राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 की रूपरेखा का शिक्षा शास्त्रीय आधार की विस्तार से व्याख्या कीजिये।
पाठ्यचर्या की रूपरेखा का शिक्षाशास्त्रीय आधार
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 पर आधारित यह नवीन पाठ्यक्रम ‘शिक्षा’ के बारे में एक विशिष्ट दृष्टिकोण पर आधारित है। इसके अनुसार ‘शिक्षा का मतलब के स्कूली शिक्षार्थियों को इतना सक्षम बना देना है कि वे अपने जीवन का जिंदा होने का सही-सही अर्थ समझ सकें। अपनी समस्त योग्यताओं का समुचित विकास कर सकें। अपने जीवन का मकसद तय कर सके और उसे प्राप्त करने हेतु यथासंभव सार्थक एवं प्रभावी प्रयास कर सकें। साथ ही इस बात को भी समझ सके कि समाज के दूसरे व्यक्ति को भी ऐसा ही करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।” यह संपूर्ण पाठ्यक्रम जिन महत्वपूर्ण शिक्षा शास्त्रीय मान्यताओं पर आधारित हैं उन्हें बिंदुवार नीचे दिया जा रहा है-
(i) विभिन्न सांस्कृतिक एवं सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमियों से आए शिक्षार्थियों में जिनकी संख्या आज स्कूलों में ज्यादा है समानता की अवधारणा को पुख्ता करना।
(ii) प्रतिस्पर्द्धा पर केंद्रित जीवन मूल्यों से बाहर निकाल कर शांति, सहिष्णुता एवं मानवता आधारित मूल्यों के विकास पर बल।
(iii) स्वयं को दूसरे के माध्यम अनुभव करने पर बल ।
(iv) कोई भी व्यक्ति बिल्कुल स्वतंत्र नहीं होता, बल्कि दूसरे व्यक्ति के जीवन पर उसकी परस्पर निर्भरता रहती है। इस बात को शिक्षार्थियों के जेहन में उतारना ।
(v) सूचना ही ज्ञान नहीं है। ज्ञान, सूचना से बड़ी अवधारणा है। ज्ञान कोई तैयार माल नहीं होता है, बल्कि सदैव निर्मित होता रहता है।
(vi) शिक्षार्थी ज्ञान के ग्रहणकर्ता मात्र नहीं है, बल्कि ज्ञान के निर्माण करने की भी उनमें अद्भुत क्षमता है।
(vii) पाठ्यपुस्तक ही सीखने का साधन एवं परीक्षा के आधार हैं, यह बात सही नहीं है। शिक्षार्थियों के अपने पूर्व के अनुभव एवं सामग्री ज्ञान के सृजन में प्रमुख भूमिका अदा करती हैं।
(viii) शिक्षार्थियों को ‘सिखाने’ के बदले उनमें स्वतंत्र रूप से ‘सीखने’ की प्रवृत्ति विकसित करना श्रेयस्कर है।
(ix) शिक्षक ज्ञान बांटने वाला व्यक्ति नहीं बल्कि शिक्षार्थियों द्वारा ज्ञान के सृजन में एक सहायक व्यक्ति मात्र है।
(x) शिक्षार्थियों द्वारा रटने से अधिक समझने पर बल ।
(xi) शिक्षार्थियों में अवलोकन, विश्लेषण, तर्कपूर्ण चुनाव, नवाचार, कल्पनाशक्ति, सृजनशीलता, समस्या समाधान की प्रवृत्ति, निर्णय लेने की क्षमता आदि का विकास करना, न कि कुछ सूचनाओं का हस्तांतरण।
(xii) ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ना।
(xiii) परीक्षा को अपेक्षाकृत अधिक लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना ।
(xiv) शिक्षार्थियों में आत्मसात एवं नैतिकता का विकास।
(xv) ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा मूर्त्त से अमूर्त्त की ओर एवं स्थानीय से वैश्विक की ओर।
(xvi) उत्पादक कार्य-शिक्षण का माध्यम
(xvii) इसके अंतर्गत कक्षा-ज्ञान को जी-अनुभव से जोड़ना। इससे हाशिए के समाज के शिक्षार्थियों को, जिनमें काम से जुड़े कौशल का ज्ञान होता है, को शिक्षार्थियों से सम्मान मिल सकेगा।
(xviii) पर्यावरण के प्रति शिक्षार्थियों में संवेदनशीलता बढ़ाना।
