बालक के जीवन में खेलों का क्या महत्त्व है ? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
बालक के जीवन में खेल का महत्त्व
बालक के जीवन में खेल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उपुयक्त विकास के लिए खेल महत्त्वपूर्ण हैं।
1. क्रियात्मक विकास- खेल के माध्यम से बालकों को विभिन्न प्रकार की क्रियाओं के विभिन्न क्रियात्मक कौशलों के अभ्यास का अवसर प्राप्त होता है। क्रियात्मक विकास के लिए उपयुक्त समय पर अभ्यास आवश्यक है तथा खेल टप अभ्यास का अवसर प्रदान करते हैं।
2. शारीरिक विकास- खेल के द्वारा माँसपेशियों का व्यायाम होता है, भोजन के पचने में सहायता मिलती है, भूख अच्छी लगती है तथा इस प्रकार बालक के शारीरिक विकास के लिए खेल महत्त्वपूर्ण है। छोटा शिशु यद्यपि चल नहीं सकता है, फिर भी वह लेटकर हाथ-पाँव चलाकर खेलता रहता है, जिससे उसके शरीर का व्यायाम होता है। खेलों में रक्त संचार बढ़ता है। उत्सर्जी पदार्थों के शरीर से निकलने में सहायता मिलती है।वस्तुतः खेल व्यायाम का कार्य करता है, जो शारीरिक विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
3. संगी-साथियों से समायोजन- अपने हमउम्र अनेक बालकों के साथ खेलते समय उसे विभिन्न बालकों के साथ समायोजन सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं। उसमें सामाजिकता का विकास होता है। अनेक बालकों के सम्पर्क में आने पर एक-दूसरे के विचार तथा भावनाओं का आदान-प्रदान होता है। बालक में नेतृत्व, आज्ञापालन, सामूहिकता आदि गुणों का विकास होता है।
4. संवेगों का रेचन (Catharsis of emotions)- फ्रायड तथा एरिकसन के अनुसार, खेल के द्वारा विगत संवेगों के दुःखद् प्रभाव से मुक्ति मिलती है तथा विगत निराशाओं के लिए खेल के द्वारा काल्पनिक मुक्ति मिलती है। जब बालक इन तनावों से मुक्त हो जाता है तो वह वर्तमान जीवन की समस्याओं से अधिक क्षमतापूर्वक मुकाबला करने के योग्य बनता है। इसी आधार पर अनेक मनोवैज्ञानिकों तथा मनोचिकित्सकों ने बालकों की गम्भीर समस्याओं के निराकरण के लिए खेल चिकित्सा का सुझाव दिया है।
5. अन्वेषक प्रवृत्ति का विकास- डेनियल बर्लीन के अनुसार, खेल के माध्यम से व्यक्ति को अपनी जन्मजात अन्वेषक प्रवृत्ति को सुखद परिस्थिति में सन्तुष्ट करने का अवसर मिलता है। इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति में जिज्ञासा होती है तथा कई अभिनव अनुभव अथवा वस्तु की जानकारी प्राप्त करने की इच्छा होती है। खेल के माध्यम से अन्वेषक व्यवहार विकास का अवसर मिलता है। इस प्रकार खेल का बालक के सर्वांगीण विकास में बहुत अधिक महत्व है।
6. खेलों का शैक्षिक महत्त्व- खेल के माध्यम से शिक्षा का महत्त्व अनेकों शिक्षाविदों ने स्वीकारा है। इनमें फ्रोबेल, मैडम मान्टेसरी के नाम अग्रणी हैं। वस्तुतः खेल शिक्षा को सरस, रुचिकर एवं आसान बनाते हैं। खेलों के द्वारा बालक अपने वातावरण की वस्तुओं, स्थितियों एवं सूचनाओं को आसानी से समझ एवं ग्रहण कर लेता है। खेल द्वारा शिक्षण प्रणाली को भी अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है। कहानी, कविता के रूप में कठिन पाठ भी आसान बनाकर बालक को कंठस्थ कराये जा सकते हैं। खेल शैक्षिक रचनात्मक एवं सृजनात्मक क्रियाओं के विकास में भी काफी सहायक हैं।
