बाल कल्याण एंव स्वास्थय / Child Care & Health

विटामिन के प्रकार एंव इसकी उपयोगिता

विटामिन के प्रकार एंव इसकी उपयोगिता
विटामिन के प्रकार एंव इसकी उपयोगिता

विटामिन पर एक लेख लिखिए।

विटामिन (Vitamins)

प्रारम्भ में लोगों का विश्वास था कि प्राणी के जीवन को सुखमय एवं शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए केवल प्रोटीन, कार्बोज, वसा, जल तथा खनिज लवणों की ही आवश्यकता होती है। परन्तु सन् 1881 में इस बात की सत्यता को जाँचने के लिए चूहों पर एक परीक्षण किया गया। इस परीक्षण में पाया गया कि चूहे को केवल उपर्युक्त पाँच तत्त्वों पर ही जीवित नहीं रखा जा सकता। इसके उपरान्त भी इस सम्बन्ध में कई परीक्षण किये गये। अन्त में, निष्कर्ष निकला कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए कुछ अन्य पोषक तत्त्वों की भी आवश्यकता होती है।

सन् 1912 में इन तत्त्वों को जीव तत्त्व अर्थात् विटामिन (Vitamins) या जीवनीय तत्त्व का नाम दिया गया, जिसका अर्थ है सूक्ष्म मात्रा में जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक पदार्थ। इन तत्त्वों से रहित भोजन अनेक प्रकार के हीनता रोग उत्पन्न करता है। इन रोगों के परिणामस्वरूप लोगों को मृत्यु तक का शिकार होना पड़ता है।

विटामिन की कमी के कारण शरीर में निम्नलिखित हानियाँ होती हैं-

  1. शरीर की सहन-शक्ति नष्ट हो जाती है।
  2. भोजन के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है तथा नींद में भी कमी आ जाती है।
  3. नेत्र दृष्टि निर्बल हो जाती है।
  4. बच्चों की हड्डियाँ मुड़ जाती हैं।
  5. शरीर में रोग के कीटाणुओं से लड़ने की शक्ति लगभग नष्ट हो जाती है तथा अधिक रोग उत्पन्न होने  लगते हैं।
  6. मनुष्य का स्वास्थ्य गिर जाता है।
  7. शरीर के तन्तुओं में भोजन द्वारा प्राप्त सार-पदार्थ को सोखने की शक्ति प्रायः नहीं रहती।
  8. दाँतों में पायरिया हो जाता है तथा मसूड़े रोगी हो जाते हैं।

‘अतः, स्वस्थ एवं सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए विटामिन भी अन्य तत्त्वों के समान नितान्त आवश्यक तत्त्व है। साधारणतः प्रत्येक भोज्य पदार्थ में कुछ न कुछ अंश विटामिन होता है, परन्तु कुछ पदार्थों में ये अधिकता से पाये जाते हैं। इसलिए सदैव ऐसे भोज्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए, जिनमें ये तत्त्व काफी मात्रा में हों।

विटामिन ‘बी’ तथा ‘सी’ गरमी पाकर बहुत अंश में नष्ट हो जाते हैं, इसलिए भोजन पकाते समय इन विटामिनयुक्त पदार्थों को बहुत अधिक गरम न किया जाये गरम करते समय उनको भली प्रकार ढक देना चाहिए ताकि उनकी भाप न निकल सके। भोजन पकाने या तलने में यदि मीठे सोडे (Baking powder) का प्रयोग किया जाता है तो भोजन से विटामिन ‘बी’, ‘सी’, ‘ई’ प्रायः पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं।

अभी तक छः प्रकार के विटामिनों की खोज की जा सकी है, परन्तु यह निश्चित करना सम्भव नहीं हो पाया कि किस भोज्य पदार्थ में उनकी पृथक्-पृथक् कितनी मात्रा होती है। कुछ विटामिन जल में घुलनशील होते हैं, जैसे-विटामिन ‘बी1’, ‘बी2’ तथा ‘सी’। विटामिन ‘ए’, ‘डी’, ‘ई’ और ‘के’ वसा में घुल जाते हैं। इन विटामिनों के सम्बन्ध में प्रारम्भिक जानकारी इस प्रकार है-

विटामिन ‘ए’ (Vitamin ‘A’)

यह विटामिन वसा में घुलनशील होता है। इसका शरीर में संचय किया जा सकता है। यह शरीर के उचित विकास एवं वृद्धि के लिए बहुत ही आवश्यक तत्त्व है। इसके अभाव में शरीर अनेक रोगों का शिकार बन जाता है।

