बाल मनोविज्ञान / CHILD PSYCHOLOGY

रुचियों से क्या अभिप्राय है? रुचियों का विकास किस प्रकार होता है?

रुचियों से क्या अभिप्राय है? रुचियों का विकास किस प्रकार होता है?
रुचियों से क्या अभिप्राय है? रुचियों का विकास किस प्रकार होता है?

रुचियों से क्या अभिप्राय है? रुचियों का विकास किस प्रकार होता है? बालक की रुचियों को ज्ञात करने की मुख्य विधियाँ कौन-कौन सी हैं ?

बालक के जीवन में रुचियों का महत्त्वपूर्ण स्थान और कार्य है, क्योंकि व्यक्ति क्या और कैसे करेगा, यह बहुत कुछ उसकी रुचियों द्वारा ही निर्धारित होता है। रुचियाँ एक प्रकार की सीखी हुई अभिप्रेरणाएँ हैं। जब एक व्यक्ति अपनी पसन्द के आधार पर कोई कार्य करने को अथवा कोई क्रिया करने को स्वतन्त्र होता है तो वह व्यक्ति इन क्रियाओं को अपनी रुचि के आधार पर चुनता और करता है। बाल्यावस्था में बालकों के अधिगम के लिए रुचियाँ शक्तिशाली अभिप्रेरक का कार्य करती हैं। यह देखा गया है कि बच्चे जिन कार्यों और खेलों में अधिक रुचि रखते हैं, वे उनको करने और सीखने के लिए अधिक प्रयास करते हैं। वास्तविक रुचियाँ बालक के जीवन में अधिक स्थायी होती हैं। बालकों के जीवन में इनका महत्त्व इसलिए अधिक है कि यह अधिगम के लिए अभिप्रेरणा स्रोत (Source of Strong Motivation to Learn ) हैं ।

रुचियों का अर्थ-

गिल्फोर्ड (1964) के अनुसार, “रुचि वह प्रवृत्ति है, जिससे हम किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया की ओर ध्यान देते हैं, उससे आकर्षित होते हैं या सन्तुष्टि प्राप्त करते हैं।”

आइजेनक और उनके साथियों (1972) के अनुसार, “रुचि व्यवहार की वह प्रवृत्ति है, जो कुछ वस्तुओं, क्रियाओं या अनुभवों के प्रति कार्य कर सकने में समर्थ होती है। तीव्रता (और सामान्यीकरण) में यह प्रवृत्ति व्यक्ति से व्यक्ति में परिवर्तित होती रहती है। “

रुचि और भाव में अन्तर है। भाव में सुख-दुख अथवा इन दोनों की मिश्रित अनुभूति होती है, जबकि रुचि में व्यक्ति को केवल सुख की ही अनुभूति होती है। रुचि और अभिवृत्ति (Attitude) में भी सम्बन्ध है। रुचि वस्तु, व्यक्ति और अनुभव आदि के प्रति धनात्मक ही होती है, जबकि अभिवृत्ति धनात्मक भी हो सकती है और ऋणात्मक भी हो सकती है। रुचि और सनक (Whim) में भी अन्तर है। सनक एक स्थायी रुचि है, परन्तु जब यह अधिक दिनों तक बनी रहती है तो यह रुचि से भी अधिक शक्तिशाली बन जाती है। सनक अस्थायी सन्तुष्टि प्रदान करती है। अतः इसकी तीव्रता भी जल्दी-जल्दी परिवर्तित होती रहती है। रुचियाँ योग्यता से भी घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। जब किसी बालक में योग्यता के साथ रुचियाँ पाई जाती हैं तो उस व्यक्ति के उन्नति करने की सम्भावना अधिक रहती है। रुचियाँ बालक की पसन्दों और नापसन्दों से भी घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। रुचियाँ बालक को आनन्द प्रदान करती हैं; उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति पढ़ने में रुचि रखता है तो उसे पढ़ने में आनन्द आता है; दूसरी ओर यदि एक बालक पढ़ने में रुचि नहीं रखता है और फिर भी उसे पढ़ना पड़ता है तो पढ़ना उसे एक बोझ के समान लगता है

रुचियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आजकल के मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि रुचियाँ सीखी हुई प्रवृत्तियाँ हैं, परन्तु सुपर (D. E. Super, 1962) का इस सम्बन्ध में विचार है कि “Interests are the product of interaction between inherited aptitudes and endocrine factors on one hand, and opportunity and social evaluation on the other.” अध्ययनों में यह देखा गया है कि यदि कोई व्यक्ति बाल्यावस्था में कुछ रुचियों को सीखने से वंचित रह जाता है तो इसके लिए उसे जीवन-भर कष्ट उठाना पड़ सकता है। कुछ व्यक्तियों को इस सम्बन्ध में दुःख प्रकट करते भी देखा गया है कि उन्होंने बचपन में अमुक रुचियों को विकसित नहीं किया। इसका अर्थ यह नहीं है कि रुचियों का विकास केवल बाल्यावस्था में ही होता है। रुचियाँ तो जीवन पर्यन्त कभी भी सीखी जा सकती हैं। यह बात और है कि बच्चों के पास समय और अवसर की अधिकता होने से नई रुथियों को सीखना अधिक आसान होता है।

रुचियों का विकास (Development of Interests)

रुचियों का विकास अधिक अनुभवों के आधार पर होता है। कितनी मात्रा में और किस प्रकार की रुचियों का विकास होगा, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि बालक का अधिगम किस प्रकार का है। इस दिशा में तीन प्रकार की व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं-

1. बच्चे प्रयत्न और भूल (Trial and Error) अधिगम द्वारा ही रुचियों को सीखते हैं। इस प्रकार से सीखी गई रुचियाँ अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होती हैं। यह रुचियाँ कई बार सनक (Whim) में भी परिवर्तित हो जाती हैं। बहुधा देखा गया है कि इस प्रकार रुचियों के सीखने में यदि बालक को निर्देशन (Guidance) दिया जाय तो बालक को रुचियाँ सीखने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं।

2. बच्चे तादात्मीकरण (Identification) के द्वारा भी अनेक रुचियों का अधिगम करते हैं। बहुधा देखा गया है कि बच्चे उन व्यक्तियों में तादात्मीकरण स्थापित करते हैं, जो बच्चों को प्यार करते हैं या उनकी प्रशंसा करते हैं। प्रशंसा और प्यार करने वाले व्यक्तियों के व्यवहार को बालक तो सीखता ही है, साथ ही साथ वह रुचियों को भी सीखता है। इस विधि द्वारा रुचियों के अधिगम के लिए आवश्यक है कि बालक में उसी प्रकार की योग्यताएँ और कुशलताएँ हों, जैसी कि उस व्यक्ति में जिसकी रुचियों का बालक अनुकरण कर रहा है।

3. बालक में रुचियों का विकास निर्देशन (Guidance) के द्वारा भी किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि निर्देशन उसी व्यक्ति के द्वारा दिया जाय, जो बालक की योग्यताओं का मूल्यांकन कर सके और निर्देशन दे सके। इसके लिए आवश्यक है कि निर्देशनकर्त्ता अनुभवी और प्रशिक्षित (Trained) हो ।

बालकों की रुचियों के विकास को समझने के लिए आवश्यक है कि बालकों की रुचियों की विशिष्टताओं को भी समझा जाय। बालकों की रुचियों से सम्बन्धित कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार से हैं-

1. बालकों की रुचियों का विकास बालकों के शारीरिक और मानसिक विकास के समानान्तर (Parallel) होता है। बालकों के शारीरिक और मानसिक विकास के साथ बालक की रुचि विभिन्न आउटडोर खेलों में बढ़ती जाती है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि बालकों की रुचियों में परिवर्तन उस समय तक अधिक होते हैं, जब तक उनके शारीरिक और मानसिक विकास में परिवर्तन होते रहते हैं। जब शारीरिक और मानसिक विवृद्धि की गति मन्द हो जाती है, तब बालक की रुचियों में परिवर्तन भी अपेक्षाकृत कम होते हैं।

2. बालकों की रुचियों का विकास बालकों की सीखने की तत्परता (Readiness to Learn) पर निर्भर करता है। बालक जब तक शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होता है तब तक सीखने की तत्परता का अभाव होगा और “वह रुचियों को सीखने में असमर्थ होगा। उदाहरण के लिए, बालक गेंद खेलने में तभी रुचि ले सकता है जब वह बैठना, खड़े होना और चलना सीख ले।

