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वैदिक कालीन शिक्षा व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
वैदिक शिक्षा व्यवस्था वैदिक काल की शिक्षा वर्तमान शिक्षा प्रणाली जैसी व्यवस्थित और संगठित नहीं थी। इस समय परिवार एवं गुरुकुल ही शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। गृह विद्यालयों में बालकों को साहित्यिक तथा व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। व्यक्तिगत शिक्षक अपनी विद्वता तथा प्रसिद्धि के कारण विद्यार्थियों को अपनी ओर आकर्षित करते थे। शैक्षिक संस्थाएँ “चारण” के नाम से जानी जाती थीं, किन्तु चारण अव्यवस्थित शिक्षा संस्थाएँ थीं। आश्चर्य का विषय है कि इनको व्यवस्थित शैक्षिक संस्थाओं में परिवर्तित करने के लिए कभी प्रयत्न ही नहीं किया गया। प्रत्येक ब्राह्मण अपनी व्यक्तिगत हैसियत से वेदाभ्यास में लगा हुआ था। इस प्रकार से प्रत्येक विद्वान् ब्राह्मण अपने में स्वयं एक शैक्षिक संस्था बना था। शिक्षा पूर्णरूप से व्यक्तिगत प्रयास थी। यदि किसी शिक्षक के अधीन विद्यार्थियों की संख्या बढ़ जाती थी तो वह या तो किसी सहायक शिक्षक अथवा किसी ज्येष्ठ छात्र को सहायतार्थ रख लेता था। एक गुरु के संरक्षण में केवल 5 या 7 विद्यार्थी ही रहते थे।
शिक्षा का आरम्भ- वैदिक काल में बालक की प्रारम्भिक शिक्षा का आरम्भ विद्यारम्भ संस्कार के पश्चात् होती थी। यह संस्कार 5 वर्ष की अवस्था में बालक के अपने परिवार में ही होता था। प्रारम्भिक शिक्षा के अन्तर्गत बालकों को लिखना, पढ़ना तथा गणना करने का ज्ञान दिया जाता था। प्रारम्भिक शिक्षा सामान्य रूप से गृहों में ही प्रदान की जाती थी।
उपनयन संस्कार- “उपनयन” संस्कार के बाद उच्च शिक्षा के लिए बालकों को गुरुकुल में प्रवेश हेतु भेजा जाता था। इस शिक्षा में विद्यार्थी को “ब्रह्मचारी” की संज्ञा दी जाती थी। यहीं से विद्यार्थी जीवन आरम्भ होता था । वस्तुतः “उपनयन” का शाब्दिक अर्थ है, “गुरु के पास ले जाना” या शिक्षा का प्रारम्भ। इस संस्कार के द्वारा ही बालक भौतिक शरीर के स्थान पर आध्यात्मिक शरीर प्राप्त करता था। एक प्रकार से उसका दूसरा जन्म होता था। अब वह “द्विज” अथवा “ब्रह्मचारी” कहलाने लगता था। डॉ० एफ०ई० की के शब्दों में, “उपनयन संस्कार का वह संस्कार था जिसके द्वारा तीन वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य का बालक विद्यार्थित्व या विद्यार्थी जीवन में प्रवेश करता था। प्रत्येक वर्ण के लिए विद्यारम्भ की विभिन्न आयु निर्धारित की गयी। यह ब्राह्मण के लिए 8 वर्ष, क्षत्रिय के लिए 11 वर्ष और वैश्य के लिए 12 वर्ष तक निश्चित की गयी थी और आवश्यकता पड़ने पर यह आयु 16, 22 और 24 वर्षों तक क्रमशः बढ़ायी जा सकती थी।
प्रवेश विधि – उपनयन संस्कार के बाद बालक को गुरु के पास ले जाया जाता था। गुरु उस बालक से पूछता था, “तुम किसक ब्रह्मचारी हो बालक “आपका” कहकर अपने को गुरु को समर्पित कर देता था। आचार्य तब उसे शुद्ध करता था कि तुम इन्द्र, सूर्य तथा अग्नि के शिष्य हो, क्योंकि वे वैदिक काल के शक्तिशाली देवता थे। इसके पश्चात् आचार्य दाहिने हाथ से शिष्य को पकड़ता था और बतलाता था कि वह ऐसा सावित्री के आदेश से कर रहा है। वह फिर शिष्य के हृदय को स्पर्श करता था और प्रार्थना करता था कि उसके तथा शिष्य के बीच स्थायी रूप से सौहार्द्रता की भावना