‘आशा सर्ग’ के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए। छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर आशा सर्ग की विशेषताओं का आकलन कीजिए।
भूमिका- सन् 1926-27 का काल छायावादी कविताओं का स्वर्णकाल था। इन कविताओं में एक ओर जहाँ स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति देखने को मिलती है वहीं दूसरी और चित्रात्मक भाषा के लाक्षणिक प्रयोग को भी देखा जा सकता है। सूक्ष्म अनुभूतियों एवं सुकुमार भावनाओं का इन छायावादी कृविताओं में आधिक्य है। नूतन छन्द योजना एवं अमूर्त उपमान योजना भी इन कविताओं में दृष्टव्य है। प्रसाद जी को छायावाद का जन्मदाता कहा जाता है। प्रसाद जी की ‘कामायनी’ छायावाद की प्रतिनिधि रचना है। आशा सर्ग कामायनी का एक प्रमुख सर्ग है, अतः इसमें छायावादी विशेषताओं का न पाया जाना असम्भव-सा है।
‘आशा सर्ग’ में छायावाद की विशेषताएँ
‘आशा सर्ग’ में छायावाद की निम्न विशेषताओं को देखा जा सकता है-
1. कथानक का अभाव – छायावादी कवियों ने प्रायः अनुभूति की गहराई का ही चित्रण किया है। इसी कारण उनकी कविताओं में इतिवृत्तात्मकता नहीं के बराबर है। आशा सर्ग इसका अपवाद नहीं है। इसका कथानक अत्यन्त अल्प है। यदि यह कहा जाये कि इसमें निराश मनु के अतिरिक्त कथानक कुछ है ही नहीं तो अत्युक्ति नहीं होगी। पूरे के पूरे सर्ग में कल्पना की ऊँची उड़ान देखने को मिलती है। लाक्षणिक भाषा एवं अप्रस्तुत विधान सर्वत्र विद्यमान है।
नव कोमल आलोक बिखरता ॥
हिम संसृति पर भर अनुराग
सित सरोज पर क्रीडा करता
जैसे मधुमय पिंग पराग ।।
2. कल्पना की प्रधानता – काल्पनिकता छायावादी कवियों का प्राण है। इसी के द्वारा छायावादी कवि वर्तमान के दुःखों से ही मनोहर स्वप्नलोक का सृष्टि करता है और कल्पना के पंखों पर आरूढ़ होकर वह अतीत के स्वर्णयुग में भी घूम आता है। वह कभी क्षितिज के उस पार हो आता है तो कभी भविष्य का आदर्शलोक भी झाँक आता है। वह यथार्थ के धरातल से दूर कल्पना के पंख पर आरूढ़ होकर उस नवजगत् का वर्णन करता है जहाँ मनुष्य के फरिश्ते भी नहीं पहुँच सकते।
आशा सर्ग में कवि की कल्पना की उड़ान को देखिए-
सिन्धु-सेज पर धरा-वधू अब
तनिक संकुचित बैठी-सी
प्रलय-निशा की हलचल स्मृति में
मान किये-सी ऐंठी-सी।
3. श्रृंगारिकता- श्रृङ्गार भावना का वर्णन भी छायावादी कवियों का वर्ण्य विषय रहा है। इस प्रकार के वर्णन में भी उनकी कल्पना का अतिरंजन ही प्रमुख रहा है।
नव हो जगी अनादि वासना
मधुर प्राकृतिक भूख समान।
चिर परिचित सा चाह रहा था
द्वन्द्व सुखद करके अनुमान।
4. प्रकृति-चित्रण – प्रसाद जी का प्रकृति-चित्रण समग्रता एवं सूक्ष्मता लिये हुए है। प्रकृति चित्रण की समग्रता से अभिप्राय यह है कि प्रसाद जी की दृष्टि प्रकृति के सभी रूपों और पक्षों की ओर गई है। प्रकृति के विराट् रूप में उन्होंने हिमालय का वर्णन किया है। प्रलय वर्णन में प्रकृति का कठोर रूप चित्रित है। उषा आदि के चित्रण में प्रकृति का कोमल रूप देखने को मिलता है। ‘आशा सर्ग’ का उदाहरण लीजिए नीचे दूर-दूर विस्तृत था उर्मिल सागर व्यथित अधीर। अन्तरिक्ष में व्यस्त उसी सा रहा चन्द्रिका निधि गम्भीर॥
5. वेदना का चित्रण – छायावादी कवियों ने प्रायः वेदना को अधिक महत्त्व दिया है। ‘आँसू’ में प्रसाद जी ने अपने ‘आँसू’ ही बहाये हैं। ‘ग्रन्थि’ में पन्त जी ने अपनी ही ‘गाँठ’ खोली है। ‘आशा सर्ग’ में मन की वेदना पर दृष्टिपात कीजिए-
तो क्या फिर मैं और जिऊँ
जीकर क्या करना होगा?
