अर्थशास्त्र की प्रकृति तथा क्षेत्र (Nature and Scope of Economics)
जिस प्रकार अर्थशास्त्र की परिभाषा के सम्बन्ध में सभी अर्थशास्त्री एकमत नहीं हैं, ठीक उसी प्रकार अर्थशास्त्र की प्रकृति तथा क्षेत्र के सम्बन्ध में भी व्यापक मतभेद पाया जाता है। सामान्य रूप से अर्थशास्त्र की प्रकृति तथा क्षेत्र से आशय इस विचार को परिभाषित करने से है कि अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री क्या है ? विषय-सामग्री की प्रकृति क्या है ? तथा विषय की सीमाएँ क्या हैं ?
उपर्युक्त तीनों पहलुओं की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत की जा सकती है।
(A) अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री (Subject Matter of Economics) – अर्थशास्त्रियों की परिभाषाओं से इस विषय की सामग्री का पर्याप्त ज्ञान हो जाता है। परम्परावादी अर्थशास्त्रियों (एडम स्मिथ, जे० बी० से तथा प्रो० वाकर आदि) की दृष्टि में अर्थशास्त्र धन को प्राप्त करने तथा उसे व्यय करने से सम्बन्धित क्रियाओं का अध्ययन था। नव-परम्परावादी अर्थशास्त्रियों (प्रो० मार्शल, पीगू आदि) ने अर्थशास्त्र को भौतिक कल्याण का शास्त्र माना जबकि आधुनिक विचारकों के मत में अर्थशास्त्र सीमितता का विज्ञान है।
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ‘प्रो० रोबिन्स’ की दृष्टि में, “अर्थशास्त्र मानव-व्यवहारों का अध्ययन करता है जिनका सम्बन्ध सीमितता उद्देश्य की पूर्ति के लिए वैकल्पिक प्रयोग वाले सीमित साधनों से है।” अर्थशास्त्र चुनाव सम्बन्धी विज्ञान है, जो समस्त मानवीय क्रियाओं के आर्थिक पहलू का अध्ययन करता है।
इस प्रकार, दृष्टिकोणों में व्यापक भिन्नता होते हुए भी सभी अर्थशास्त्री यह स्वीकार करते हैं कि अर्थशास्त्र मानव-व्यवहार का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन है।
परम्परागत दृष्टि से अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री को निम्नलिखित पाँच उपविभागों में बाँटा जाता है-
(1) उपयोग (Consumption) – इसके अन्तर्गत आवश्यकताएँ तथा इससे सम्बन्धित नियम, उपभोक्ता की बचत, ह्रासमान व सम-सीमान्त तुष्टिगुण नियम, पारिवारिक बजट, आय-व्यय व बचत, उपयोगिता व तटस्थता वक्र विश्लेषण आदि का अध्ययन किया जाता है।
(2) उत्पादन (Production ) – यह अर्थशास्त्र का वह भाग है जिसमें धनोत्पादन के उपायों तथा इनसे सम्बन्धित उत्पत्ति के विभिन्न उपादानों का अध्ययन किया जाता है।
(3) विनिमय (Exchange) – इस विभाग के अन्तर्गत वस्तु-विनिमय या वस्तुओं के क्रय-विक्रय से सम्बन्धित उत्पत्ति के विभिन्न उपादानों का अध्ययन किया जाता है।
(4) वितरण (Distribution ) – इस विभाग के अन्तर्गत संयुक्त उत्पादन को इसके उत्पन्न करने वाले उपादानों में वितरित करने से सम्बन्धित समस्याओं या सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है।
(5) राजस्व (Public Finance) – राजस्व सरकार की आय तथा व्यय और उसमें परस्पर समस्याओं की विधिवत् विवेचना करता है।
आधुनिक अर्थशास्त्री अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री को दो भागों में विभाजित करते हैं—
