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गुप्तजी के काव्य में भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्था एवं राष्ट्रीय भावना विद्यमान है।

गुप्तजी के काव्य में भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्था एवं राष्ट्रीय भावना विद्यमान है।
गुप्तजी के काव्य में भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्था एवं राष्ट्रीय भावना विद्यमान है।

गुप्तजी के काव्य में भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट आस्था एवं राष्ट्रीय भावना विद्यमान है। स्पष्ट कीजिए।

मैथिलीशरण गुप्त भारतीय संस्कृति के प्रबल पोषकों एवं सबल व्याख्याताओं में से हैं। वह भारतीयता से ओत-प्रोत है। भारतीय संस्कृति के गायक है, राष्ट्रीय कवि है। उन्होंने भारतीय संस्कृति के विभिन्न सोपानों को एक-सी तन्मयता से ग्रहण नहीं किया। उनमें सामाजिक संस्कृति अर्थात् का भाव नहीं है, उस संस्कृति को ग्रहण किया जिसका मूलाधार हिन्दुत्व है।

साकेत में भारतीय संस्कृति-

साकेत में गुप्तजी ने राम-रावण युद्ध को ही सांस्कृतिक प्रश्न बना दिया है। यह एक राजा की दूसरे राजा से शुद्ध वैर या वैमनस्य मात्र नहीं है। प्रत्युत यह है कि आर्य संस्कृति का अनार्य संस्कृति से टकराव और उस पर विजय । अयोध्यावावासी तथा अन्य लोग सीता को राम की पत्नी की अपेक्षा भारत लक्ष्मी के रूप में अधिक देखते हैं अथवा आर्य संस्कृति के रूप में-

भारत लक्ष्मी पड़ी राक्षसों के बन्धन में
सिन्धु पार वह विलख रही व्याकुल मन में।

जीवन सिद्धान्त तथा आदर्श- साकेत में आदर्श चरित्र है राम और पात्रों का एक मात्र उद्देश्य है त्याग लेकिन यह त्याग वैराग्यमय या निषेधात्मक नहीं है, इसमें अनुराग और भावुकता समाहित है। “त्याग और अनुराग चाहिए, बस यहीं।” त्याग एक-दूसरे के लिए किया गया है। अष्टम सर्ग में राम जवालि का संवाद इस ओर संकेत करता है—

राम-जावालि संभाव
‘हे मुने, राज्य पर वही मर्त्य मरते हैं।”
“हे राम, त्याग की वस्तु नहीं वह ऐसी । “
“पर मुने, भोग की भी न समझिये वैसी।”

धार्मिक दृष्टि- भारतवर्ष एक धर्म परायण देश है, जिसकी जमीन के कण-कण में धर्म रचा नसा है। गुप्त जी वैरागी हैं, राम के अनन्य भक्त हैं लेकिन इसी के साथ अन्य देवताओं के प्रति भी उनके मन में श्रद्धा है। राम ब्रह्म हैं, अवतार हैं, तथा सीता माया और शक्ति हैं इसी से संसार चल रहा है-

सीता जब कहती हैं हम तुम तो होते कान्त
राम उत्तर देते हैं न थे कब कान्ते ।

सामाजिक आदर्श – साकेत में वर्णित सामाजिक जीवन में भारतीय संस्कृति कूट-कूट कर भरी है। गुप्त जी सामाजिक आदर्श का मेरुदण्ड मानते हैं मर्यादा! पालन करने के लिए जीवन में चाहे जितना कठोर अनुशासन का पालन करना पड़े, जीवन-पथ चाहे जितना दुर्गम और कठिन हो जावे उस पर हँसते-हँसते चलते, स्वयं को शासित रखकर बन्धन में बाँधकर ही व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी बन सकता है। व्यक्ति समाज उसका मित्र अंग है, समाज के प्रति उसका कोई पुनीत कर्तव्य अपने लिये नहीं समाज के लिए जीता है। नदी में स्वच्छन्द प्रवाह एवं पौधों के बढ़ने पर राम-सीता का संवाद एवं अन्य स्थलों पर संवाद में इसकी झलक मिलती हैं-

आश्रम धर्म – आश्रम धर्म में भी गुप्त जी की आस्था हैं वह जीवन की सफलता और समुचित विकास के लिए इस संस्था को आवश्यक मानते हैं। इस व्यवस्था में व्यक्तिक्रम आने के कारण ही दशरथ कहते हैं— “गृह योग्य बने हैं, तपस्पृही, बनयोग्य हाय हम बने गृहीं।”

नारी का आदर पूर्ण स्थान – मध्यकालीन समाज एवं संस्कृति में नारी का स्थान बहुत गिर गया था। उह उपेक्षणीय, भोग की वस्तु बन गई थी। इसका उदाहरण कबीर, तुलसी और रीतिकालीन कवियों की रचनाओं में प्रभु रूप में देखा जा सकता है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्तै तत्र देवता’ स्त्रियाँ पुरुष जीवन की पूर्ति हैं। भारतीय संस्कृति का यही भाव हमें साकेत की नारी पात्रों में दर्शित हैं। साकेत में उर्मिला, कौशिल्या, माण्डवी, सुमित्रा आदि चरित्र ही तो स्त्रियों की गरिमा की ओर संकेत करते हैं। वे गृह लक्ष्मी हैं और घर ही उनका साम्राज्य। लेकिन आवश्यकता पड़ने पर वे उर्मिला और कैकेयी की भाँति रणचण्डी का रूप भी धारण कर सकती है।