3. रुचियों का विकास सीमित (Limited) हो सकता है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि जिन बच्चों का शारीरिक विकास दोषपूर्ण होता है, उनकी रुचियों का विकास सामान्य बालकों की भाँति नहीं होता है। इसी प्रकार मानसिक विकास भी बालकों की रुचियों के विकास को सीमित करता है। उदाहरण के लिए, मानसिक रूप से दुर्बल बालकों की पढ़ाई-लिखाई में सीमित रुचि होती है

4. बालकों की रुचियों का विकास सीखने के अवसरों से प्रभावित होता है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि शारीरिक और मानसिक रूप से तत्पर बालकों को तब तक सीखने के अवसर प्राप्त नहीं होते हैं, जब तक उनमें उपयुक्त और आवश्यक रुचियों का विकास नहीं होता है। छोटे बच्चों की रुचियों को विकसित करने के अवसर अधिकांशतः परिवार, पड़ोस तथा स्कूल तक सीमित होते हैं। अतः इनसे बच्चों को जो और जिस प्रकार के सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं, वैसी ही रुचियों का विकास बालक में होता है।

5. रुचियों का विकास सांस्कृतिक कारकों (Cultural Factors) से प्रभावित होता है। सांस्कृतिक कारक बालकों की अधिगम सुविधाओं को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, बालक को अधिगम की सुविधाएँ उसके माता-पिता, परिवारीजनों, गुरुजनों एवं अन्य परिचितों और मित्रों द्वारा प्राप्त होती हैं। इन सबसे बालकों को केवल उन्हीं रुचियों को सीखने और विकसित करने का अवसर मिलता है, जो समूह और समाज द्वारा उपयुक्त समझी जाती हैं अर्थात् वे रुचियाँ जो संस्कृति का अंग होती हैं।

बालकों की रुचियों को ज्ञात करने की विधियाँ (Methods of Discovering Children’s Interests)

बालकों की रुचियों को ज्ञात करने की अनेक विधियाँ हैं। इनमें से एक समय में केवल एक या कुछ ही विधियों का उपयोग बालक की रुचियों को ज्ञात करने के लिए किया जाता है। इनमें से कुछ प्रमुख विधियाँ निम्न प्रकार से हैं-

1. बालक द्वारा पूछे गये प्रश्नों (Questions) के आधार पर भी उनकी रुचियों का अध्ययन किया जा सकता है। बहुधा यह देखा गया है कि बालक उन वस्तुओं और क्रियाओं आदि के सम्बन्ध में अधिक प्रश्न पूछते हैं, जिनमें वह रुचि अधिक रखते हैं।

2. बड़े बालकों की रुचियों के अध्ययन के लिए बहुधा मानकीकृत रुचि परीक्षणों (Interest Tests) का उपयोग किया जाता है। इन परीक्षणों में कुछ परीक्षणों में विभिन्न चित्रों के द्वारा रुचियों का मापन किया जाता है तथा अन्य परीक्षणों में प्रश्नों की सहायता से रुचियों का मापन किया जाता है। शैक्षिक, व्यावसायिक और सामान्य रुचियों के अध्ययन के लिए अनेक प्रकार के मानकीकृत परीक्षण उपलब्ध हैं।

3. बालक की क्रियाओं के निरीक्षण (Observation) द्वारा उसकी रुचियों को ज्ञात करना होता है। बालक की दैनिक जीवन की क्रियाओं का निरीक्षण करके उसकी रुचियों को ज्ञात किया जा सकता है। वह किस प्रकार के खिलौनों से खेलता है, वह कौन-कौन से खेल खेलता है, वह किस प्रकार की वस्तुओं और खिलौनों का संग्रह करता है, आदि क्रियाओं के निरीक्षण द्वारा यह सरलता से पता लगाया जा सकता है कि बालक की किन चीजों में रुचि अधिक है और किन चीजों में कम है।

4. बालक की रुचियों का अध्ययन बालक द्वारा की गई बातचीत (Conversation) द्वारा किया जाता है। बच्चे जिन वस्तुओं और व्यक्तियों के सम्बन्ध में अधिक बातचीत करते हैं, उनमें बहुधा उनकी रुचि अधिक होती है।

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Anjali Yadav

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