राजनीति विज्ञान / Political Science

बहुलवादी विचारधारा की उत्पत्ति के कारण | बहुलवादी विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्य | राज्य की प्रभुसत्ता पर बहुलवादी आलोचना

बहुलवादी विचारधारा की उत्पत्ति के कारण | बहुलवादी विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्य | राज्य की प्रभुसत्ता पर बहुलवादी आलोचना
बहुलवादी विचारधारा की उत्पत्ति के कारण | बहुलवादी विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्य | राज्य की प्रभुसत्ता पर बहुलवादी आलोचना

सम्प्रभुता के सम्बन्ध में बहुलवादी विचारधारा क्या है? इसकी आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।

बहुलवादी विचारधारा की उत्पत्ति के कारण

(i) राष्ट्रीयता के सिद्धान्त में राज्य को सर्वोत्तम स्थान दिया गया था। हीगल ने राज्य को भगवान का रूप माना तथा व्यक्ति को उसका दास बना दिया। हीगल की इस विचारधारा की प्रतिक्रिया स्वरूप बहुलवादी विचारधारा का अभ्युदय हुआ।

(ii) आधुनिक युग में प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के स्थान पर व्यावसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का उदय हुआ। प्रादेशिक प्रतिनिधित्व को संकीर्णता की उपाधि दी गयी। श्रेणी समाजवादियों ने तथा श्रमिक संघवादियों ने व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की काफी चर्चा की, अस्तु एक के स्थान पर अनेक की विचारधारा का उदय हुआ।

(iii) एकात्मवादी विचारधारा में सारी शक्तियाँ राज्य में केन्द्रित होती हैं, क्योंकि राज्य ही सर्वोच्च प्रभुसत्ता सम्पन्न है। केन्द्रीयकरण की कमजोरियों ने विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति का पोषण किया। बहुसमुदायवादी भी विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखते हैं।

(iv) प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की विचारधारा प्रबल हुई, जिसके अनुसार राष्ट्रवाद को युद्ध एवं अशान्ति का मुख्य कारण माना गया। अस्तु राज्य की प्रभुसत्ता को सीमित करने पर विचार किया गया। अस्तु बहुसमुदायवादियों द्वारा राज्य की प्रभुसत्ता को ही समाप्त करने की धारणा का उदय हुआ।

(v) राज्य का उद्देश्य मानव जीवन को सुखी एवं समृद्धिशाली बनाना बाताया गया है, लेकिन कुछ ही ऐसे संगठन समाज में विद्यमान होते हैं, जो मानव-जीवन को सुखी एवं समृद्धिशाली बनाते हैं। अस्तु बहुसमुदायवादी विचारधारा का उपरोक्त सिद्धान्त के आधार पर उदय हुआ।