देव ! बता दो अमर वेदना लेकर कब करना होगा?
6. रहस्यात्मकता- छायावादी कवि मानता है कि समस्त सृष्टि का कार्य व्यापार किसी परोक्ष सत्ता द्वारा हो रहा है। इतना ही नहीं, वह प्रकृति के अणु-अणु में उस सत्ता का दर्शन करता है। उसे नदी की कलकल, झरनों की झिरझिराहट और पक्षियों की चहचहाहट में किसी परोक्ष सत्ता की अनुभूति होती है। आशय यह है कि छायावादी कवि प्रकृति के समस्त कार्य व्यापार में किसी अदृश्य की प्रेरणा स्वीकारता है। इसीलिए मनु नक्षत्रों एवं तारागणों से पूछते हैं-
महा नील इस परम व्योम में
अन्तरिक्ष में ज्योतिर्मान।
ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण
किसका करते वे संधान ॥
7. मानवीकरण- परन्तु छायावादी कवि ने प्रकृति में मानवीय भावनाओं का आरोप किया। छायावादी कवि कहीं-कहीं पर उससे कुछ सीखने और ज्ञान प्राप्त करने को भी व्याकुल दिखता है। हिमालय के मानवीकरण का एक रूप देखिए ‘अचल हिमालय का शोभनतम लता कलित शुचि सानु शरीर।
निद्रा में सुख-स्वप्न देखता जैसे पुलकित हुआ अधीर।” इस प्रकार छायावादी युग में प्रकृति के प्रति गहरा प्रेम व्यक्त किया गया है। वह कवि की अभिन्नहृदया के रूप में उसके सम्पूर्ण सुख-दुःखों की सहभागिनी के रूप में व्यक्त हुई है।
8. आशा और निराशा के वर्णन- छायावादी कवि को यह संसार द्वन्द्वों से भरा हुआ अशान्त एवं विषाद युक्त दिखता है। इसीलिए वह किसी आनन्दलोक कल्पना करता है। कामायनी के मनु ने भी अपने विगत वैभव को क्षण भर में विनष्ट होते देखा था, इसलिए उसमें जीवन के प्रति आशा के उदित होने पर भी विगत की स्मृति होने से मन में खिन्नता भर जाती है और वह अपने को एकदम असमर्थ स्वीकारते हैं-
“देव न थे हम और न ये हैं
न सब परिवर्तन के पुतले
हाँ कि गर्व रथ में तुरंग-सा
जितना जो चाहे जुत ले ॥”
9. प्रेम का वर्णन छायावादी कविता में मार्मिक प्रणयानुभूति की प्रधानता है। विरह-वेदना उनका मूल स्वर है। आशा सर्ग में घटना विशेष के न होने से यद्यपि इस तत्त्व को महत्त्व नहीं मिला है तथापि भावी मिलन-सुख की परिकल्पना से मनु का मन प्रफुल्ल हो उठता है। वे बिखरी हुई ज्योत्सना को रजनी का नग्न गात समझने लगते हैं जिससे जगत् उनको उसका आनन्द लूटता हुआ प्रतीत होता है-
फटा हुआ था नील बसन क्या
जो यौवन की मतवाली।
देख अकिंचन जगत लुटता
तेरी छवि भोली-भाली ॥
यह मनु के प्रणयी हृदय की अनुभूति है क्योंकि उनके मन में किसी साथी के प्रति जिज्ञासा जाग उठी है।
10. भाषा की लाक्षणिकता – मन की सूक्ष्म भावनाओं को चित्रित करने के लिए भाषा की अभिधाशक्ति असमर्थ सिद्ध हुई, अतः कवि को व्यंजना के क्षेत्र में नवीन प्रयोग करने पड़े। छायावादी कवियों ने भाषा को लक्षणा और व्यंजना शक्ति से संयुक्त कर समर्थ बनाया है। कामायनी में भाषा में लाक्षणिकता का आद्यन्त दर्शन होता है। देखिए-
“धीर समीर परस से पुलकित
विकल हो चला भ्रान्त शरीर।
आशा की उलझी अलकों से
उठी लहर मधु गंध अधीर।।”
11. चित्रात्मकता- छायावादी कवि शब्दों द्वारा चित्रों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है। आशा सर्ग से कुछ चित्रों की बानगी लीजिए—
उषा सुनहले तीर बरसती
जय लक्ष्मी सी उदित हुई।
उधर पराजित काल रात्रि भी
जल में अन्तर्निहित हुई।