उपयोगिता-
  1. इसके सेवन से शरीर में रोगों के आक्रमण को रोकने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है इसलिए इसे रोग-निरोधक तत्त्व कहते हैं।
  2. शरीर के पूर्ण विकास में यह सहायक होता है। हड्डियों के निर्माण तथा वृद्धि के लिए यह अनिवार्य तत्त्व है।
  3. यह हमारे शरीर में श्वसन तन्त्र एवं अन्य तन्त्रों की श्लेष्मिक झिल्ली की कोशिकाओं को स्वस्थ रखता है। यह उन्हें कार्य करने योग्य बनाये रखने में भी सहायता देता है।
  4. यह त्वचा के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
  5. यह पाचन क्रिया को ठीक रखता है।
  6. यह कैल्सियम के शोषण के लिए आवश्यक है।
  7. यह नेत्रों को स्वस्थ रखता है तथा प्रकाश प्राप्त करने में सहायक होता है।

विटामिन ‘ए’ के अभाव में शरीर की वृद्धि रुक जाती है और पूर्ण विकास में बाधा पड़ती है। नेत्रों में रतौंधी (Night Blindness) रोग हो जाता है और रोगी मन्द प्रकाश एवं अंधेरे में देख नहीं पाता है। चर्म शुष्क पड़ जाती है। श्वास-मार्ग की श्लेष्मिक कला अस्वस्थ हो जाती है, परिणामस्वरूप, श्वास सम्बन्धी संक्रामक रोग जैसे क्षय, निमोनिया, इन्फ्लुएंजा आदि होने की सम्भावना बढ़ जाती है तथा आमाशयिक व्रण भी हो सकता है।

साधन-यह विटामिन पशु प्रदत्त वसा जैसे घी, दूध, दही, पनीर, मक्खन, जिगर, अण्डा, माँस और मछली के तेल आदि में अधिकता से पाया जाता है। इन पदार्थों से प्राप्त विटामिन ‘ए’ बहुत लाभकारी होता है, किन्तु यह भोज्य पदार्थ महंगे होने के कारण निर्धन व्यक्तियों को उपलब्ध नहीं होते। हरी तथा पीली सब्जियों जैसे गाजर, टमाटर, सलाद, गोभी, लहसुन तथा अन्य हरी पत्ती वाले शाकों में, केला, आम, पपीता आदि फलों में केरोटीन (Carotene) नामक तत्त्व होता है, जो शरीर में विटामिन ‘ए’ में बदल जाता है। विटामिन ‘ए’ पर ताप का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। अतएव भोजन पकाने में यह नष्ट नहीं होता है।

दैनिक आवश्यकता – एक स्वस्थ व्यक्ति की विटामिन ‘ए’ की दैनिक आवश्यकता लगभग 3,000 से 5,000 यूनिट है, जो निम्नलिखित पदार्थों में से किसी एक के प्रयोग करने से प्राप्त होती है-

एक बूँद हैलिबट लिवर ऑयल, एक छोटी चम्मच कॉड लिवर ऑयल, लगभग 60 ग्राम पालक, लगभग 300 ग्राम मक्खन, लगभग 250 ग्राम टमाटर, लगभग 1½ लिटर दूध। 100 ग्राम हरी सब्जी से विटामिन ‘ए’ की सभी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है। निर्धन व्यक्ति भी हरी सब्जी का प्रयोग कर सकता है।

बालकों तथा गर्भवती स्त्रियों को विटामिन ‘ए’ की अपेक्षाकृत अधिक आवश्यकता होती है।

विटामिन ‘बी’ (Vitamin ‘B’)

यह विटामिन जल में घुलनशील होता है। इसका शरीर में संचय नहीं हो सकता। विटामिन ‘बी’ में कई विटामिन सम्मिलित हैं। इनमें बी1, बी2, बी3, बी6 तथा ‘बी12’ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

विटामिन ‘बी’ (Vitamin ‘Bi’) – यह जल में घुलनशील है। यह थायमिन (Thiamine) के नाम से पुकारा जाता है। यह शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने व उसका विकास करने के लिए परमावश्यक है। इसकी एक मिली ग्राम दैनिक आवश्यकता होती हैं|

