सामाजिक न्याय के विषय में अम्बेडकर के विचारों को विस्तार से लिखिये।
सामाजिक न्याय के विषय में अम्बेडकर के विचार
डॉ. भीमराव अम्बेडकर (बाबा साहिब अम्बेडकर) (1891 से 1956) आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतक, बुद्धिजीवी, मानवतावादी, ‘दलितों के मसीहा’ तथा सामाजिक न्याय के संघर्षशील योद्धा थे। वह भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता के रूप में भी जाने जाते हैं।
उन्होंने हिन्दुओं में अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों को संगठित करके उन्हें सामाजिक तथा राजनीतिक न्याय हेतु संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। स्वयं अस्पृश्य (महार) जाति में जन्म लेकर उन्होंने निरंतर संघर्ष तथा आत्मविश्वास के बल पर उच्च शिक्षा ग्रहण की। जातिवाद तथा छुआ-छूत के कारण बाल्यकाल से ही उन्हें अपमान तथा उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जिसका प्रभाव बाद में उनके विचारों पर पड़ना स्वाभाविक था। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा ग्रहण करते हुए उन्होंने समानता के व्यवहार का अनुभव किया, जो भारत में उनके लिए वख्रजत था। अब्राहम लिंकन तथा वाशिंगटन के विचारों का भी उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह कबीर की भक्ति, फूले के समाज सुधार तथा साबू महाराज के ब्राह्मणवाद के विरुद्ध संघर्ष से भी प्रभावित थे। अम्बेडकर विचारधारा पर लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता एक भ्रातृत्व के पाश्चात्य विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। अपने अमेरीकी प्रवास के दौरान वह रंगभेद की नीति का विरोध करने वाले चौदहवें संशोधन से अत्याधिक प्रभावित हुए थे। इससे उन्हें भारत दलितों का उद्धार करते हेतु संघर्ष करने को प्रेरणा मिली। उनका मत था कि दलितों को स्वतंत्र जीवनयापन हेतु सक्षम बनाने में मनु द्वारा निनमत नियम नहीं, बल्कि संवैधानिक सुरक्षा के उपाय ही सहायक होंगे। उनके द्वारा लिखी गई अनेक कृतियों में ‘जाति-प्रथा का उन्मूलन ‘शूद्र कौन थे’ तथा ‘अस्पृश्य जातियाँ’ सामाजिक न्याय की दिशा में उनका महत्वपूर्ण योगदान मानी जाती हैं।
सामाजिक न्याय पर अम्बेडकर के विचार :- सामाजिक न्याय का तात्पर्य सामाजिक समानता है। सामाजिक न्याय का सिद्धांत यह माँग करता है कि सामाजिक जीवन में सभी मनुष्यों की गरिमा को स्वीकार किया जाएं। लिंग, वर्ण, जाति, धर्म व स्थान के आधार पर भेदभाव न किया जाएं तथा प्रत्येक व्यक्ति को आत्मविकास के सभी अवसर सुलभ कराए जाएं। सामाजिक न्याय किसी भी आधार पर किए गए शोषण को स्वीकार नहीं करता। वस्तुतः सामाजिक न्याय एक विस्तृत अवधारणा है, जिसमें आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय भी सम्मिलित है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में कहा गया है, (सामाजिक न्याय) “एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करें।”
हिन्दू सामाजिक व्यवस्था : वर्ण-व्यवस्था का खण्डन :- अम्बेडकर सामाजिक क्रांतिकारी । वह हिन्दुओं, विशेषतः ब्राह्मणों के हाथों अपमानित होने वाले दलित वर्ग के उद्धारक थे। उन्होंने दलित समुदाय को तिरस्कार तथा अधीनता के उस दलदल में से उबारा जिसमें धर्मान्ध तथा धर्म के ठेकेदार ब्राह्मणों ने उन्हें फँसा दिया था। तिलक की तरह उनका मत था कि प्रत्येक को अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ता है। अधिकार दान में नहीं दिए जाते। इसी प्रकार प्रत्येक को पूर्वस्थापित सामाजिक संरचना, रीति रिवाजों विश्वासों व व्यवहार के विरुद्ध लड़ना होगा। अपनी प्रसिद्ध कृति “शूद्र कौन थे?” में उन्होंने मनु द्वारा निखदष्ट वर्ण-व्यवस्था को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने वेदों में वख्रणत चतुर्वर्ण-व्यवस्था का खण्डन किया, जिससे ब्राह्मणों की तुलना पुरुष के मुख से, क्षत्रियों