बहुलवादी विचारधारा एवं राज्य बहुलवादी राज्य की प्रभुसत्ता के विरोधी है न कि राज्य के इनके मतानुसार राज्य तो बना रहना चाहिए किन्तु उसके पास प्रभुसत्ता नहीं होनी चाहिए। अन्य संगठनों की भाँति राज्य का भी समकक्ष संगठन होना चाहिए। राज्य समुदायों का समुदाय है। प्रो० लॉस्की ने लिखा है “समुदायों के अनेक प्रकारों में से राज्य भी एक है।” मेटलैण्ड के अनुसार “राज्य भी इन्ही समुदायों में से एक समुदाय है।” हेसियों के अनुसार बहुलवादी राज्य एक ऐसा राज्य है, जिसमें सत्ता का केवल एक स्रोत नहीं है, यह विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित है और इसे विभाजित किया ही जाना चाहिए। बहुसमुदायवादी विचारधारा वालों ने राज्य का विश्लेषण ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, कानूनी एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण से किया है। उनके अनुसार इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राचीन काल में राज्य प्रभुसत्तापूर्ण नहीं था। उन पर सामाजिक एवं धार्मिक बन्धन रहते थे। इतिहास यह भी बताता है कि सभी देशों में तथा सभी कालों में कई ऐसे संगठन अपने आप पैदा हुए जो राज्य से स्वतन्त्र थे तथा राज्य की दमन-शक्ति उन्हें नष्ट न कर सकी। परिवार, धर्म, सम्प्रदाय आदि संगठन इसके उदाहरण हैं। कानूनी दृष्टिकोण में प्रकार नागरिक का सम्बन्ध राज्य से है उसी प्रकार नागरिक का सम्बन्ध पारिवारिक, धार्मिक तथा आर्थिक समुदायों से होता है। इस समुदायों के प्रति भी उसकी श्रद्धा-भक्ति, उसके अधिकार व कर्त्तव्य होते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि विभिन्न समुदायों का अपना-अपना अस्तित्व होता है। इस अस्तित्व के विकास के लिए स्वन्त्रता मिलनी चाहिए। राज्य इस स्वतन्त्रता में बाधक है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से आजकल यह देखने में आता है कि कानून बनाने वाली विधान सभा के सदस्यों के हित या दृष्टिकोण की सभी बातों में समान नहीं होते हैं, विविध समुदायों से सम्बन्धित विषयों में इनकी अलग-अलग विचारधाराएँ होती हैं। तात्पर्य यह कि विभिन्न संस्थाओं को अपने-अपने क्षेत्र में कानून बनाने की शक्ति उनके पास होना चाहिए। प्रोफेसर लॉस्की के अनुसार समाज का संगठन संघ प्रणाली के अनुसार होना चाहिए। गेटिल ने लिखा है “बहुलवादी इस बात को मान्यता नहीं देते कि राज्य एक सर्वोच्च समुदाय है। वे अन्य को भी इसी आधार पर आवश्यक एवं प्राकृतिक स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार सभी समुदाय वैसे ही महत्वपूर्ण है जैसे कि राज्य। डॉ. आशीर्वादम् के अनुसार “बहुसमुदायवादी विचारधारा के अनुसार समाज में अनेक संघ होते हैं, जिनकी क्षमता और अधिकार सीमित होते हैं। राज्य ऐसे संघों में से केवल एक संघ हैं इससे अधिक और कुछ नहीं।”

बहुलवादी विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्य

इस विचारधारा वालों ने राज्य के केवल दो प्रकार के कार्य बताये हैं-

1. विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा, आन्तरिक शान्ति स्थापित करना अर्थात् समाज के बने हुए चोर, बदमाश आदि से इन समुदायों की रक्षा करना तथा न्याय प्रबंध करना। इन कार्यों में भी राज्य अन्य समुदायों के समकक्ष होगा न कि उच्च।

2. राज्य विभिन्न समुदायों के विवादों को तय करेगा तथा उनमें सामञ्जस्य स्थापित करेगा। लॉस्की राज्य को समन्वय (सामञ्जस्य) वाले कार्य के साथ-साथ राष्ट्रीय उद्योगों के संचालन तथा व्यवस्था का कार्य भी सौंपता है। बहुसमुदायी विचारधारा के अनुसार समाज व राज्य में भेद है। समाज एक व्यापक इकाई है जिसमें अनेक समुदाय हैं। राज्य उनमें से एक है।”

राज्य की प्रभुसत्ता पर बहुलवादी आलोचना

बहुलवादी राज्य की प्रभुसत्ता का घोर विरोध करते हैं। संक्षेप में निम्न तत्व प्रस्तुत किये जाते हैं।

