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मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना की विवेचना कीजिए।
साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब होता है। कोई भी साहित्यिक कृति अपने युग की परंपराओं से प्रभावित होती है। अपने देश काल की विचारधारा संस्कृति और साहित्यिक चेतनाओं का समन्वय राष्ट्रीयता को प्रतिबिम्बित करता है-
गुप्तजी की राष्ट्रीयता के गुण
गुप्तजी की राष्ट्रीयता की निम्न विशेषताएँ हैं-
1. गुप्तजी ने भारत के प्राचीन गौरव पर अभिमान करके उसके द्वारा भारतीयों को सचेत किया- गुप्तजी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को श्रेष्ठ और युग-प्रेरक मानते हैं, अतः वे आर्यों के आदर्श का विवरण देते हुए नहीं थकते। निम्न प्रसंग देखिए-
यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है, इसके निवासी आर्य हैं।
विद्या, कला, कौशल सभी के, जो प्रथम आचार्य हैं।
उनका विचार है कि सभ्यता पूर्व से ही पश्चिम को गयी-
है आज पश्चिम में प्रभा जो, पूर्व से ही है गयी।
2. गुप्तजी के काव्यों का प्रत्येक पात्र देश- प्रेम की भावनाओं से युक्त है साकेत के राम, सिद्धराज का जयसिंह, अनघ के बुद्ध, रंग में भंग का कुम्भ आदि पात्र विशेष रूप से राष्ट्रीय भावना से युक्त हैं। गुप्तजी राष्ट्रीयता के उत्थान के लिए भारतीयों का उद्बोधन करते हुए नहीं थकते निम्न प्रसंग में चारों वर्णों के लिए उद्बोधन द्रष्टव्य है-
हे ब्राह्मणों!……. सुयश की कालिमा को मेट दो।
3. गुप्तजी सांस्कृतिक सुधारों को राष्ट्रीय विकास की पृष्ठभूमि मानते हैं- भौतिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति का होना भी आवश्यक है। वे परस्पर में संगठन के लिए त्याग, दया, सहिष्णुता आदि को प्रमुखता देते हैं। उनका ‘अनघ’, ‘न तन सेवा न मन सेवा, मुझे है इष्ट जन सेवा का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
4. मनुष्य को अधिकार प्राप्त करने के लिए कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए- अधिकार खोकर बैठे रहना मनुष्य के लिए पाप है। वे ‘जयद्रथ वध’ में कहते हैं-
अधिकार खोकर बैठे रहना,……. दण्ड देना धर्म है।
गुप्तजी मर्यादा के समर्थक हैं। वे कर्त्तव्य के मार्ग में प्रेम को बाधा रूप में उपस्थित नहीं करते। गुप्तजी के पात्र कर्त्तव्य के प्रति सदैव ही जागरूक दिखायी पड़ते हैं। उनमें से कोई भी प्रतिक्रियावादी या स्वप्न देखने वाला नहीं है।
गुप्तजी के काव्य में सामाजिक चेतना- गुप्तजी के काव्य में जहाँ एक ओर स्वाधीनता आन्दोलन अपने पूरे जोर पर था, वहीं ब्रह्म समाज, आर्य समाज, विवेकानन्द, रामतीर्थ द्वारा जगायी चेतना भी उभर रही थी। परिणामतः भारत के विघटित, सुप्त, रूढ़िग्रस्त समाज को नव चेतना से मण्डित करके सामाजिक उन्नति का स्वर गुप्त जी ने प्रसारित किया। सबसे बड़ी समस्या सामाजिक विषमता की थी, उसके मिटाये बिना सम्पूर्ण समाज एकात्म भाव के अनुभव के अभाव में पंगु सा दीखता था। अतः गुप्त जी ने पतित, दलित, निम्न वर्ग की प्रतिष्ठा अनुभव की-
उत्पन्न हो तुम प्रभु पदों से जो सभी को ध्येय हैं।
तुम हो सहोदर सुरसरी के चरित जिसके गेय हैं।।
उन्होंने कबीर, रैदास की चर्चा करते हुए निम्न वर्ग को भी उठाने की प्रेरणा दी-
पूत कर्म का मातृ भूमि के बनो विशेष सपूत,
छूत बुरी है, अहोभाग्य है- यदि हम छुआ अछूत।