की भुजाओं से, वैष्यों की जंघाओं से तथा शुद्रों की पगों में की गई है। यह सिद्धांत असमानता का द्योतक है। उनके अनुसार वर्ण-व्यवस्था पर आधारित हिन्दू समाज शोषण व असमानता को बढ़ावा देता है। अस्पृश्य वर्ग, वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति है। इस व्यवस्था में ब्राह्मणों को उच्च स्थान प्राप्त है। तथा अस्पृश्यों को शोषण व दमन का सामना करना पड़ता है। अतः अस्पृश्यता निवारण व भारतीय समाज में सुधार का एक ही उपाय हैं कि वर्ण-व्यवस्था का अन्त कर दिया जाएं। अम्बेडकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिन्दू समाज में समानता सम्भव नहीं है। इसी कारण अन्ततः उन्होंने हिन्दू धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म कर लिया था।
जाति-प्रथा का मूलाधार जन्म है। जाति प्रथा के कारण हिन्दू समाज असंख्य इकाईयों में बँट गया। अम्बेडकर के अनुसार जाति-विद्वेष के कारण हिन्दू कभी एक होकर नहीं रह सके न ही उनमें सामाजिक चेतना का संचार हुआ। अम्बेडकर तथा गाँधी दोनों ही दलितों के उद्धार के पक्षधर थे, किन्तु वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में दोनों में मतभेद था। गाँधी पुनर्जन्म तथा कर्मफल में विश्वास रखते थे। किन्तु अम्बेडकर ने इस दर्शन को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक “जाति-प्रथा का उन्मूलन” में हिन्दू समाज के दोषों पर ” प्रकाश डाला तथा जाति-व्यवस्था को बुरी व्यवस्था मानते हुए उसके उन्मूलन का सुझाव दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने शास्त्रों को नष्ट करने पर भी बल दिया।
अस्पृश्यता निवारण के उपाय :- उन्होंने अन्तर्जातीय विवाहों को भी प्रोत्साहन दिया जिससे दो जातियों के मध्य परस्पर निकट सम्बन्ध स्थापित हों तथा अन्ततः जातिवाद की भावना समाप्त हो जाएं। हिन्दू धर्म के उद्धार के लिए उन्होंने ब्राह्मणवाद समाप्त करने का अनुरोध किया। उन्होंने दलित वर्ग को ऐसा कार्य न करने की प्रेरणा दी जो उन्हें अस्पृश्य बना देते हैं।
इस प्रकार हीनभाव से उबरकर अस्पृश्य लोग सवर्णों के समकक्ष समान हो जाएँगे। अम्बेडकर के साथ मतभेद के बावजूद गाँधी भी जाति प्रथा को समाप्त करने के पक्ष में थे। अम्बेडकर के अनुसार जाति-प्रथा की संतति बहिष्कृत लोगों का उद्धार आवश्यक है। परिणामस्वरूप जो अस्पृश्य सार्वजनिक कुओं व जलाश्यों से जल नहीं ले सकते थे, जिनके लिए मंदिर प्रवेश निषेध था, जिन्हें शिक्षा-प्राप्ति का अधिकार नहीं था, जो सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से लाभान्वित होने के अधिकार से वांचित थे, उन्हें अम्बेडकर ने नई दिशा दी। उन्होंने 1924 में बम्बई में अस्पृश्यों के उत्थान हेतु ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ स्थापित की। 1927 में उन्होंने अस्पृश्यों के लिए निषेध, महार गाँव (बम्बई) के जलाशय के जल का प्रयोग करने के लिए 500 अस्पृश्यों के आंदोलन का नेतृत्व किया। 1930 में उन्होंने दलितों को मंदिर में प्रविष्ट कराने के लिए नासिक आन्दोलन का नेतृत्व किया।
बाद में उन्होंने लंदन के प्रथम गोलमेज सम्मेलन (नवंबर, 1930) में दलितों के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए समान अधिकार, सरकारी सेवाओं में आरक्षण तथा मनुस्मृति के स्थापन पर नई अचार संहिता की माँग की। अम्बेडकर का मत था कि दलित वर्ग उच्च वर्ग के हाथों उपेक्षा, दमन व शोषण का शिकार होता रहा है। हिन्दू समाज ने कभी भी उसे अपना भाग नहीं माना अतः यह कभी भी मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाएगा। भविष्य में सामाजिक व भावात्मक आधार पर इन्हें एकीकृत करना एक सपना मात्र है। हिन्दुओं तथा दलित वर्गों में क्योंकि कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः राजनीतिक, प्रशासनिक तथा मताधिकार के आधार पर इन्हें पृथक रखा जाएं। दलित वर्गों को समानता दिलाने का एक ही उपाय है। कि