1. प्रभुसत्ता असीमित नहीं होती है- राज्य की प्रभुसत्ता के समर्थक प्रभुसत्ता को असीमित मानते हैं। लेकिन ऐसा नहीं होता है, क्योंकि असीमित प्रभुसत्ताधारी, तानाशाह बन जायेगा तथा जनता उसके सामने निरूपाय रह जायेगी। बहुलवादियों के अनुसार प्रभुसत्ता निरंकुश नहीं होती है, वह राज्य के भीतर सामाजिक रीति-रिवाजों, प्रथाओं से बँदी होती है। मनुष्य के अन्य समुदाय इसकी सीमाएँ निर्धारित करते हैं। बाह्य क्षेत्र में वह अन्तर्राष्ट्रीय कानून संघियों से मर्यादित होती है।

2. ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी राज्य की प्रभुसत्ता का सिद्धान्त गलत है- बहुसमुदायवादी विचारकों का कथन है कि इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राचीन युग में व मध्यकालीन युग में राज्य कभी भी पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न नहीं थे। उन पर सामाजिक, धार्मिक, परम्परागत तथा प्रथागत प्रतिबन्ध थे। ये संगठन राज्य पर अनेक प्रकार के अंकुश रखते थे। राज्य अपनी प्रभुसत्ता का कभी भी मनमाना उपयोग नहीं कर पाता था। ये संगठन राज्य में लागू होने वाले कानूनों को भी काफी हद तक प्रभावित करते थे। कानून के ऊपर न होकर कानून अधीन माना जाता था। अतः जब पहले राज्य प्रभुसत्ता-विहीन थे तो आज भी राज्य को प्रभुसत्ता विहीन होना चाहिए।

3. समाज के संगठन एकात्मक न होकर संघात्मक होते हैं- प्रो. लॉस्की ने ठीक ही लिखा है “Society should be federally organised” समाज का संगठन संघ प्रणाली के अनुसार होना चाहिए। उसने आगे लिखा है। “If Society is federal so authority must also be federal” इस प्रकार समाज का संगठन एकात्मक न होकर संघात्मक है। एक राज्य में रहने वाले नागरिक केवल राज्य के ही नागरिक नहीं है, वरन् परिवार, चर्च आदि धार्मिक सम्प्रदाय, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संगठनों के भी सदस्य होते हैं तथा उनसे उनकी भक्ति उतनी ही होती हैं जितनी राज्य में।

4. राज्य की प्रभुसत्ता का सिद्धान्त खण्डित हो चुका है- प्रो. लिंडसे “If we look at the facts it is clear enough that the theory of sovereign state has broken down” अर्थात् हम वास्तविक तथ्यों पर विचार करें तो स्पष्ट हो जायेगा कि राज्य की प्रभुसत्ता का सिद्धान्त खण्डित हो चुका है। इस विचारधारा के अनुसार समाज के अन्य संगठन राज्य के अधीन न होकर उसके समकक्ष होते हैं। राज्य एक समुदाय मात्र हैं। विभिन्न समुदायों के सम्बन्ध आपस में संयोग के होने चाहिए, आलोचना के नहीं।

5. अन्य न तो राज्य की ऋणी हैं न राज्य से निम्न है- इस विचारधारा वालों का तर्क है कि राज्य की उच्चतर स्थिति पर राज्य की प्रभुसत्ता को तभी माना जा सकता है जब अन्य संस्थाएँ अपने जन्म के लिए राज्य की ऋणी हों या राज्य का कार्य अन्य संस्था से अधिक ऊँचा व महत्वपूर्ण हो लेकिन ऐसी बात नहीं है। बहुत-सी संस्थाएँ राज्य से पहले की हैं। कुछ संस्थाएँ ऐसी भी हैं जो राज्य का विरोध करने पर भी जीवित हैं। अन्य संस्थाओं के कार्य भी संसार की प्रगति करने में आगे रहे हैं। अतएव जन्म व कार्यों के आधार पर राज्य संस्थाओं से ऊँचा होने का दावा नहीं कर सकता है। उनका मत है कि राज्य की प्रभुसत्ता का अन्त हो जाना चाहिए और उसे विभिन्न संस्थाओं में बाँट देना चाहिए।

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Anjali Yadav

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