12. नव्य उपमान योजना – अलंकारों के प्रयोग में भी छायावादी कवियों ने नवीन प्रयोग किये हैं। स्थूल से सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमानों की योजना की यहाँ तक कि सूक्ष्म के लिए सूक्ष्म उपमानों को भी ग्रहण किया। सूक्ष्म के लिए प्रयुक्त सूक्ष्म उपमान का एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
“यह क्या मधुर स्वप्न सी झिलमिल
सदय हृदय में अधिक अधीर।
व्याकुलता सी व्यक्त हो रही
आशा बनकर प्राण समीर।।”
छायावादी कवियों ने मनवीकरण और ध्वनिव्यंजनात्मक जैसे पाश्चात्य अलंकारों को भी अपनाया है। कामायनी में इसके प्रचुर उदाहरण हैं।
निष्कर्ष – संक्षेप में, आशा सर्ग में छायावादी की उपर्युक्त विशे देखने मिलती हैं।
IMPORTANT LINK
- राजनीति विज्ञान के वर्तमान पाठ्यक्रम के गुण एंव दोष
- समावेशी शिक्षा की अवधारणा एवं इसके उद्देश्य | Concept and Objectives of Inclusive Education in Hindi
- अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक | factors affecting learning in Hindi
- सीखने में अभिप्रेरणा का क्या महत्व है? What is the importance of motivation in learning?
- अध्यापक शिक्षा योजना | teacher education scheme in Hindi
- विद्यालय में किस प्रकार के संसाधनों की आवश्यकता होती है और क्यों?
- शिक्षक एवं सामाजिक परिवर्तन | Teachers and Social Change in Hindi
- शिक्षण प्रक्रिया में अध्यापक के महत्त्व | अध्यापक प्रशिक्षण की आवश्यकता | अध्यापक की जवाबदेहिता का क्षेत्र
- स्कूल और प्रौढ़ शिक्षा में आई.सी.टी. पद्धतियों के संवर्द्धन
- शिक्षण व्यवसाय संबंधी आचार संहिता | Code of Conduct for Teaching Profession in Hindi
- अध्यापक आचार संहिता के लक्षण | Characteristics of teacher code of conduct in Hindi
- अध्यापक शिक्षा का उद्देश्य | Objective of teacher education in Hindi
- एक अच्छे अध्यापक के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक गुण
- अध्यापक शिक्षा से सम्बन्धित समस्याएँ | problems related to teacher education in Hindi
- अध्यापक की व्यवसायिक अथवा वृतिक प्रतिबद्धता
- शिक्षकों की विभिन्न भूमिकाओं तथा तथा जिम्मेदारियों का वर्णन कीजिए।
- अध्यापक द्वारा जवाबदेही के स्वमूल्यांकन हेतु किन तथ्यों को जाँचा जाना चाहिए।
- विद्यालयी शिक्षा में जवाबदेही से क्या अभिप्राय है यह कितने प्रकार की होती है?
- व्यवसाय के आवश्यक लक्षण | Essential Characteristics of Business in Hindi
- अध्यापक के व्यवसायिक गुण | professional qualities of a teacher in Hindi
- शिक्षकों की जवाबदेही किन तत्त्वों के सन्दर्भ में की जानी चाहिए।
- राजनीति विज्ञान अध्यापक के व्यक्तित्व से सम्बन्धित गुण
- शिक्षा के क्षेत्र में स्वैच्छिक एजेन्सियों (NGOs) की भूमिका
- राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् के संगठनात्मक ढाँचे
- इंटरनेट तथा ई-मेल क्या है?
- राजनीति विज्ञान में पठन-पाठन सामग्री का विकास करते समय किन गुणों का ध्यान रखा जाना चाहिए?
- कम्प्यूटर पर टिप्पणी लिखियें।
- स्लाइड प्रोजेक्टर की संरचना में कितने भाग होते है?
- शिक्षा यात्रा से आप क्या समझते है?
Disclaimer