उपयोगिता –
  1. शरीर की वृद्धि करता है तथा पेशियों के लिए नितान्त आवश्यक है।
  2. पाचन शक्ति में वृद्धि करता है।
  3. यह शरीर के आन्तरिक अवयवों को कार्य सम्पादन हेतु आवश्यक शक्ति प्रदान करता है।
  4. यह श्वेतसार और वसायुक्त पदार्थों के पूर्ण पाचन, शोषण एवं ज्वलन का कार्य करता है।
  5. मनुष्य की तन्त्रिका तन्त्र तथा हृदय सम्बन्धी रोगों से रक्षा करता है
  6. रक्त में रोग के कीटाणुओं से संघर्ष करने की क्षमता इसी विटामिन से प्राप्त होती है।

इसके अभाव में भूख मार जाती है, शरीर, निर्बल और आलसी होता जाता है, चक्कर आने लगते हैं। शरीर की क्रियाशीलता कम हो जाती है तथा मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है, शरीर के अंगों में खुजलाहट व पीड़ा होने लगती है। हाथ-पैरों में सूजन हो जाती है। बेरी-बेरी (Beriberi) नामक रोग इसी की न्यूनता के परिणामस्वरूप होता है।

साधन – विटामिन ‘बी’ खमीर, माँस, अण्डा, जिगर, सम्पूर्ण अनाजों विशेषकर उनके छिलकों में होता है। मटर, सेम, सोयाबीन, गाजर, गोभी, लहसुन, दूध आदि में इसकी मात्रा कम होती है। चावल को मिल द्वारा तैयार करना विटामिन ‘बी’ के नष्ट होने का कारण है। भारतवर्ष में विटामिन ‘बी’ का मुख्य स्रोत अनाज है, इनसे कुल आवश्यकता का 60-85 प्रतिशत प्राप्त होता है। बाल्यावस्था में यह मुख्यतः दूध से प्राप्त होता है।तीव्र ताप से या अधिक देर तक उबालने से यह विटामिन नष्ट हो जाता है। थोड़े समय तक उबालने की क्रिया को यह सहन कर लेता है।

दैनिक आवश्यकता – विटामिन बी की दैनिक न्यूनतम आवश्यकता लगभग एक मिलीग्राम होती है। इससे कम विटामिन की मात्रा मिलने पर हीनता के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। रुग्णावस्था में इसकी आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक होती है। गर्भवती तथा धात्री स्त्रियों के लिए प्रतिदिन 4 से 5 मिलीग्राम की आवश्यकता होती है। बालकों को लगभग 6 से 10 मिलीग्राम तक दैनिक आवश्यकता होती है।

विटामिन बी (Vitamin B2) – यह रिबोफ्लेविन (Riboflavin) के नाम से पुकारा जाता है। यह पीले रंग का दानेदार पदार्थ है तथा जल में घुलनशील होता है।

उपयोगिता – मनुष्य की युवावस्था की रक्षा के लिए यह विटामिन नितान्त आवश्यक है। इसके अभाव में मनुष्य दुर्बल तथा वृद्ध जैसा दिखने लगता है। यौवन का विकास रुक जाता है। व्यक्ति अनेक चर्म व नेत्र रोगों का शिकार हो जाता है। इसकी हीनता की सबसे प्रारम्भिक दशा में मुँह और होठों के दोनों कोनों पर त्वचा की श्लेष्मिक कला का रंग जाता रहता है। यह सफेद-सी हो जाती है। धिक हीनता होने पर जिह्वा की श्लेष्मिक कला नष्ट हो जाती है, उसमें गहरी दरारें-सी पड़ जाती हैं, होठों का रंग गहरा लाल हो जाता है तथा बाल झड़ जाते हैं, आँखें लाल हो जाती हैं एवं उनमें जलन होती है। कभी-कभी सुषुम्ना एवं तन्त्रिका की अन्य नाड़ियाँ भी हीनता के दोषों से प्रभावित हो जाती हैं और तब उनके अनुसार अन्य लक्षण प्रकट होते हैं। शरीर की स्फूर्ति जाती रहती है व बुढ़ापा जल्दी आ जाता है। ताप का इस पर कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता।

साधन – यह विटामिन दूध, पनीर, खमीर, हरी तरकारियाँ, चना, उड़द, मूंग, अण्डे की सफेदी, माँस, मछली, व जिगर में पाया जाता है। यह कुछ मात्रा में अनाज, हरी पत्ती की सब्जियों व दालों में भी होता है।

