बिहारी सतसई की लोकप्रियता पर प्रकाश डालिए।
किसी कवि की श्रेष्ठता की अन्तिम कसौटी उसके कृतित्व का परिणाम नहीं, गुण ही है- इस तथ्य को हिन्दी साहित्य में यदि किसी कवि ने सबसे अधिक विश्वास के साथ स्थापित किया तो महाकवि बिहारी लाल ने। केवल सात सौ से कुछ अधिक दोहे लिखकर बिहारी ने जो यश और सम्मान प्राप्त किया, वह बहुतेरे चौदह हजार पंक्तियों के सृष्टाओं के लिए भी दुलर्भ हैं। लोकप्रियता की दृष्टि से तो बिहारी की ‘सतसई’ एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानती है और वह है ‘रामचरितमानस’। हिन्दी में इन दो ग्रन्थों का जितना अधिक प्रचार हुआ और इन पर जितनी टीकाएँ लिखी गयी शायद किसी अन्य काव्य ग्रन्थ पर नहीं।
बिहारी की एक मात्र रचना ‘सतसई’ है, जिसमें सात सौ से कुछ अधिक दोहे और सोरठे हैं। लेकिन इतने ही दोहे बिहारी का काव्योत्कर्ष प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है और इनके बल पर बिहारी की गणना हिन्दी के शीर्षस्थ कवियों में की जाती है।
बिहारी ने अपनी रचना में पुर्णतया नागर मनोवृत्ति का परिचय दिया है। तत्कालीन नागर जनों के लिए सौन्दर्य अपने आप में उतना मनोज्ञ नहीं समझा जाता था। उनकी मनोज्ञता के लिए अलंकरण प्रायः वस्त्रों के चटकीलापन, अलंकारों के बहुत प्रयोग औश्र प्रसाधनाधिक्य के रूप में देखने को मिलता है। बिहारी की नायिका की ऐसी स्थिति है कि-
अंग-अंग नंग जगमगत दीपसिखा सी देह।
दिया बढ़ार हू रहे, बड़ो उतारौ गेह॥
इसके विपरीत लोकजीवन की नैसर्गिक सुषमा की ओर या तो कवि की दृष्टि जाती ही नहीं और जाती भी है तो ग्रामवधू के ‘ललचौहे नैन’ और ‘उठौहें कुच’ से ही टकराकर रह जाती है। गँवई गाँव के भोले जनों का उपहास करते बिहारी नहीं अधाते। यह उनकी तथाकथित अभिजात और नागर रूचि का ही द्योतक है। बिहारी के संयोग वियोग वर्णन में भी उनकी दरबारी मनोवृत्ति की झलक देखने को मिलती है। बिहारी के संयोग चित्रों में मानसिक विशदता और उत्फुलता उतनी ही नहीं मिलती, जितना नायिका की विभिन्न शारीरिक चेष्टाओं का मनोरम अंकन मिलता है। बल्कि कहना चाहिए कि इन चेष्टाओं के अंकन में, जिसे शास्त्रीय शब्दावली में ‘अनुभाव योजना’ कहते हैं, बिहारी अपना सानी नहीं रखते। रीतियुग के तो वे निःसन्देह सबसे बड़े शब्दचित्रकार हैं। उनकी बनायी तस्वीरें बड़ी साफ हैं, जिनमें नायिका की भिन्न-भिन्न भंगिमाओं, उसके अंगों के बांकपन और उठान उसकी एक-एक अदा औ खूबी को देखा जा सकता है। कुछ उदाहरण देखिए-
कर समेटि कच भुज उलटि खएँ सीस पट डारि।
काकौ मन बांधै न यह जूरौ बाँन हारि।
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाए।
सहि करैं भहिनि हँसे देन कहै नटि जाए।
नासा मोरि मचाई दृग करी कका को सहि
कांटे सी कसके हिए गड़ी कँटीली भहि ।
अहै दहेड़ी जिननि धरै जिनि तूं लेहि उतारि
नीकै है द्योकै छुवै ऐसे ही रहि नारि ॥
प्रत्येक दोहा अपने आप में एक पूरी तस्वीर है। बिहारी ने दोहे जेसे छोटे छन्द का प्रयोग करके भी चित्र में कहीं धमिलता नहीं रहने दी है। इतनी कम रेखाओं में ऐसी साफ तस्वीर खींच देना किसी कुशल चित्रकार के लिए भी कठिन होता। लेकिन यही बिहारी जब विरह वर्णन के क्षेत्र में उतरते हैं औश्र वियोगिनी की मानसिक दशाओं की विवृत्ति के थन पर विरह के कारण उसके व्यक्तित्व में होने वाले वाह्य परिवर्तनों उत्तप्तता, शीररिक कृशता आदि का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने लगते हैं तो उनकी उक्तियाँ विरहिणी के प्रति पाठक की सहानुभति तो नहीं उकसा पाती, उलटे इस प्रत्यन में स्वयं हास्यास्पद बन जाती है। यथा-