7. ‘स्वयं’ का विकास- खेल का मैदान बालक को उसकी व्यक्तिगत मान्यता प्रदान करता है। वहाँ बालक अपनी क्षमताओं को खुलकर प्रगट कर पाता है तथा उनका स्तर स्वयं दूसरों से तुलना कर सुधारने का प्रयत्न करता है। व्यक्ति के रूप में अपनी रुचियाँ समझना एवं प्रगट करना सीखता है। स्वयं के बारे में उसकी अपनी धारणा भी खेलों के माध्यम से स्पष्ट होती है।
8. भाषा का विकास- आरम्भ से ही बालक सबसे अधिक भाषा का प्रयोग अपने मित्र समूह में करता है। वस्तुतः वहाँ उसे भाषा की सर्वाधिक आवश्यकता पड़ती है। बालक के शब्द-कोष में नित्य नये शब्द संगी-साथियों के शब्द-कोष से आकर जुड़ते हैं। नये शब्दों का प्रयोग भी बालक मित्र समूह में ही आजमाता है, क्योंकि वहाँ उन्हें कोई सही करने वाला अथवा टोकने वाला नहीं होता।
9. भविष्य की भूमिका का अभ्यास– खेल के माध्यम से बालक अपनी भविष्य में अपनाई जाने वाली भूमिका का अभ्यास भी करते हैं। स्वयं अपने लिए तय की गई भूमिकाओं की तुलना खेल ही खेल में अन्य बालकों द्वारा अपनाई गई भूमिकाओं से करते हैं तथा इस प्रकार उन्हें अनेक विकल्प प्राप्त हो जाते हैं। इन विकल्पों में से उचित भूमिका चुनाव करने में खेल अत्यन्त सहायक होते हैं।
10. संज्ञानात्मक विकास में सहायक (Helpful in cognitive development)- ज्या पियाजे के अनुसार, खेलों के माध्यम से बालकों के संज्ञानात्मक विकास में सहायता मिलती है। खेल के द्वारा बालक अपनी क्षमताओं तथा अर्जित कौशलों के स्तर की जाँच तनावरहित परिस्थिति में करते हैं। पियाजे के अनुसार, संज्ञानात्मक संरचना जो बालक ने सीखी है, उसका उपयोग तथा अभ्यास आवश्यक है। खेल उसे अभ्यास तथा उपयोग का अवसर प्रदान करते हैं।
11. नैतिक विकास में खेलों का योगदान- खेल में बालक खेल के नियमों पर चलता है, तभी उसे खेल-समूह में स्थान एवं मान्यता मिल पाती है। यहीं से वह समाज द्वारा नैतिक गुणों से परिचित होता है तथा उन्हें स्वीकार करना सीखता है। निष्पक्षता, सत्य, आत्मसंयम, बड़ों का सम्मान करना, छोटों की भूलों को भूल जाना, अपनी हार मुस्करा कर स्वीकार कर लेना—यह सभी नैतिक मूल्य बालक खेल समूह में ही सीखता है। समूह नैतिक मूल्य न मानने पर बालक को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि उसका अस्तित्व इनके बिना असंयत है। खेल के मैदान में वही बालक सर्वाधिक लोकप्रियता पाता है, जो नैतिक मूल्यों को स्वीकार कर व्यवहार में लाता है तथा प्रत्येक बालक समूह द्वारा स्वीकृत होने की लालसा रखता है। अतः स्वतः ही नैतिक मूल्यों को अपना लेता है।
12. विभिन्न समायोजनों में सहायता– बालक के खेल उसे विभिन्न शारीरिक क्रियात्मक, संवेगात्मक, सामाजिक गुण प्रदान कर मानसिक योग्यताएँ प्रदान करके भाषा के विकास में सहयोग कर उसके जीवन में आने वाले विभिन्न समायोजन को आसानी से स्थापित करने में सहायता देते हैं। निर्णय लेना, समस्या का समाधान करना बालक खेल के मैदान में सीख लेता है। परिवार में, स्कूल में तथा अन्य सामाजिक क्षेत्रों में बालक के सामाजिक, नैतिक गुण उसका शारीरिक सौष्ठव उसका समायोजन सरल कर देता है।
