। नियोजन के लिए तत्त्वों का संगठन होना अनिवार्य है। अतः पदों के माध्यम से प्रक्रिया तार्किक रूप में नियोजित की जा सकेगी। अतः पदों की विशेष महत्ता होती है। किसी भी परीक्षण की प्रक्रिया क्रमबद्ध रूप में होनी चाहिए। अतः निष्पत्ति परीक्षण के निम्नलिखित चरण (सोपान) हैं-
1. परीक्षण की योजना बनाना/उद्देश्य निर्धारण- निष्पत्ति परीक्षण करने से पूर्व योजना का निर्माण किया जाता है। इसमें उद्देश्य तथा पाठ्य सामग्री का नियोजन निहित होता है। सर्वप्रथम प्राप्त उद्देश्यों को बालकों के स्तर के अनुरूप निर्धारित करते हैं। निष्पत्ति परीक्षण में समय का भी ध्यान रखा जाता है। इसमें समय सीमा बहुत कम होती है। अत: उद्देश्यों का निश्चय करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि निर्धारित उद्देश्य निर्धारित समय में प्राप्त कर लिए जायेंगे अथवा नहीं। अतः अधिक उद्देश्यों को लेकर नहीं चलना चाहिये। अधिक से अधिक 3-4 उद्देश्यों को ही निश्चित करते हैं। उद्देश्यों का निर्धारण विषय के अनुसार किया जाता है। उद्देश्यों से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि हमें बालक के परीक्षण से किस उद्देश्य को पूरा करना है। उसी के अनुसार परीक्षण को क्रियान्वित करते हैं।
शिक्षण सामग्री- शिक्षण सामग्री में उन सभी तत्त्वों का नियोजन होता है जो परीक्षण में अनिवार्य होते हैं। जैसे कौनसी विधि से परीक्षण करना है? इसमें पाठ्यवस्तु कैसी होगी ? चयनित पाठ्यवस्तु बालक के स्तर के अनुरूप है या नहीं? शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग कब करना है? आदि तथ्यों का पूर्व में ही नियोजन कर लिया जाता है। तत्पश्चात् निष्पत्ति परीक्षण या अन्य किसी भी परीक्षण की क्रियान्विति की जाती है। इसमें पाठ्यवस्तु की महत्ता पर अधिक बल दिया जाता है। योजना निर्माण में महत्त्वपूर्ण नोट्स, प्रश्न पत्र, धर्म-विश्लेषण आदि का भी समुचित नियोजन करते हैं। इस प्रकार पूर्व नियोजन करने से निष्पत्ति परीक्षण करते समय बालक वाँछित परिणाम प्राप्त करवाने में सफल होगा।
2. परीक्षण के पदों का चयन करना- पूर्व में परीक्षण प्रक्रिया का समुचित नियोजन कर लेते हैं। तत्पश्चात् परीक्षण के पदों का चयन करते हैं। यह परीक्षण का प्रथम प्रारूप होता है। इसमें पदों का चयन करते समय पदों की वैधता तथा विश्वसनीयता का ध्यान रखना आवश्यक होता है। परीक्षण के प्रथम चरण में रोचक तथा अधिक पदों का संकलन किया जाता है जिससे बालक की रुचि जागृत हो सके। परीक्षण में पाठ्यवस्तु से सम्बद्ध पूछे जाने वाले प्रश्न सरल तथा स्पष्ट भाषा में लिखने चाहिए ताकि बालक उनका उत्तर आसानी से दे सके और परीक्षण में सफलता संभव हो सके। निष्पत्ति परीक्षा में प्रारम्भिक पदों का स्वरूप प्रायः समान रहना चाहिये। इससे बालक में भ्रामक स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकेगी। यहाँ पर पदों से तात्पर्य प्रश्नों से लगाया जाता है। बालकों को क्रमबद्ध रूप में प्रश्न पूछे जाने चाहिये तथा अंक भी हो सके तो समान ही होने चाहिए। यह शिक्षक को ध्यान में रखना पड़ता है। पदों के उत्तरों में दूसरा पद सहायक न बन सके यह भी ध्यातव्य बिन्दु होता है अन्यथा दूसरे पद का आकर्षण समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार परीक्षण के पदों को सरल से कठिन की ओर ले जाते हुए भाषा स्पष्ट होनी चाहिये।
3. परीक्षण प्रक्रिया का क्रियान्वयन- पूर्व में उद्देश्य निर्धारण तथा स्तरानुसार शिक्षण सामग्री का चयन तथा पदों का चयन कर लेने के पश्चात् प्रक्रिया को क्रियान्वित किया जाता है अर्थात् निष्पत्ति परीक्षण की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी जाती है। परीक्षण में व्यक्तिगत भिन्नता होनी भी अपेक्षित है। यदि सभी प्रतिभाशाली छात्रों पर ही परीक्षण किया जाये तो परीक्षण निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायक नहीं बन सकेगा। छात्रों के समक्ष पद प्रस्तुत करते हैं। यह परीक्षण का प्रथम प्रशासन होता है। पद प्रस्तुत करने पर निरीक्षक का कर्त्तव्य बनता है कि वह निरीक्षण भी करे। इससे छात्रों को अनुक्रिया करने में गति मिलेगी। छात्र जहाँ पर स्थित है वहाँ का वातावरण सौम्य तथा शांत होना चाहिए। अन्यथा बालक की एकाग्रता नहीं बनी रहेगी। इस प्रकार निष्पत्ति परीक्षण में यह प्रथम प्रशासन छात्रों पर प्रशासित किया जाता है। बालक अपने-अपने ढंग से प्रश्नों को करने लगते हैं। शिक्षक यथासमय निरीक्षण तथा उचित निर्देशन भी करे। तभी बालक अनुक्रिया में तत्पर होंगे।