उन्हें पृथक पहचान दी जाएं। इस प्रकार अम्बेडकर ने दलितों के लिए ‘समान किन्तु पृथक’ के मत का पक्ष लिया। इस सम्बन्ध में गाँधी उनसे सहमत नहीं थे। उनका मत था कि हिन्दू समाज न केवल अल्पसंख्यकों को, बल्कि कमजोर वर्गों को भी सामाजिक व भावात्मक आधार पर मुख्य धारा में आत्मसात् कर लेगा। अंग्रेजो की ‘फूट डालो व राज करो’ की नीति के अनुरूप होने के कारण अम्बेडकर की पृथक मताधिकार की माँग पर मुख्यतः द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (सितंबर, 1931) तथा पूना समझौते (सितंबर 1932) में विस्तार में विचार किया गया। तत्पश्चात् 1935 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा इसे मान्यता दी गई। कालान्तर 1946 में संविधान सभा के गठन के उपरान्त, प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में अम्बेडकर ने आरक्षण की नीति पर बल दिया तथा वह भारतीय संविधान में इसे सम्मिलित कराने में सफल रहे।
जन-अधिकारों व स्वतंत्रता का पक्षः अम्बेडकर सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु मानव अधिकारों की व्यवस्था को आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार राज्य द्वारा
1. प्रत्येक व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, प्रसन्नता की खोज, विचाराभिव्यक्ति तथा स्वतंत्रता के अधिकार की व्यवस्था की जानी चाहिए;
2. दलित वर्गों को बेहतर अवसर प्रदान करके सामाजिक-आर्थिक असमानता दूर करनी चाहिए प्रत्येक नागरिक को अभाव तथा भय से मुक्ति प्रदान करनी चाहिए। स्वतंत्रता के पश्चात् भी वह नागरिक अधिकारों तथा स्वतंत्रता के पक्षधर रहे। उनके अनुसार वास्तविक स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक भी होनी चाहिए।
नागरिक अधिकारों के पक्षधर के रूप में भारतीय संविधान के भाग 3 तथा 4 में क्रमश: मौलिक अधिकारों तथा नीति-निर्देशक सिद्धांतों को सम्मिलित करवाने में वह सफल रहे। उनका मत था कि मौलिक अधिकार प्रजातंत्र का आधार हैं।
अम्बेडकर ने लैंगिक विभेद का विरोध करते हुए महिला अधिकारों का भी समर्थन किया। उनके अनुसार सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव का अन्त किया जाएं, तभी सामाजिक न्याय की स्थापना होगी।
अम्बेडकर की विचारधारा फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो के तीन प्रसिद्ध शब्द-स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व से प्रभावित थी। उन्होंनें रूसो से एक कदम आगे जाकर न्याय का पक्ष लिया, जो समानता पर आधारित था। ‘सामाजिक न्याय’ न्याय के सिद्धांत का वह पक्ष है, जो स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व के नियमों पर आधारित होता है।
अम्बेडकर महान् समाज सुधारक, न्यायविद्, दलितों के उद्धारक तथा भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे। संविधान सभा के सदस्यों द्वारा उन्हें ‘आधुनिक मनु’ के नाम से पुकारा गया। वह मौलिक अधिकारों तथा नीति-निर्देशक सिद्धांतों एंव धर्मनिरपेक्ष राज्य के प्रबल समर्थक थे। उनके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप ही दलितों के उत्थान से सम्बन्धित अनेक प्रावधानों को संविधान में स्थान दिया गया। नौरोजी, रानाडे तथा गोखले जैसे उदारपंथियों की भाँति उन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता की अपेक्षाकृत सामाजिक सुधारों को प्राथमिकता दी। उन्होंने महिलाओं की दशा सुधारने तथा दलितों का उद्धार करने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनकी अभूतपूर्व सेवाओं व योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें भारत सरकार द्वारा (मरणोपरान्त) भारत-रत्न के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सामाजिक न्याय के क्षेत्र में दिए गए उनके विचार तथा व्यावहारिक योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
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