13. खेल अनुभव प्रदान करते हैं- खेल के दौरान बालक अनेकों ऐसे अनुभव करता है, जो उसे घर, स्कूल, किताब कभी नहीं दे सकतीं। वह अपना वातावरण स्वयं अन्वेषित करता है। साथियों, अभिभावकों तथा अन्य परिचितों के बारे में धारणा स्थापित करता है। पशु-पक्षियों जानवरों के जीवन के बारे में जानकारी करता है। प्रकृति को करीब से देखकर उसके बारे में ज्ञान बढ़ाता है। खेल के अनुभव उसके मौलिक अनुभव होते हैं, जो उस पर बड़ों द्वारा प्रत्यारोपित नहीं होते। अनुभव उसके सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ाते हैं तथा बौद्धिक विकास के क्षेत्र में भी सहयोग करते हैं।
14. रचनात्मक प्रवृत्तियों का विकास- खेल बालकों में रचनात्मक प्रवृत्ति उत्पन्न एवं विकसित करते हैं। खेलों में नयापन लाने की प्रकृति बालक की अवस्था बदलने के साथ-साथ उत्पन्न होती है। प्रयोगात्मक अनुभव बालक को सदैव अधिक सन्तुष्टि प्रदान करते हैं। यही प्रयोगात्मक अनुभव बालक को रचनात्मक प्रवृत्तियों की ओर प्रेरित करते हैं।
खेल का महत्त्व स्वीकार करने के पश्चात् विद्वानों ने खेलों को अनेक शिक्षण विधियों का आधार बनाया है। इन शिक्षण विधियों में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, वैयक्तिक, शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का ध्यान रखा जाता है। खेलों पर आधारित विधियाँ इस प्रकार हैं
1. प्रोजेक्ट (Project) प्रणाली- इस प्रणाली में कोई एक योजना ले ली जाती है। हर बालक अपनी क्षमता के अनुसार एक योजना का कार्य लेता है। इस पद्धति में बालक की वैयक्तिक तथा सामूहिक, दोनों प्रकार की उन्नति होती है। खेल-खेल में ही वे जीवन की समस्याओं को हल करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर लेते हैं।
2. डाल्टन (Dalton) योजना– इस योजना में बालकों को उसकी क्षमता के अनुसार कार्य बाँट दिया जाता है। बालक सामूहिक रूप में कार्य करते हैं।
3. मांटेसरी (Montessori) प्रणाली- मांटेसरी प्रणाली में छोटे-छोटे बालकों को खेल द्वारा शिक्षा दी जाती है। छोटे बच्चे खेल में अधिक रुचि लेते हैं। अनेक प्रकार की रंग-बिरंगी सामग्रियों के द्वारा बच्चे लिखना, पढ़ना, गिनती तथा सामान्य ज्ञान प्राप्त करते हैं। समस्त कार्य खेल द्वारा ही किया जाता है।
इसके अतिरिक्त किण्डरगार्टन, बुनियादी शिक्षा, डैकरोली योजना, बिनेटिका योजना भी खेल पर ही आधारित हैं। खेल का शिक्षा में महत्त्व इसी बात से प्रकट हो जाता है कि इसको आधार मानकर शिक्षा की योजनाओं का विकास किया गया है। साथ ही शिक्षा में सर्वांगीण विकास के लक्ष्य को पूरा करने के लिए खेलों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया है। फ्रोबेल के अनुसार—“विद्यालय ऐसा हो जहाँ पर बालक उसी प्रकार हँसता हुआ जाय, जैसे वह खेल के मैदान में जाता है।
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Disclaimer
Very good site issue mujhe bahut kuch sikhne main maddad Mila hai