दैनिक आवश्यकता – रिबोफ्लेविन की दैनिक आवश्यकता 1 से 2 मिलीग्राम होती है, परन्तु इस विटामिन की दैनिक आवश्यकता व्यक्ति की अवस्था, लिंगभेद, शारीरिक श्रम तथा भोजन पर निर्भर करती है। ज्वर की दशा में तथा गर्भावस्था में इसकी दैनिक आवश्यकता बढ़ जाती है। बालकों को 7 से 12 मिलीग्राम प्रतिदिन चाहिए।

विटामिन बी 3 (Vitamin B3)

यह विटामिन नियासिन (Niacin) या निकोटिनिक एसिड (Nicotinic Acid) के नाम से पुकारा जाता है।

उपयोगिता-
  1. नाड़ी संस्थान को पूर्ण स्वस्थ रखने व क्रियाशील बनाये रखने के लिए शक्ति प्रदान करना भी इसका कार्य है।
  2. शरीर के तापमान में सन्तुलन रखता है।
  3. यह त्वचा को स्वस्थ एवं रोगमुक्त रखता है।
  4. यह आँतों को भी निरोग व सशक्त रखता है।
  5. रक्त प्रवाह को ठीक रखता है।

इस विटामिन की कमी के कारण पैलेग्रा (Pellagra) नामक रोग उत्पन्न हो जाता है। जीभ व आंतों की श्लेष्मिक झिल्ली, तालू और मसूड़ों पर सूजन आ जाती है। रोगी की भूख कम हो जाती है व शरीर निर्बल हो जाता है। त्वचा, विशेषकर हाथों व पैरों की प्रभावित हो जाती है।

साधन- यह विटामिन हमें खमीर, छिलके सहित अनाज, मूंगफली, दालें, अण्डे, माँस व जिगर में अधिक मात्रा में मिलता है, परन्तु मैदा, पॉलिश किया हुआ चावल, फल, हरी तरकारियाँ तथा दूध में अपेक्षाकृत बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है।

दैनिक आवश्यकता – मनुष्य के लिए इस विटामिन की न्यूनतम दैनिक आवश्यक मात्रा 15 मिलीग्राम होती है। बालकों के लिए 8 से 15 मिलीग्राम आवश्यक है।

विटामिन बी 6 (Vitamin B6)

(Pyrodoxine) – विटामिन बी6 जल में घुलनशील है। यह विटामिन स्नायु एवं माँसपेशीय तन्तु के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। इसकी न्यूनता के परिणाम थायमिन, नियासिन की न्यूनता के परिणामों के समान ही होते हैं। इसी की कमी के कारण ऐंठन (Convulsions) होती है व गर्भावस्था में प्रायः मचली आती है।

साधन – यह और चावल की ऊपरी परत तथा अन्य अनाजों एवं दालों, मटर, मूंगफली, खमीर व सब्जियों में पाया जाता है; परन्तु अनाजों की पॉलिश की प्रक्रिया तथा सब्जियों की कैनिंग की प्रक्रिया में यह नष्ट हो जाता है।

दैनिक आवश्यकता – विटामिन बी की दैनिक आवश्यक मात्रा 2 से 3 मिलीग्राम होती है।

विटामिन बी12 (Vitamin B12)

यह लाल विटामिन (Red Vitamin) के नाम से भी जाना जाता है। यह लाल दानेदार पदार्थ है।

उपयोगिता – लाल रक्त कोशिकाओं के उत्पादन में ‘बी12’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस विटामिन की न्यूनता के फलस्वरूप रक्तहीनता (Pernicious anaemia), संज्ञा-शून्यता, भुजाओं में कड़ापन तथा आंशिक पक्षाघात भी हो सकता है। रक्तहीनता के उपचार में ‘बी12’ अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होता है। अत्यधिक रक्तहीनता वाले रोगी को यह विटामिन इन्जेक्शन के द्वारा दिया जाता है।

साधन – दूध, पनीर, अण्डे, मछली, जिगर आदि इसकी प्राप्ति के मुख्य स्रोत हैं।”

दैनिक आवश्यकता – प्रौढ़ व्यक्ति को प्रतिदिन से 1.5 मिलीग्राम विटामिन ‘बी12’ की आवश्यकता होती है।

विटामिन ‘सी’ (Vitamin ‘C’)

यह एक सफेद दानेदार पदार्थ है तथा जल में घुलनशील है। यह तीव्र ताप से या उबालने से नष्ट हो जाता है। इसे शरीर में संचय नहीं किया जा सकता, इसलिए इसे प्रतिदिन भोजन में प्रयुक्त करना चाहिए। इसको एस्कॉर्बिक एसिड (Ascorbic Acid) के नाम से पुकारा जाता है।

