कर्ण की रचना एवं कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
Contents
कर्ण (कर्णेन्द्रिय)
नेत्रों की तरह कान भी एक ज्ञानेन्द्रिय है। इस ज्ञानेन्द्रिय का भी शिक्षा में विशेष महत्व है। बालक को विद्यालय में पुस्तक पढ़ना और वस्तुओं को देखना भर ही नहीं होता, वरन् अध्यापक के द्वारा पढ़ाए पाठ को सुनना भी होता है।
कर्ण (कर्णेन्द्रिय) की रचना :
कर्णेन्द्रिय के तीन भाग होते हैं—(1) बाह्य कर्ण, (2) मध्य कर्ण, और (3) अन्तस्थ कर्ण
1. बाह्य कर्ण
बाह्य कर्ण-कान का बाहर निकला हुआ भाग है, जिसे सामान्यतः कर्ण कहा जाता है, इसमें कर्ण-शुष्कली (Pinna) या कर्ण-पालिया-ढाँचा होता है जो ध्वनियों की तरंगों को एकत्र करने का काम करता है। यह कोमल अस्थियों का बना होता है। यह श्रवण-नलिका (Auditory Canal) में खुलता है जो कि सधा इंच लम्बी होती है और जिसका ढलाव भीतर और आगे कर्ण-पटल (Ear Drum) की ओर अभिमुख होता है। इस पर एक पतली कला का आवरण चढ़ा होता है जिसमें छोटे-छोटे रोएँ होते हैं और जिसमें कान का मोम (Ear Wax) बनाने वाली मन्थियाँ होती हैं। रोएँ तथा मोम कान में बाहर से प्रवेश करने वाली धूल के कणों को रोक लेते हैं अन्यथा वह धूल के कण कर्ण-पटल में भीतरी प्रवेश कर रोग उत्पन्न कर सकते हैं। श्रवण नलिका का भीतरी सिरा एक पतली वृत्ताकार कला से बन्द होता है। उसे कर्ण-पटल (Ear Drum or Tympanum) कहते हैं। यह बाह्य कर्ण को मध्य कर्ण से पृथक् करता है। जब ध्वनि तरंगे कर्ण-पटल के समीप पहुँचती हैं तो उनके अनुरूप उसमें एक कम्पन होता है।
2. मध्य कर्ण
कर्ण-पटल के परे खोपड़ी की अस्थि में एक छोटा गर्त है जिसे मध्य कर्ण कहते हैं; इसमें तीन अस्थियों का एक ताँता होता है जो किसी गर्त की छत तथा दीवारों से अस्थि-स्नायुओं द्वारा लटकती रहती है। अपनी आकृति के कारण इन अस्थियों को मुग्दर (Hummer or Malleus), नेहाई (Anvial or Incus) तथा रकाव (Stirrup or Stapes) कहते हैं। रकाव का जो भाग रकाव में पाँव रखने की प्लेट के समान है, वह भीतर की ओर अन्तःकर्ण के अण्डाकार छिद्र में खुलता है। इसके नीचे की ओर एक छिद्र है। यह छिद्र एक पतली कला से बन्द रहते हैं।
चित्र से स्पष्ट है कि ये तीनों अस्थियाँ आपस में सन्धियों द्वारा सम्पर्क में रहती हैं। मुग्दर का हत्या कर्ण-पटल में दृढ़ता के साथ जुड़ा होता है और उसका सिर निहाई से सम्बन्धित होता है तथा यह स्वयं रकाव से सम्बन्धित होती है। इन अस्थियों का काम कर्ण-पटल के कम्पनं को अन्तस्थ कर्ण में प्रवेश कराना है। भीतर की ओर एक संकरा मार्ग होता है जिसे कंठकर्ण नली (Eustachian Tube) कहते हैं। यह नली प्रसनी-गुहा (Pharynx) तक जाती है। मध्य कर्ण का गर्त बाहर की वायु से ध्वनि ग्रहण करने का काम करता है और इस प्रकार कर्ण-पटल के दोनों ओर वायु-दबाव सन्तुलित हो जाता है, यदि ध्वनि तीव्र होती है तो वायु मुखकण्ठ में प्रवेश कर जाती है और इस प्रकार कर्ण-पटल की फटने से रक्षा हो जाती है। इसी नलिका के मार्ग से होकर गले से सूजन मध्य कर्ण में जा सकती है। बालक प्रायः इस सूजन से प्रस्त रहते हैं। भयंकर ठण्ड या जुकाम या एडिनाइड्स के बढ़ने से इस मार्ग के अवरुद्ध हो जाने पर कर्ण-पटल (Tympanic Membrane) में तनाव आ जाता है। फलतः उसमें कम्पन नहीं हो पाता और सुनने में कठिनता होती है।