(xix) अशांत प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण मानव संबंधों में तनाव लाता है, जिससे असहिष्णुता व संघर्ष पैदा होता है। शांति की संस्कृति का निर्माण करना शिक्षा का निर्विवाद उद्देश्य है। शिक्षार्थी शांति को जीवन-शैली के रूप में चुन सके। संघर्ष को सुलझाने की क्षमता रखे न कि उसका एक मूक दर्शक बने।
(xx) एकीकृत पाठ्यक्रम-इसमें सहायक होगा।
(xxi) प्राथमिक कक्षाओं में मातृभाषा/बोली में सीखने पर बल ।
(xxii) पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम लचीला-विद्यार्थी एवं विद्यार्थी समूहों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुकूल ।
(xxiii) सीखना-पैटर्न को समझने की प्रक्रिया है।
(xxiv) सीखना-निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया है।
(xxv) अर्थ निर्माण-व्यक्तिगत एवं सामाजिक तौर दोनों पर संभव है।
(xxvi) एक ही तरह के प्रश्न पूछने एवं उत्तर देने के बजाय शिक्षार्थियों को अपने शब्दों में जवाब देने एवं अपने अनुभव को बताने के लिए प्रोत्साहित करना।
(xxvii) ‘बुद्धिमान अनुमान’ लगाने तथा प्रश्न पूछने के लिए शिक्षार्थियों को प्रोत्साहित करना ।
(xxviii) शिक्षार्थी जो जानते हैं और जो लगभग जानते हैं उसके बीच के क्षेत्र में नए ज्ञान का सृजन होता है।
(xxix) ऐसा ज्ञान, कौशल का रूप लेता है जो स्कूल के बाहर घर अथवा समुदाय में परिष्कृत होता है।
(xxx) पढ़ाई में पूछताछ, अन्वेषण, प्रश्न पूछना, वाद-विवाद, व्यावहारिक प्रयोग व चिंतन जिससे सिद्धांत बन सके और विचार स्थितियों की रचना हो सके पर बल ।
(xxxi) सीखने के लिए घूमना, खोजना, अकेले काम करना या अपने दोस्तों या वयस्कों के साथ काम करना, भाषा पढ़ना, अभिव्यक्त करना, पूछने और सुनने के लिए प्रयोग करना आदि कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण क्रियाएं हैं, जिनमें अधिगम होता है।
(xxxii) शिक्षक ‘ज्ञान’ हस्तांतरित करने वाला व्यक्ति नहीं, बल्कि एक सहकर्त्ता है जो विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति के लिए और ज्ञान के सृजन के क्रम में व्याख्या और विश्लेषण के लिए प्रोत्साहित करें।
(xxxiii) अधिगम प्रतिफल की तुलना में अधिगम उद्देश्यों पर बल ।
(xxxiv) मूल्यांकन में सूचना के साथ-साथ अवधारणा के विकास एवं उसकी प्रक्रिया के मूल्यांकन पर बल।
(xxxv) कक्षा का समावेशी स्वरूप।
(xxxvi) स्व-मूल्यांकन।
(xxxvii) पाठ योजना, गतिविधि आदि में पर्याप्त लचीलापन हो। हर शिक्षार्थी के हिसाब से उपयोगी हो।
(xxxviii) ‘निदान’ वाली कक्षाएं सिर्फ दोहराने दाली कक्षा न हो बल्कि शिक्षार्थियों के हिसाब से सोचने-विचारने वाली कक्षा हो।
(xxxix) विवादास्पंद मुद्दों से बचने के बजाय उस पर बहस एवं चर्चा कर सही निर्णय तक पहुंचने का प्रयास।
(xxxx) शिक्षार्थियों के सामने ‘द्वंद्व’ की स्थिति पैदा कर उन्हें द्वंद्व से निबटने के लिए तैयार करना।
(xxxxi) वर्तमान पाठ्यक्रम थीम पर आधारित है।
(xxxxii) उक्त मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए हमें अपने कक्षा के स्वरूप को बनाना होगा तथा बच्चे एवं किशोर/किशोरियों के जीवन अनुभव को कक्षा के भीतर भी सम्मान देना होगा। नई शिक्षा की दृष्टि यह अपेक्षा करती है कि हम शिक्षा के माहौल का इस तरह पुनः निर्माण करें कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और बढ़ोत्तरी में हमारी नई पीढ़ी अपना सार्थक योगदान दे सके। मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता इस पाठ्यक्रम का केंद्रबिंदु है-इसे ध्यान में रखना चाहिए।
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