व्यर्थ घोषित ठहराव किसे कहते हैं? अथवा उन ठहरावों का वर्णन कीजिए जो भारतीय अनुबन्ध अधिनियम द्वारा स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित किए गये हैं।
व्यर्थ घोषित ठहराव- व्यर्थ घोषित ठहराव से हमारा आशय एक ऐसे ठहराव से है जो राजनियम द्वारा स्पष्ट रूप में व्यर्थ घोषित कर दिया गया है। वैध अनुबन्ध के आवश्यक लक्षणों का अध्ययन करते समय हमें इस बात का ज्ञान हुआ कि इस अधिनियम की धारा 10 के अन्तर्गत एक वैध अनुबन्ध के लिए यह भी आवश्यक है कि ये ठहराव स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित न हो। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत निम्नलिखित ठहराव स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित किये गये हैं-
1. विवाह में रूकावट डालने वाले ठहराव- अनुबन्ध अधिनियम की धारा-26 के अनुसार, “प्रत्येक ऐसा ठहराव जो अवयस्क को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति के विवाह में रूकावट डालने के लिए हो, व्यर्थ होता है।” इस प्रकार विवाह करना एवं विवाहित दशा में रहना प्रत्येक वयस्क का मूलभूत अधिकार है। उदाहरण के लिए-‘अ”ब’ से कहता है कि अगर तुम ‘स’ से विवाह न करोगे, तो मै तुम्हें 50,000 रुपये दूंगा। यह ठहराव व्यर्थ है। (धारा-26)
महत्वपूर्ण विवाद
‘राजरानी’ बनाम ‘गुलाबरानी’ के विवाद में एक ही व्यक्ति की दो विधवाओं ने आपस में मतभेद उत्पन्न होने पर सुलह करते समय यह ठहराव किया कि यदि उनमें से कोई पुनः विवाह कर लेगी तो उसका मृतक पति की सम्पत्ति में से अधिकार समाप्त हो जायेगा। इलाहाबाद उच्चन्यायालय ने इस ठहराव को विवाह में रूकावट नहीं माना।
2. व्यापार में अवरोध उत्पन्न करने वाले ठहराव- धारा 27 के अनुसार, ऐसे सब ठहराव जो किसी व्यक्ति द्वारा उसकी इच्छानुसार कहीं भी तथा किसी भी स्थान या समय में कोई वैध व्यापार, व्यवसाय अथवा धन्धा करने में रूकावट पैदा करता है उस समय तक व्यर्थ है जब तक वे ऐसा अवरोध उत्पन्न करते हैं। यदि ठहराव का एक अंश ही व्यापार में रूकावट डालता है तो वह अंश ही व्यर्थ होगा किन्तु यदि सम्पूर्ण ठहराव का यह अंश अलग नहीं किया जा सकता तो वह पूरा ठहराव व्यर्थ होगा।”
(i) व्यापार की ख्याति के विक्रय के समय किया गया ठहराव- ख्याति का विक्रेता क्रेता की यह शर्त मान सकता है कि निर्धारित सीमाओं और समय में वह प्रतिस्पर्धी व्यापार नहीं करेगा। इन सीमाओं का औचित्य न्यायालय निर्धारित करेगा।
(ii) साझीदारों के पारस्परिक ठहराव – भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 11 के अनुसार फर्म में साझेदार व्यवसाय के अतिरिक्त अन्य कोई व्यवसाय न करने का ठहराव कर सकते हैं। उसी अधिनियम की धारा 36 तथा 54 के अनुसार, पारस्परिक समझौते द्वारा साझेदारों पर यह प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है कि वे साझेदारी न रहने पर अथवा साझेदारी की समाप्ति के बाद निर्धारित अवधि और सीमाओं में साझेदारी के व्यवसाय की प्रकृति का कारोबार नहीं करेंगे। प्रतिबन्ध उचित प्रकार का होना चाहिए।
(iii) प्रतिस्पर्धा को सीमित करने वाले ठहराव- यदि वे एकाधिकार को जन्म नहीं देते हैं और लोकनीति के विरुद्ध नहीं है, तब ऐसे ठहराव वैध होंगे। उदाहरणार्थ, उत्पादक अथवा व्यापारी अपने माल का न्यूनतम मूल्य निर्धारित करने, लाभों एवं व्यापार सीमाओं को परस्पर बाँटने के ध्येय से व्यापार संघों का निर्माण कर सकते हैं।
(iv) नौकरी सम्बन्धी ठहराव- किसी कर्मचारी द्वारा एक नौकरी की अवधि में दूसरे नियोक्ता के यहाँ नौकरी स्वीकार करने पर प्रतिबन्ध लगाने अथवा अपने मालिक के व्यापार से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रतियोगिता करने वाले कारोबार करने पर रोक लगाने वाले अनुबन्ध वैध हैं। नौकरी की समयावधि के उपरान्त के सम्बन्ध में ऐसे नियन्त्रण व्यर्थ होंगे।
3. कानूनी कार्यवाही में अवरोध वाले ठहराव- चूँकि ऐसे ठहराव लोकनीति के विरुद्ध होते हैं, व्यर्थ हैं। धारा 28 के अनुसार, वैधानिक कार्य में रूकावट डालने वाले ठहराव वे हैं जो (i) किसी पक्षकार को किसी अनुबन्ध के अन्तर्गत न्यायालय में वाद प्रस्तुत करने से रोकते हैं, अथवा (ii) उस अवधि को सीमित करने के लिए किये जाते हैं जिसमें कोई पक्षकार न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकता है। ऐसे समस्त ठहराव स्पष्टतः व्यर्थ घोषित कर दिये गये हैं।