अधिाई सीसी सुलखि, बिरह बरन बिलगात।
बीचहिं सखि गुलाब गौ, छीटौं हुई न गात।
आड़ै दै आले बसन, जाड़े हूँ की राति।
साहस करै सनेह बस सखी सबै ढिंग जाति ॥
बिहारी के काव्य की दूसरी उपलब्धि है अलंकारों का निपुण प्रयोग। अलंकारों का सटीक और चुस्त प्रयोग करके उनके दोहों में दीख पड़ता है, उदाहरण के लिए ‘असंगति’ अलंकार का यह बेजोड़ उदाहरण देखिए-
द्वग अरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परत गाँठ दुरजन हिए, दई नई यह रीति ॥
बिहारी का शायद ही कोई ऐसा होदा हो, जिसमें किसी न किसी अलंकार का भास्वर प्रयोग न मिले। कहीं-कहीं तो एक साथ पाँच-छः अलंकार लिपटे हुए दीख पड़ेंगे जैसे निम्नलिखित दोहे में हमें एक ही जगह वृत्यानुप्रास, छेकानुप्रास, उपमा, तद्गुण, परिकर, देहली दीपक आदि अलंकार संश्लिष्ट दीख पड़ते हैं-
हौं रीझी लखि रीझिहौं, छबिहि छबीले लाल।
सोनजुही सौ होत दुति, मिलत मालती माल ॥
बहुत बड़ी बात को थोड़े से शब्दों में चमत्कारपूर्ण ढंग से कह देना, एक बड़े प्रसंग को दोहे की सीमित काया में अंटाकर अलंकारों की लड़ी पिरो देना बिहारी का प्रमुख कौशल है। बिहारी की इसी उपलब्धि की प्रशंसा करते हुए आचार्य शुक्ल ने कहा- “मुक्तक कविता ने में जो गुण होना चाहिए, वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई सन्देह नहीं। मुक्तक में प्रबल के समान रस की धारा नहीं बहती, जिसमें कथा प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है। जिनसे हृदय कलिका थोड़ी देर के लिए लिख उठती है।” इसी क्रम में आगे चलकर शुक्ल जी ने मुक्तक की सफलता के लिए लिये दो शर्तें रखी हैं- ‘कल्पना की समाहारशक्ति और भाषा की समासशक्ति।” बिहारी रमणीय प्रसंगों की उद्भावना और संयोजन में जितने पद हैं, भाषा के चुस्त प्रयोग में भी उतने ही सुदक्ष है। इसीलिए वे दोहे की छोटी सी जमीन पर इतने करिश्मै दिखा सके हैं, जैसे नट कूदकर छोटी सी कुण्डली से शीघ्रता से निकल जाता है।
बिहारी ने श्रृंगार के अतिरिक्त भक्ति और नीति के दोहे भी लिखे है। लेकिन रीतिकाल के अधिकांश कवियों की भाँति बिहारी की भक्ति भी औपचारिक हैं और शायद कवि के आत्मप्रबोध का एक बहाना भी। विहारी ने जहाँ अपने आराध्य का स्मरण किया हैं, वहाँ भी उनकी रसिकता, चमत्कारप्रियता और अलंकरण वृत्ति साथ लगी हुई है।
बिहारी की भाषा ब्रजभाषा है। बिहारी के समय तक ब्रजभाषा साहित्य की भाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी और सूर, तुलसी, नन्ददास, रसखान जैसे कवियों द्वारा उसका पर्याप्त परिमार्जन भी हो चुका था। बिहारी ने इस परिमार्जन का लाभ उठाया और उसके माधुर्य एवं ध्वन्यात्मकता आदि को और विकसित किया। शब्द और वर्ण उनके दाहों में नगों के समान जड़े हैं और रत्नों की आभा बिखेरते हैं। उनकी भाषा लय और गति, संगीत और नर्तन की विशेषताओं से युक्त है। उनकी भाषा प्रांजल, प्रौढ़ और सरस है।
इस प्रकार कवि के रूप में बिहारी, साहित्य के गौरव और उनकी ‘सतसई’ काव्य की अपूर्व निधि है।
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