पारिवारिक आदर्श- परिवार समाज का लघु रूप है। यह कहा जाता है कि समाज को परिवार की भाँति सुसम्बद्ध एवं सुगठित होना चाहिए तभी समाज उन्नति करता है। क्योंकि समाज की उन्नति में देशोन्नति निहित है। गुप्तजी संयुक्त परिवार के प्रति आस्तिक है। साकेत के गार्हस्थ चित्रों में भारतीय संस्कृति का ज्वल स्वरूप मिलता है। परिवार के सभी सदस्यों का परस्पर बड़ा ही सौहाद्रपूर्ण व्यवहार है, एक-दूसरे के प्रति आशक्ति और शक्ति का भाव है। एकाध स्थल इसके विपरीत भी मिल जाते हैं। जैसे लक्ष्मण शत्रुघ्न का विमाता कैकेथी के प्रति दुर्वचनों एवं कटुवचनों का प्रयोग, भरत का कथन भी कुछ असंस्कृति एवं असंयमित है, लक्ष्मण का उर्मिला के चरणों में गिरना, उर्मिला का सी-सी करते पाश्र्व होना जैसे कुछ स्थान। गुप्त जी ने इनमें कोई संशोधन या परिवर्तन इसलिए नहीं किया क्योंकि वह जानते हैं कि मनुष्य के हृदय में सभी कुछ संस्कृति और शुद्ध नहीं हैं बुरी भावनाएँ दुर्बलताएँ भी उसमें उसी प्रकार विद्यमान हैं। हृदय से प्रेरित होकर बहुत से कार्य हो जाते हैं।

नीति— प्रत्येक देश की अपनी रीति-नीति, प्रथाएँ परम्पराएँ और विश्वास मान्यताएँ होती है। इन्हीं पर देश की संस्कृति का निर्माण होता है। राम और भारत धर्म की प्रतिमूर्ति समझे माने जाते डून भारतीय जीवन में आत्म निग्रह पर अधिक बल दिया गया है। निग्रह की दो मुख्य वृत्तियाँ हैं काम और क्षोभ साकेत के सभी पात्रों में क्षोभ का निग्रह उपनिग्रह मिलता है। राम और भरत की निर्लोभिता और लालसा विहीनता देखकर वयोवृद्धि मुनि जावालि भी चकित हो जाते हैं।

गौरव परम्पराएँ और विश्वास- भारत का अतीत बड़ा ही गौरवपूर्ण है। भारत में सब कुछ महान् है। गंगा, जमुना तरस्वती, सरयू, गोदावरी, हिमालय आदि का भौतिक नहीं धार्मिक महत्त्व है। जन्म, विवाह मरण आदि के संस्कारों में संस्कृति का गौरव दर्शन है। विवाह में त्याग और स्वीकृति दोनों को माना है, एक-दूसरे के प्रति आत्म समर्पण है। इसके अतिरिक्त स्वयम्बर, अभिषेक उपवास और सती का भी वर्णन है। योग, शाप, सौगन्ध, शकुन आदि का भी उल्लेख मिलता है। जैसे हनुमान का उड़ना, वशिष्ठ का, शुद्ध दृश्य उपस्थित करना, बायी आँख फड़कना, कौशल्या और कैकेयी का सौगन्ध खाना, यदि मैं उकसाई गयी भरत से होऊँ। तो पति समान ही पुत्र भी खोऊँ ।’

राजनीतिक आदर्श- साकेत में वैसे साम्यवाद, लोकतन्त्र आदि विचारधाराओं का वर्णन मिलता है। लेकिन कवि की आस्था राजतन्त्र में ही है। लेकिन राजतन्त्र में राजा को स्वेच्छाचारी न होकर लोक-सेवक होना चाहिए। राजा तानाशाह नहीं होता लोक सेवक रूप-

मैं यहाँ जोड़ने नहीं बाँटने आया,
जग उपवन के झंखाड़ छाँटने आया,
मैं राज्य भोगन नहीं भुगाने आया।

साकेताकार गुप्त जी ने कौलप संस्कृति के विभीषण को आर्य संस्कृति से प्रभावित करके गाँधी जी की धार्मिक एवं विश्व बन्धुत्व समन्वित देश भक्ति को स्वर प्रदान किया है। उर्मिला का राष्ट्र नायिका और सेविका का रूप कवि की नवीन उद्भावना है। वह रूप उन राष्ट्र सेविकाओं से बहुत मिलता जुलता है जिन्होंने गाँधीजी द्वारा प्रेरित आन्दोलनों में पुरुष के समान त्याग, साहस और सेवा भावना का परिचय दिया था। गुप्त जी के रामराज्य और गाँधी जी के राम राज्य में बहुत साम्य है। प्राचीनतम की प्रधानता और नवीन प्रभाव का स्वाभाविक समावेश होने के कारण गुप्त जी का यह संस्कृति निरूपथ ऐसा घुला-मिला तथा समन्वयवादी भारतीय संस्कृति के इतना अनुकूल है कि कहीं भी खटकता नहीं।

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Anjali Yadav

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