4. फलांकन- फलांकन अति सहज प्रक्रिया में किया जाना अपेक्षित है। शिक्षक छात्रों के उत्तरों की पुष्टि हेतु स्वयं उचित उत्तर पहले से तैयार करके रखे, इससे फ में सरलता होगी। छात्रों के उत्तर को अपने उत्तर से सम्बद्ध करने पर यदि सही उत्तर मिलता है तो प्रत्येक सही उत्तर के लिए एक अंक निर्धारित करना चाहिए। फलांकन में यह देखना अत्यंत कठिन कार्य है कि छात्रों के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा है। कहीं गलत उत्तर का अंक तो नहीं दिया जा रहा है। अतः निष्पक्ष रूप से फलांकन हेतु शिक्षक को कार्बन मशीन, आदि का सहारा लेना चाहिये। इससे परीक्षण की फलांकन क्रिया पूर्णतया वैध होगी।
5. वैधता (विश्वसनीयता)- इसमें छात्रों द्वारा प्रदत्त उत्तर कहाँ तक सही है, यह देखा जाता है। छात्रों ने जो उत्तर दिए हैं उनमें कितने छात्रों ने सही उत्तर दिये और कितने छात्रों ने गलत उत्तर दिए। इसके लिए प्रतिशत गणना को आधार बनाया जाता है। इसमें परीक्षण में प्रयुक्त विषयवस्तु को अवरोही (ऊपर से नीचे) की ओर व्यवस्थित करना चाहिये। जिससे परीक्षण करना सरल हो जायेगा। प्रत्येक बालक को निष्पक्ष स्थान प्रदान किया जायेगा। विषयवस्तु को ऊपर से नीचे के क्रम में व्यवस्थित करने पर प्रतिशतांक निकालने हेतु मध्य में स्थित पदों को ही लेना चाहिये। ऊपर बचे हुए पद तथा नीचे बचे हुए पदों के सही उत्तर देने वाले छात्रों का प्रतिशत निकाल लेना चाहिये। इससे बालकों में विभेदात्मकता की गणना की जानी चाहिये। इस प्रकार सभी वर्गों का शुद्ध मापन तथा मूल्यांकन होगा। उच्च-मध्य-निम्न स्तर पर छात्रों का विभाजन कर देते हैं तथा जो छात्रा निम्न स्तर पर रहता है उसे प्रोत्साहित करते हैं।
6. प्रक्रिया का अन्तिम प्रारूप- विभेदात्मक मूल्यों में उच्च स्तर पर प्रयुक्त किए गए पदों का संकलन करके प्रक्रिया को अन्तिम रूप देना चाहिये। परीक्षण में प्रक्रिया कैसी रही, उसमें क्या सुधार करना है ? यह निरीक्षक को निर्धारित करना होता है। इसके लिए वह एक निर्देश पत्र तैयार करता है। यदि पुनः परीक्षण करना पड़े तो प्रशासन प्रक्रिया का समय निश्चित कर लेना गलत होगा तथा प्रयास के लिए पदों का चयन करना उपयुक्त होगा। इस प्रकार पुनः प्रशासन स्थापित करके पदों को प्रस्तुत करें। पुनः उनकी विश्वसनीयता तथा वैधता हेतु माप करके आँकड़ों के माध्यम से प्रतिशत अंक निर्धारित करें। इस प्रकार सम्पूर्ण परीक्षण (निष्पत्ति परीक्षण) प्रक्रिया को अन्तिम रूप दिया जाता है।
7. व्याख्या- व्याख्या के अन्तर्गत मानकों की गणना की जानी चाहिये तथा छात्रों के प्राप्तांकों के आधार पर उनका श्रेणी विभाजन कर देना चाहिये। व्याख्या में यह स्पष्ट किया जाना चाहिये कि हमने जो परीक्षण विधि प्रस्तुत की वह उत्तम, मध्यम अथवा निम्न कौनसे स्तर की रही ? यदि उत्तम नहीं रही तो पुनः परीक्षण में दूसरी विधि का प्रयोग किया जा सकता है तथा वही विधि अपनाई जानी चाहिए जिससे परीक्षण सरलता से हो सके।
निष्पत्ति परीक्षण के उपर्युक्त सोपान सभी परीक्षण में प्रयुक्त किए जा सकते हैं तथा परीक्षण प्रक्रिया को सरल और प्रभावशाली बनाया जा सकता है। निष्पत्ति परीक्षण में बालक की बौद्धिक, मानसिक तथा ग्रहण करने की शक्ति ज्ञात की जाती है। वैधता, विश्वसनीयता हेतु परीक्षण का मापन और मूल्यांकन किया जाता है। पदों का स्तर, संख्या, समय आदि का परीक्षण में ध्यान रखना अपेक्षित है। निरीक्षण को निर्देश पत्र तैयार करना चाहिए जिससे पुनः परीक्षण` में सहायता मिल सके। अतः बालक की उपलब्धि ज्ञात करने के लिए निष्पत्ति परीक्षण उपयुक्त है।
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