इसे एण्टी-स्कॉर्बिन विटामिन भी कहते हैं, क्योंकि इसका प्रयोग स्कर्बी नामक रोग को रोकने के लिए किया जाता है।

उपयोगिता-
  1. शरीर में स्फूर्ति रहती है
  2. विटामिन ‘सी’ के पर्याप्त प्रयोग से तपैदिक व निमोनिया रोग नहीं होते।
  3. रक्त को शुद्ध रखता है।
  4. रक्त वाहिनियों को फटने से रोकता है।
  5. अस्थियाँ और दाँतों में वृद्धि करता है। इसलिए छोटे-छोटे बच्चों को इसकी अधिक आवश्यकता होती है।

विटामिन ‘सी’ की कमी के कारण निर्बलता, घाव के उपचार में देरी, जोड़ों में दर्द, स्कर्वी रोग हो जाता है। इस रोग में रक्त वाहिनियाँ कमजोर हो जाती हैं तथा तनिक-सी चोट से फट जाती हैं। मसूड़े फूल जाते हैं, तनिक-सी रगड़ से रक्त निकलने लगता है तथा वे कमजोर हो जाते हैं। रोगी का मस्तिष्क दुर्बल हो जाता है। रोगी आलस्य, कमजोरी व थकान का अनुभव करता है, पैरों में पीड़ा होने लगती है, आँखों की चमक जाती रहती है।

जो लोग विटामिन ‘सी’ का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करते हैं, उनमें तपैदिक, निमोनिया व टायफाइड ज्वर की सम्भावना कम हो जाती है।

साधन – यह सन्तरा, नींबू, अंगूर, अमरूद, टमाटर, अनन्नास और आँवला तथा अंकुरित दालों एवं हरी सब्जियों में, जैसे करमकल्ला, हरी मिर्च और शलजम आदि में बहुतायत से मिलता है। नाशपाती, बेर, केला आदि में भी इसकी कुछ मात्रा मिलती है। बासी फलों की अपेक्षा ताजे फलों में यह अधिक मिलता है। इसको सुरक्षित रखने के लिए सब्जियों में खाने का सोडा नहीं डालना चाहिए।

दैनिक आवश्यकता- एक सामान्य व्यक्ति को प्रतिदिन 60 से 70 मिलीग्राम विटामिन ‘सी’ की आवश्यकता होती है। गर्भवती स्त्री को इसकी दुगुनी मात्रा चाहिए। बच्चों को लगभग 40 मिलीग्राम विटामिन ‘सी’ की आवश्यकता होती है।

विटामिन ‘डी’ (Vitamin ‘D’)

यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विटामिन है। यह वसा में अघुलनशील है, इसका शरीर में संचय किया जा सकता है। इसकी भोज्य पदार्थों में प्रायः कमी होती है। इसे कभी-कभी अस्थि-विकृतिनाशक (Anti-rachitic) भी कहते हैं, क्योंकि यह बच्चों तथा पशुओं की रिकेट (Rickets) या सूखा नामक रोग रक्षा करता है।

उपयोगिता-

1. इससे बालों में वृद्धि होती है।

2. इसकी कमी के कारण स्त्रियों को मृदुलास्थि (Osteomalacia) रोग हो जाता है। इस रोग में कमर व जाँघों में दर्द होता है, रीढ़ की हड्डी झुक जाने से कूबड़ निकल आता है। स्त्री के गर्भावस्था में होने की दशा में गर्भपात तक हो जाता है।

3. यह विटामिन कैल्सियम तथा फॉस्फोरस का शरीर में शोषण करने में सहायक होता है, अतएव हड्डी तथा दाँतों मजबूत होती है। बनाने के लिए बहुत आवश्यक है। गर्भवती व दूध पिलाने वाली माताओं को इसकी अत्यधिक आवश्यकता होती है।

4. यदि यह विटामिन पर्याप्त मात्रा में न मिल पाये तो बच्चे रिकेट रोग के शिकार हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें सर्दी, खाँसी, दमा, निमोनिया आदि रोग हो जाने का भय रहता है। उनका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। बच्चों व स्त्रियों को उक्त रोगों से मुक्त रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में विटामिन ‘डी’ देना चाहिए।