(1) कीमत सिद्धान्त (Price Theory),
(2) आय तथा रोजगार सिद्धान्त (Theory of Income and Employment)।
इसके सम्बन्ध में संक्षिप्त विवेचन अग्रलिखित प्रकार है-
(1) कीमत सिद्धान्त (Price Theory) – आर्थिक विश्लेषण के इस अंग में छोटे-छोटे अंशों अथवा व्यक्तिगत आर्थिक इकाइयों का अध्ययन किया जाता है। इसी खण्ड में यह भी ज्ञात किया जाता है कि किसी वस्तु विशेष या सेवा की कीमत का किस प्रकार निर्धारण होता है ? इस प्रकार उपभोग, उत्पादन, विनिमय एवं वितरण से सम्बद्ध विषय सामग्री का अध्ययन कीमत सिद्धान्त अथवा सूक्ष्म अर्थशास्त्र के अन्तर्गत ही आता सुविधा की दृष्टि से कीमत सिद्धान्त को भी दो भागों में बाँटा गया है—
(i) वस्तुओं की कीमतों का निर्धारण (Product Pricing); एवं
(ii) उत्पादन के साधनों की कीमत का निर्धारण (Factor Pricing)
आधुनिक कीमत सिद्धान्त के विकास में प्रो० मार्शल, प्रो० चैम्बरलिन, श्रीमती जोन रोबिन्सन तथा प्रो० जे० आर० हिक्स का योगदान विशेष उल्लेखनीय रहा है।
(2) आय तथा रोजगार सिद्धान्त अथवा व्यापक अर्थशास्त्र (Theory of income and employment) – आर्थिक विश्लेषण के इस क्षेत्र के अन्तर्गत हम सम्पूर्ण व्यवस्था या सामूहिक इकाइयों का अध्ययन करते हैं। अन्य शब्दों में, “आय सिद्धान्त या व्यापक अर्थशास्त्र कुल आय, कुल रोजगार, कुल व्यय, कुल बचत, कुल विनियोग तथा सामान्य मूल्य स्तर आदि का अध्ययन है।”
आर्थिक विश्लेषण के इस अंग को आय सिद्धान्त (Income Theory) या राष्ट्रीय रोजगार सिद्धान्त भी कहा जाता है क्योंकि आय के निर्धारक तत्त्व ही अर्थव्यवस्था में रोजगार की मात्रा का निर्धारण करते हैं। आय तथा रोजगार के आधुनिक सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० कीन्स ने किया था, अतः इसे कीन्सियन अर्थशास्त्र (Keynesian Economics) कहकर पुकारा जाता है।
(B) अर्थशास्त्र का स्वभाव (Nature of Economics)— अर्थशास्त्र के स्वभाव से आशय यह निश्चित करने से है कि अर्थशास्त्र विज्ञान है या कला अथवा दोनों हैं –
(C) अर्थशास्त्र की सीमाएँ (Limitations of Economics) – किसी भी विषय के क्षेत्र से भली-भाँति परिचित होने के लिये उस विषय की सीमाओं को जानना भी अत्यन्त आवश्यक है। सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि-
(1) अर्थशास्त्र में समस्त मानवीय क्रियाओं का अध्ययन नहीं किया जाता, वरन् मनुष्य की केवल आर्थिक क्रियाओं का ही अध्ययन किया जाता है।
(2) मार्शल के अनुसार, अर्थशास्त्र केवल समाज में रहने वाले सामान्य व्यक्तियों की क्रियाओं का ही अध्ययन करता है, जबकि रोबिन्स के अनुसार यह मानव विज्ञान है। अतः समाज की सीमाओं से बाहर रहने वाले है व्यक्तियों की क्रियाओं के आर्थिक पहलू का भी इसमें अध्ययन किया जाता है।
(3) अर्थशास्त्र वास्तविक एवं आदर्श विज्ञान के साथ-साथ कला भी है।
(4) अर्थशास्त्र के नियम ध्रुव सत्य नहीं होते हैं। वरन् केवल आर्थिक प्रवृत्तियों के द्योतक मात्र होते हैं।
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