राजनीतिक चेतना- साकेत के सृजन काल की राजनीतिक चेतना पर जब हम दृष्टि डालते हैं, तो हम पाते हैं कि साकेत का सृजन गाँधी युग में हुआ था। गाँधी जी युग पुरुष थे, उन्होंने युग की सम्पूर्ण चेतनाओं को प्रभावित किया है। गाँधी जी के सिद्धान्त एवं आदर्श प्रत्येक भारतीय के मन प्राण को आन्दोलित एवं अनुप्रणित कर रहे थे। सन् 1931 में साकेत प्रकाशित हुआ था, इसी समय गांधी जी का सविनय अवज्ञा आन्दोलन भी चल रहा था, यद्यपि आज गाँधी जी के सिद्धान्त, राजनीति सब कुछ समाप्त हो चुके हैं, पर साकेत उसी युग के रंग में रंगी कृति है। गाँधीवाद सत्य और अहिंसा पर आधारित हैं, गाँधी जी की मान्यता जन सेवा में थी, वे अछूतों और दीन हीनों के प्रति करुणार्द्र थे, दयालुता और सहानुभूति उनके दर्शन के प्रमुख अंग थे।
गुप्तजी ने देशभक्ति की भावना को धार्मिकता और विश्वबन्धुत्व की भावना से समन्वित कर दिया है, डॉ. कमलकान्त पाठक ने उचित ही लिखा है- “देशभक्ति को धार्मिक रूप देना और उसे विश्व बन्धुता से समन्वित कर देना अथवा मानवता का नैतिक आदर्श उपस्थित करना गाँधी से अप्रभावित वस्तु नहीं है।”
दूसरी राजनैतिक चेतना यह थी, कि साकेत का सृजन काल परतंत्रता का युग था और आज हम स्वतंत्रता की रजत जयन्ती भी मना चुके हैं, अर्थात् आज साकेत सृजन का युग पूर्णतया ‘आउट आफ डेट’ हो चुका है।
साहित्यिक चेतना- साहित्यिक चेतना की दृष्टि से जब हम साकेत का अध्ययन करते हैं तो हम पाते हैं कि साकेत सृजन काल छायावाद का युग था, गीत और प्रगीत लिखने की पद्धति प्रारम्भ हो चुकी थी। गुप्तजी इस युगीन चेतना से प्रभावित हुए हैं, और एक प्रबन्ध काव्य में भी विशेष रूप से नवम सर्ग में उन्होंने गीतों की भरमार कर दी है। कुछ गीत बहुत सुन्दर बने हैं जैसे-
1. वेदने तू भी भली बनी, 2. दोनों और प्रेम पलता है, 3. दरसो परसो घन, बरसो, 4. सखि, निरख नदी की धारा ।
दूसरी विशेषता यह थी कि उस युग में भी कविगण काव्य में अलंकारों, छन्दों और शक्तियों के प्रयोग को उचित और आवश्यक मानते थे। गुप्तजी ने अपनी कविता कामिनी को कला-पक्ष से सुसज्जित किया है। अलंकारों की दृष्टि से साकेत एक सफल काव्य है। डॉ. नगेन्द्र ने उचित ही कहा है- “साकेत में गुप्त जी के कवि जीवन का पूर्ण वैभव मिलता है। अतः उसका कलेवर अलंकृत है- उसका काव्य श्री मंडित, उसमें शकुन्तला का वन्य सौन्दर्य नहीं, उर्वशी का नागरिक विलास है। यहाँ उनकी प्रतिभा ने कविता को नई-नई शृंगार सामग्री से चित्र विचित्र सजाया है। इसीलिए अतिशय भावपूर्ण स्थलों को छोड़ अन्यत्र यह आशय ही निवारण मिले।”
डॉ. गोविन्द राम शर्मा ने भी हिन्दी के आधुनिक महाकाव्य में लिखा है- “साकेतकार ने अपनी रचना के कलापक्ष को अलंकारों की समुचित योजना से समृद्ध किया है।”
धार्मिक चेतना- गुप्तजी के युग में जो धार्मिक चेतना थी, वह आज लुप्त हो रही है। आज के जीवन में धर्म केवल प्रदर्शन का विषय रह गया है, नीति की बात करना अभिशाप है, साकेत रामकाव्य धारा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। गुप्तजी रामभक्त थे और परम वैष्णव थे, इसी कारण उनके काव्य में जो सहजता है वह हमें अन्यत्र दुर्लभ है, आज के युग में वह धार्मिक चेतना नहीं है जो अवतारवाद पर विश्वास कर सके, गुप्त जी राम के जन्म को राम का अवतार मानते हैं-
“हो गोया निर्गुण सगुण साकार है,
ले लिया अखिलेश ने अवतार है।”
प्रभु के अवतार का उद्देश्य भी सुनिश्चित है-
पथ दिखाने के लिए संसार को। दूर करने के लिए भू भार को।
सफल करने के लिए जन-दृष्टियाँ, क्यों न करता वह स्वयं निज सृष्टियाँ?”
उपर्युक्त पंक्तियाँ गीता की ‘परित्राणाय साधूनाम्’ तथा ‘रामचरितमानस’ की ‘हरहिं सदा सज्जन भव पीरा’ का ही अनुभव मात्र है। इस प्रकार की धार्मिक चेतना और धर्म विशेष में आस्था आज समाप्त हो चुकी है।
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