3. अन्तस्थ कर्ण
अन्तस्थ कर्ण एक तन्त्र है जिनकी रचना बड़ी पेचीदा है। यह कनपटी के अस्थि के भीतर स्थित है। इसके अत्यन्त पेचीदा होने के कारण इसे गहन या धूम-घुमैया (Labyrinth) कहते हैं। अस्थीय- गहन के भीतर एक बन्द कला की थैली कला-गहन (Membraneous Labyrinth) होती है। कला-गहन में एक स्वच्छ तरल पदार्थ अन्तर्लसीका (Endolymph) भरा रहता है।
गहन श्रवण तन्त्र का आवश्यक भाग होता है। यहीं पर श्रवण-नलिकाएँ आकर समाप्त हो जाती हैं। गहन के तीन भाग होते हैं—(1) कर्ण-कुटी (Vestibule), (2) कर्णावृत्त (Cochlea) और (3) अर्द्धवृत्ताकार नलियाँ (Semi-Circular Canals)।
अन्तस्थ कर्ण में कर्णकुटी केन्द्रीय गर्त का निर्माण करती है। यह सामने की कर्णावृत्त से तथा पीछे की ओर अर्द्धवृत्ताकार नलियों से ध्वनि ग्रहण करती है। उसकी बाहरी दीवार एक-एक कला होती है जो उसके अण्डाकार छेद को आवृत्त किए रहती है। यह रकाव के आकार से जुड़ी होती है।
कर्णावृत्त घोंघाकार होती है और कर्णकुटी के नीचे सामने की ओर स्थित रहती है। यह मध्य कर्ण से गोलाकार छेद से जुड़ी होती है जो कि कला में आवृत्त रहता है। झिल्लीय कर्णावृत्त में श्रवण तन्त्रिका (Auditory Nerve) के सिरे उनके तरल पदार्थ में तैरते हैं।
अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ कर्णकुटी के ऊपरी पिछले भाग से निकलती हैं। वे तीन होती हैं और तीन समलों में समकोण पर एक-दूसरे से सम्बन्धित होती हैं और कर्णकुटी के पाँच कुलावों के द्वारा जुड़ी होती हैं। उनमें से दो कर्णकुटी में खुलाव से पहले ही जुड़ जाती हैं।
श्रवण से उनका सीधा सम्बन्ध नहीं होता। उनका कार्य-शरीर के संतुलन को बनाए रखना है।
श्रवण-क्रिया
प्रत्येक ध्वनि वायु में कंपकंपी उत्पन्न करती है जिससे उसमें ध्वनि-लहरें चल पड़ती हैं। ध्वनि-लहरें बाह्य-कर्ण में एकत्र होती हैं और वहाँ श्रवण-नलिका में प्रवेश करती हैं और कार्य-पटल पर टकराती हैं और सारे तन्त्र-कर्ण पटल, तीनों अस्थियों अण्डाकार तथा गोल छेदों-को कम्पित कर देती हैं। इनकी सूचना तरल पदार्थ में तैरते हुए स्नायुओं के सिरों को मिलती है और संवेग मस्तिष्क के श्रवण केन्द्र में पहुँचाया जाता है, जहाँ पर वह ध्वनि की संवेदना उत्पन्न करता है।
IMPORTANT LINK
- नवजात शिशु की क्या विशेषताएँ हैं ?
- बाल-अपराध से आप क्या समझते हो ? इसके कारण एंव प्रकार
- बालक के जीवन में खेलों का क्या महत्त्व है ?
- खेल क्या है ? खेल तथा कार्य में क्या अन्तर है ?
- शिक्षकों का मानसिक स्वास्थ्य | Mental Health of Teachers in Hindi
- मानसिक स्वास्थ्य और शिक्षा का क्या सम्बन्ध है?
- मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ एंव लक्षण
- खेलों के कितने प्रकार हैं? वर्णन कीजिए।
- शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में खेल एंव खेल के सिद्धान्त
- रुचियों से क्या अभिप्राय है? रुचियों का विकास किस प्रकार होता है?
- बालक के व्यक्तित्व विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है?
- चरित्र निर्माण में शिक्षा का क्या योगदान है ?
- बाल्यावस्था की प्रमुख रुचियाँ | major childhood interests in Hindi
- अध्यापक में असंतोष पैदा करने वाले तत्व कौन-कौन से हैं?
Disclaimer