साधन – डॉक्टरों के मतानुसार विटामिन ‘डी’ सूर्य की किरणों में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। त्वचा पर सूर्य के प्रकाश को अल्ट्रा-वायलेट किरणों (Ultra-violet rays) के पड़ने से यह मानव शरीर में उत्पन्न किया जा सकता है। यही कारण है कि ठण्डे देशों में इसकी कमी पायी जाती है।

सूर्य के प्रकाश के अतिरिक्त इसे कुछ भोज्य पदार्थों से भी ग्रहण किया जा सकता है। यह दूध, दही, मक्खन, घी, अण्डे की जर्दी, मछली के तेल आदि में मिलता है। तरकारियों में इसकी पर्याप्त मात्रा नहीं होती।

यह वसा में घुल जाता है। इसमें ताप को सहन करने की शक्ति विटामिन ‘ए’ की अपेक्षा अधिक होती है।

दैनिक आवश्यकता – प्रत्येक व्यक्ति की विटामिन ‘डी’ की न्यूनतम दैनिक आवश्यकता 2007 ३० यूनिट है। गर्भवती स्त्री को युवा पुरुष की अपेक्षा अधिक विटामिन ‘डी’ की आवश्यकता होती है। यह वसा में घुलनशील है इसलिए शरीर में इसका संचय किया जा सकता है। विटामिन ‘डी’ की अधिक मात्रा शरीर को हानि पहुँचाती है। माँसपेशियाँ कमजोर हो जाती हैं तथा थकान का अनुभव होता है। भूख कम लगती है, सुस्ती, मचली आने लगती है। विटामिन ‘डी’ की अधिकता के कारण गुर्दों, फेफड़ों तथा धमनियों में कैल्सियम के जमने से कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है। गर्भवती स्त्रियों एवं बच्चों को 10 व प्रौढ़ों को 25 मिलीग्राम विटामिन ‘डी’ की दैनिक आवश्यकता होती है।

विटामिन ‘ई’ (Vitamin ‘E’)

उपयोगिता स्त्री-पुरुष दोनों को प्रजनन-शक्ति के लिए इसकी आवश्यकता होती है, इसलिए इसे बन्ध्यता विरोधी (Anti-sterility) भी कहते हैं। इससे सन्तानोत्पत्ति की शक्ति प्राप्त होती है। (2) यह हृदय की रक्त वाहिनियों व पेशियों को स्वस्थ रखता है। इसकी कमी से जननांग कमजोर हो जाते हैं तथा गर्भपात या बन्ध्यता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसकी कमी से माँसपेशियाँ कमजोर पड़ जाती हैं तथा कभी-कभी पक्षाघात (Paralysis) रोग हो जाता है।

साधन – यह अनाज के तेल (Oil from wheat germ), सूरजमुखी के बीज, अंकुरित गेहूँ, गोश्त, दूध, अण्डे तथा मक्खन व सोयाबीन के तेल में पाया जाता है। पत्तीदार सब्जियों में इसकी पर्याप्त मात्रा होती है। विटामिन ‘ई’ बाजार में कैप्सूल के रूप में भी उपलब्ध होता है। साधारणतः इसमें ताप को सहन करने की अधिक शक्ति होती है, परन्तु अत्यधिक देर तक तथा तेजी से गरम करने पर नष्ट हो जाती है।

विटामिन ‘के’ (Vitamin ‘K’)

इसका पता सर्वप्रथम सन् 1934 में लगाया गया था। परीक्षण द्वारा यह पता लगा कि इस विटामिन की कमी के कारण रक्तस्राव तीव्र रूप धारण कर सकता है, क्योंकि इसके अभाव में रक्त का थक्का नहीं जमता। इसे रक्तस्राव विरोधक (Anti-coagulation) विटामिन भी कहते हैं।

विटामिन ‘के’ रक्त को जमाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इसकी आवश्यकता गर्भिणी स्त्रियों तथा स्तनपान कराने वाली माताओं को अधिक होती है। गर्भवती महिलाओं में इसकी कमी से गर्भपात हो जाता है। इसकी कमी से पाचन और स्नायुविक संस्थान सम्बन्धी रोग हो जाते हैं।

साधन–यह सब्जियों में, विशेषकर पालक, फूलगोभी तथा करमकल्ला में अधिक पाया जाता है। टमाटर, आलू, गेहूं की चोकर, दूध, मक्खन तथा अण्डे की जर्दी में भी इसकी कुछ मात्रा होती है।

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Anjali Yadav

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