धारा 28 के अन्तर्गत अपवाद- इन सामान्य आदेशों के दो अपवाद हैं, जिनका उद्देश्य व्यर्थ की मुकदमेबाजी को नियन्त्रित करना है। ऐसे ठहराव उचित व वैधानिक है, जिसके अनुसार दो या अधिक व्यक्ति अपने किसी (अ) सम्भावित भावी विवाद को पंच फैसले के लिए सुपुर्द करने को सहमत होते हैं, तथा (ब) किसी वर्तमान विवाद को लिखित ठहराव के अर्न्तगत पंच फैसले के लिए सौंपते हैं।
कानूनी कार्यवाही में अवरोध वाले ठहरावों तथा उसके अपवादों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-
(i) ‘अ’ ‘ब’ के विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही न करने का ठहराव करता है। इस प्रकार का ठहराव व्यर्थ होगा क्योंकि इस ठहराव में ‘अ’ को अपने अधिकारों को न्यायालय में प्रवर्तित करने से रोका जा सकता है।
(ii) ‘अ’ तथा ‘ब’ आपस में यह ठहराव करते हैं कि उनके विवाद को तय करने वाले न्यायालय की डिक्री दोनों पक्षकारों पर बाध्य होगी और उन दोनों को किसी दूसरे न्यायालय में अपील करने का अधिकार नहीं होगा। यहाँ पर ठहराव को वैध माना जायेगा।
(iii) ‘अ’ द्वारा ‘ब’ को 2000 रुपये का ऋण दिया जाता है ओर ‘ब’ ऋण पर यह लिख देता है कि ऋण की राशि तथा ब्याज 20 वर्ष बाद देय होगा तथा लिमिटेशन अधिनियम सम्बन्धी प्रावधान इसमें लागू नहीं होंगे। यहाँ पर इस प्रकार का ठहराव व्यर्थ समझा जायेगा।
(iv) Nulji vs. Ramji (1930) के विवाद में यह निर्णय दिया गया था कि यदि सम्बन्धित पक्षकारों में यह ठहराव होता है कि वे अपने अधिकारों को न्यायालय में प्रवर्तन कराने से पूर्व विवाद को पंचायत के सुपुर्द कर देंगे, तो इस प्रकार ठहराव को मान्यता दे दी जायगी और न्यायालय अपने यहाँ कार्यवाही को रोक सकता है, जिसमें पंचायत विवाद को तय कर सके।
4. अनिश्चित अर्थ वाले ठहराव- धारा 29 के अनुसार वे समस्त ठहराव व्यर्थ हैं। जिनका अर्थ या तो निश्चित है ही नहीं अथवा निश्चित किया जाना सम्भव नहीं है। ऐसे ठहरावों में पक्षकारों के अधिकार और दायित्व न तो सुस्पष्ट होते हैं और न ही स्पष्ट किये जाते हैं। उदाहरणार्थ, रमेश, महेश के साथ ‘200 क्विंटल अनाज’ बेचने का सौदा करता है। यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि अनाज कौन-सा होगा, अत: यह अनिश्चितता-युक्त ठहराव व्यर्थ है। इसी प्रकार जब एक विक्रेता किसी वस्तु के क्रेता से उसका ‘मूल्य रुपये 1000 या 500’ लेने का प्रस्ताव करता है तो मूल्य की अनिश्चितता के कारण यह ठहराव व्यर्थ हैं।
5. बाजी लगाने के उद्देश्य से किये गये ठहराव-धारा 30 के आदेशानुसार वे सब ठहराव व्यर्थ हैं, जिनका उद्देश्य बाजी लगाना होता हो। उदाहरणार्थ, भारत और पाकिस्तान की हाकी टीम के ओलम्पिक मैच में किसी टीम के जीतने या हारने पर लगायी धन की शर्तें या वर्षा होने से एक नियम अवधि में पतरों से पानी टपकने पर मुद्रा की जीत-हार के लिए किये गये ठहराव व्यर्थ हैं।
जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है बाजी लगाने का ठहराव वह ठहराव है जिसके द्वारा दो व्यक्ति किसी भावी अनिश्चित घटना के विषय में विभिन्न दृष्टिकोण रखने पर जीत-हार का समझौता करते हैं। इस ठहराव का आधार उस घटना का होना या न होना होता है जिसमें दोनों पक्षों का कोई हित निहित नहीं होता, सिवाय इसके कि शर्त में लगायी गयी रकम एक पक्ष हारता है और दूसरा जीतता है-ऐसे ठहराव के लिए किसी भी पक्षकार की ओर से कोई वास्तविक प्रतिफल प्राप्त नहीं होता है।
सट्टे का व्यापार तथा तेजी मन्दी विकल्प में सौदे प्रत्यक्ष बाजी के सौदों जैसे दिखायी देने वाले होने पर भी बाजी के ठहरावों की श्रेणी में नहीं रखे गये हैं, क्योंकि उनमें क्रेता अथवा विक्रेता द्वारा सामने वाले पक्ष को माल की सुपुर्दगी देने या लेने के लिए बाध्य किया जा सकता है, चाहे फिर सौदा मूल्यांतर लेन-देन करके ही क्यों न सुलझा लिया जाय।
6. असम्भव कार्य करने के ठहराव (धारा-56)-अनुबन्ध अधिनियम की धारा-56 के अनुसार, “किसी ऐसे कार्य को करने का ठहराव जो स्वयं असम्भव हो, व्यर्थ है।”
उदाहरण- ‘अ’ और ‘ब’ आपस में विवाह करने का ठहराव करते हैं। विवाह के नियत समय से पहले ‘अ’ पागल हो जाता है। अत: यह ठहराव व्यर्थ है।
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