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लागत को परिभाषित कीजिए। लागत के विभिन्न सिद्धान्त बताइए।
लागत (Cost)– “लागत व्यय (वास्तविक अथवा वैचारिक) की वह राशि हैं जो कि एक दी हुई वस्तु पर किया गया हो, अथवा आरोप्य हो ।” -आई. सी. एम. ए.
उपर्युक्त आई. सी. एम. ए. की परिभाषा के अनुसार लागत में निम्नलिखित व्यय सम्मिलित होते हैं—(अ) एक दी हुई वस्तु पर किया गया वास्तविक व्यय, तथा (ब) एक दी हुई वस्तु पर आरोप्य (Attributable) व वैचारिक (National) व्यय ।
उपर्युक्त (ब) के सम्बन्ध में, वैचारिक व्यय वह है जो कि किया गया माना जाता है। उदाहरण के लिए, (i) स्वामित्वयुक्त कारखाना भवन का किराया, जहाँ कि किराया वास्तव में अदा नहीं किया जाता है, परन्तु किराये पर चल रहे कारखानों की उत्पादन लागत से तुलना करने के उद्देश्य से यह किराया लागत में शामिल किया जाता है; (ii) स्वयं की पूँजी पर ब्याज, जहाँ कि व्याज वास्तव में अदा नहीं किया जाता परन्तु नीति स्वरूप ब्याज को लागत में सम्मिलित किया जाता है।
डब्ल्यू. एम. हार्पर ने ‘Cost Accountancy’ नामक पुस्तक में परिव्यय की निम्नलिखित परिभाषा दी है- “परिव्ययकृत किसी वस्तु पर काम करने अथवा उसका उत्पादन करने के फलस्वरूप प्रयुक्त आर्थिक साधनों के मूल्य को लागत कहते हैं।” हार्पर की परिभाषा और आई. सी. एम. ए. की परिभाषा में अन्तर है। हार्पर का कहना यह है कि “यदि क्रय करते समय एक वस्तु का बाजार मूल्य 5 पौण्ड था और उत्पादन कार्य में उपयोग करते समय यदि उसका बाजार मूल्य 7 पौण्ड हो गया तो निश्चित तौर पर उसकी लागत 7 पौण्ड मानी जानी चाहिए चूँकि यह प्रयुक्त वस्तु का मूल्य है।”
आई. सी. एम. ए. की परिभाषा के अनुसार, “एक दी हुई वस्तु पर किया गया वास्तविक व्यय” उपर्युक्त उदाहरण में 5 पौण्ड है जबकि हार्पर “प्रतिस्थापित लागत’ को लागत मानने का सुझाव देते हैं। अतः आई. सी. एम. ए. की परिभाषा ही ठीक व तर्कपूर्ण है।”
लागत के सिद्धान्त (Principles of Cost)
लागत के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित-
1. लागत का सम्बन्ध उसके कारण से होता है एक लागत का यथासम्भव अपने कारण से निकटतम सम्बन्ध होता है। कारखानों का किराया कारखाने से ही सम्बन्धित है। कार्यालय से नहीं, अतः इसे कार्यालय व्यय में सम्मिलित नहीं किया जा सकता है, एक विशेष मशीन की मरम्मत का व्यय उसी मशीन पर डाला जाता है, किसी अन्य मशीन पर नहीं तथा इसी प्रकार एक फोरमैन का वेतन किसी एक उत्पादन इकाई पर ही नहीं डाला जाता है, बल्कि उन सभी इकाइयों पर डाला जाता है जो उसकी देखरेख में निर्मित की गयी हों। अतः लागत का सम्बन्ध अपने कारण से होता है।
2. व्यय कर चुकने के पश्चात् ही व्यय राशि लागत का अंग बनती है ‘व्यय कर चुकने’ का अर्थ वास्तविक रूप में व्यय किये गये से अथवा सैद्धान्तिक रूप से व्यय किये जाने से है। ऐसा व्यय जो हुआ ही नहीं है, लागत का अंग नहीं बनता है।
3. असामान्य लागतें लागत लेखांकन में सम्मिलित नहीं होती हैं- अग्नि प्रकोप, चारी, उपद्रव, हड़ताले व दुर्घटना आदि असामान्य कारणों से हुई हानि की लागत उत्पादन पर नहीं डाली जाती हैं क्योंकि उनका सम्बन्ध उत्पादन की सामान्य क्रिया से नहीं है। असामान्य हानि को लाभ-हानि खाते में दिखाया जाता है। इसी प्रकार वे वित्तीय व्यय मदें व आय-मदें जिनका सम्बन्ध परिव्ययांकन में नहीं होता है लागत में शामिल नहीं की जाती हैं।
4. भूतकाल की लागतें भविष्य की अवधि में चार्ज नहीं होती हैं- ऐसे व्यय जो विगत अवधि के हैं और यदि उन व्ययों को उसी विगत अवधि में चार्ज किया जाता है तो उन व्ययों को भावी अवधि में चार्ज नहीं किया जाता है क्योंकि ऐसा करने से भावी अवधि का ‘लागत विवरण पत्र’ ठीक लागत नहीं ज्ञात कर पायेगा। विगत लागत का अर्थ उस लागत से है जिसका लाभ आगे भविष्य में नहीं मिलेगा। यदि विगत लागत का लाभ भविष्य में भी प्राप्त होता है तो वह विगत लागत नहीं है। उदाहरण के लिए, विज्ञापन-व्यय जो स्थगित रेवेन्यू व्यय की तरह 3 से 5 वर्ष में चार्ज किया जाना है तो वह विगत लागत नहीं किया जायेगा।
5. रूढ़िवादिता के सिद्धान्त का लागत लेखांकन में स्थान नहीं होता है वित्तीय लेखों में अन्तिम स्टॉक लागत मूल्य, या बाजार मूल्य जो भी कम हो- के सिद्धान्त पर मूल्यांकित होता है परन्तु परिव्यय लेखों में यह स्टॉक केवल लागत मूल्य पर ही मूल्यांकित होता है। वित्तीय लेखों में लाभ घटाकर दिखाने में गोपनीय संचिति (Secret Reserve) बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है परन्तु ऐसा लागत लेखांकन में नहीं होता है। यदि लागत लेखांकन में इन प्रवृत्तियों को स्थान दिया जाय तो उसका उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
6. लागत लेखांकन दोहरी प्रविष्टि सिद्धान्त पर ही आधारित होता है जैसे कि वित्तीय लेखांकन दोहरी प्रविष्टि प्रणाली पर आधारित होता है वैसे ही लागत के लेख भी डेबिट-क्रेडिट के सिद्धान्त पर इस प्रणाली में रखे जाते हैं।
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