रहे। इसके बाद शिष्य को वैदिक अध्ययन में गायत्री मंत्र के पाठ के द्वारा प्रवेश कराया जाता था। गायत्री मंत्र सीखने के उपरान्त विद्यार्थी को एक दण्ड प्रदान किया जाता था, जो कि ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले यात्री का प्रतीक था। दण्ड को ग्रहण कर वह प्रार्थना करता था कि वह ज्ञान प्राप्ति के कठिन मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच सके। प्रत्येक दण्डधारी से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह सजग प्रहरी के समान वेदों की मर्यादा की रक्षा करेगा। दण्ड विद्यार्थियों को आत्म निर्भर तथा आत्म-विश्वासी बनाता था। वह गुरुओं के पशुओं को नियंत्रित करने में सहायता करता था।
गुरुकुल प्रणाली (उच्च शिक्षा के लिए) – प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली की सर्वोपरि विशेषता-गुरुकुल प्रणाली है। आठ या नौ वर्ष की अवस्था तक विद्यार्थी अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गृह में प्राप्त कर लेता था। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह “गुरुकुल” में प्रवेश लेता था। उपनयन से लेकर समावर्तन संस्कार तक उसे गुरुकुल में रहना पड़ता था। उपनयन संस्कार के पश्चात् ही कोई विद्यार्थी गुरुकुल अथवा गुरुगृह में प्रवेश ले सकता था। जब वह गुरुकुल में अपने गुरु के संरक्षण में रहना शुरू कर देता था, तब उसे “अन्तेवासिन” या “गुरुवासी” कहा जाता था। गुरुकुल में प्रत्येक विद्यार्थी को सादा तथा शुद्ध जीवन व्यतीत करना पड़ता था। उसको संसार की समस्त आकर्षक वस्तुओं से दूर रहकरे कठोर जीवन व्यतीत करते हुए विद्याभ्यास करना पड़ता था। साधारणत: गुरुकुल नगरों के कोलाहलपूर्ण वातावरण से दूर जंगलों में स्थित होते थे। कभी-कभी गुरुकुल गाँवों तथा नगरों में भी पाये जाते थे। बनारस जैसे नगर में गुरुकुल व्यवस्था का वर्णन पौराणिक कथाओं में मिलता है।
गुरुकुल प्रणाली की संस्तुति क्यों ?
(1) साहचर्य तथा अनुकरण की महत्ता जानने के कारण गुरुकुल प्रणाली पर अत्यधिक जोर दिया जाता था। छात्र शिक्षकों के उत्तम चारित्रिक गुणों के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आते थे और उन्हें वे आत्मसात् करने की प्रेरणा भी प्राप्त करते थे।
(2) एक गुरु के संरक्षण में प्राय: 5 या 7 विद्यार्थी ही गुरुकुलों में हुआ करते थे। इस प्रकार छात्रों का गुरुओं के साथ सुन्दर व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित होता था। गुरु विद्यार्थी की व्यक्तिगत प्रतिभाओं को समझकर उन्हें सम्यक् रूप से विकसित करने का प्रयत्न करता था।
(3) इसके अतिरिक्त, ज्येष्ठ छात्रों के सम्पर्क द्वारा भी अन्य छात्रों को ज्ञानोपार्जन की प्रेरणा प्राप्त होती थी।
(4) गुरुकुल का वातावरण धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत होता था, जिसमें रहकर तथा श्वास लेकर विद्यार्थी जीवन के उच्च आदर्शों की ओर प्रवृत्त होते थे।
(5) गुरुकुल प्रणाली विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर तथा व्यक्तित्त्व के विकारों को दूर करने में सहायक सिद्ध होती थी। गुरुओं के आदर्श निर्देशन तथा संरक्षण में छात्रों में उदात्त चारित्रिक तथा आध्यात्मिक गुणों का विकास होता था, जो कि घर में रहकर कभी भी सम्भव नहीं हो सकता था।
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