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धनन्जय रामचन्द्रा गाडगिल (D.R. Gadgil)
प्रो. धनन्जय रामचन्द्रा गाडगिल भारतीय योजना आयोग के उपाध्यक्ष 1967-1971 की अवधि में रहे। गाडगिल का सम्बन्ध अनेक समितियों से रहा जिसमें All India Rural Credit Survey सम्मिलित है।
डी. आर. गाडगिल के प्रमुख प्रकाशन हैं- The Industrial Evolution of India in Recent Times (1924), Imperial Preference for India (1932), Regulation of Wages and Other Problems of Industrial Labour in India (1943), reprinted 1954, War and Indian Economic Policy (1943), Federating India (1945). The Federal Problem in India (1947), Economic Policy and Development (1955), and Planning and Economic Policy in India (1961).
प्रो. गाडगिल के आर्थिक विचार
प्रो. गाडगिल के प्रमुख आर्थिक विचार हैं-
(1) औद्योगिक श्रम (Industrial Labour)- प्रो. गाडगिल ने औद्योगिक श्रम के सम्बन्ध में अपने विचार अपने अनेक व्याख्यानों में व्यक्त किये जिन्हें “Regulation of Wages and other Problems of Industrial Labour in India” शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित किया गया।
प्रो. गाडगिल ने औद्योगिक श्रम से सम्बन्धित विविध पहलुओं पर अपने विचार प्रस्तुत किये जिनमें प्रमुख हैं-मजदूरी, रोजगार, श्रमिकों का रहन-सहन, औद्योगिक सम्बन्ध, औद्योगिक विवेकीकरण एवं उसके प्रभाव आदि।
प्रो. धनन्जय रामचन्द्रा गाडगिल के विचार में प्रचलित मजदूरी प्रणाली में दो दोष हैं-
- औद्योगिक श्रमिकों को दी जाने वाली कम मजदूरी ।
- समान कार्य के लिए दी जाने वाली मजदूरी में भिन्नताएँ।
प्रो. गाडगिल ने मजदूरी की भिन्नताएँ समाप्त करने के लिए सुझाव दिये कि मजदूरी का नियमन ऊँचे स्तर पर किया जाना चाहिए ताकि श्रमिकों की कार्यक्षमता में वृद्धि हो सके।
प्रो. गाडगिल औद्योगिक श्रमिकों के कल्याण हेतु सतत प्रयत्नशील रहे। नियोजकों द्वारा मजदूरी का ऊँची दर पर नियमन तो किया ही जाना चाहिए, साथ ही उनके विचार में सरकार द्वारा औद्योगिक श्रमिकों के कल्याण के लिए निम्नांकित बिन्दुओं के सन्दर्भ में विविध कल्याणकारी योजनाएँ लागू की जानी चाहिए- (i) औद्योगिक आवास (ii) बेरोजगारी भत्ता (iii) सवेतन अवकाश (iv) बीमारी सुरक्षा बीमा (v) दुर्घटना बीमा ।
औद्योगिक विवेकीकरण (Industrial Rationalisation) के सन्दर्भ में प्रो. गाडगिल का विचार था कि औद्योगिक विवेकीकरण की योजनाएँ अल्पकालीन लाभों के साथ-साथ दीर्घकालीन लाभ भी सुनिश्चित करती हैं। अल्पकाल में जहाँ बेरोजगारी की समस्या का समाधान मिलता है वहीं दीर्घकाल में अन्य उद्योगों का विस्तार, रोजगार विस्तार, आय विस्तार होता है तथा परिणामस्वरूप देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।
(2) औद्योगिक विकास (Industrial Evolution)- देश की आर्थिक संक्रमकता (Economic Transition) के लिए गाडगिल ने निम्नांकित कारणों को उत्तरदायी माना-
- रेलवे नीति के कारण हस्तशिल्प कला का पतन।
- ब्रिटिश सरकार की स्वतन्त्र व्यापार नीति।
- तकनीकी शिक्षा का अभाव।
- कृपि का व्यवसायीकरण ।
- बढ़ती जनसंख्या
देश के आर्थिक विकास ‘विशेषकर औद्योगिक विकास’ में प्रो. गाडगिल ने बढ़ती आबादी के दबाव को कृषि क्षेत्र से औद्योगिक क्षेत्र में स्थानान्तरित करने की वकालत की।
देश के औद्योगिक विकास के लिए प्रो. गाडगिल ने बड़े मशीनीकृत उत्पाद को बढ़ावा न दिये जाने का सुझाव दिया। उनके विचार में कृषि आधारित उद्योगों एवं सहायक उद्योगों के विस्तार को देश के औद्योगिक विकास के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(3) नियोजित आर्थिक विकास (Planned Economic Development ) – स्वतन्त्रता के बाद 1947 में प्रो. गाडगिल ने योजना को कृषि की वरीयता के साथ सम्बद्ध करने की वकालत की जिसके लिए उन्होंने बड़े लोक व्यय को आवश्यक बताया किन्तु साथ ही उनके विचार में इस बड़े लोक व्यय के परिणाम योजना आयोग की प्रशासनिक क्षमता पर निर्भर करते हैं। उनके विचार में किसी योजना के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए एवं सफल परिणामों के लिए संसाधनों का उचित एवं विवेकशील प्रयोग सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है।
(4) रेल-सड़क समन्वय (Rail-Road Co-ordination)- प्रो. गाडगिल के विचार में यद्यपि रेलवे यातायात का प्रमुख साधन है किन्तु देश के सभी क्षेत्रों एवं दूरस्थ क्षेत्रों तक यातायात सुविधाएँ सड़क यातायात द्वारा ही उपलब्ध कराई जाती हैं। उनकी दृष्टि में रेलवे सड़क समन्वय की प्रमुख कठिनाई है-ट्रैफिक का विभिन्न एजेन्सियों के बीच बंटवारा। उनके विचार में यातायात का विभिन्न एजेन्सियों में उचित बंटवारा करके नियमित किया जाना आवश्यक है। इस बटवारे के समय स्थानीय दशाओं एवं उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है।
(5) युद्ध एवं आर्थिक नीति (War and Economic Policy) – द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान प्रो. गाडगिल ने “ War and Indian Economic Policy” शीर्षक की पुस्तक लिखी। युद्ध अवधि में ब्रिटिश सरकार द्वारा अत्यधिक मुद्रा निर्गमन किया गया। प्रो. गाडगिल ने इस अतिरिक्त मुद्रा निर्गमन का परिणाम देश में स्फीतिक दबाव बताया। उनके विचार में देश में उत्पन्न हुए स्फीतिक दबाव से मजदूरी से जीवन यापन करने वाले श्रमिकों को अनेक आर्थिक कष्टों का सामना करना पड़ा। स्फीतिक दबाव को नियन्त्रित करने एवं श्रमिकों के आर्थिक कष्टों को कम करने के लिए प्रो. गाडगिल ने देश के लिए एक सबल आर्थिक एवं वित्तीय नीति बनाने की वकालत की जिसमें सम्मिलित किये गये प्रमुख पहलू हैं-
(i) प्रत्यक्ष करों में वृद्धि (उच्च आय वर्ग के लिए)
(ii) लोकऋण में वृद्धि
(iii) उत्पादकीय संसाधनों का पूर्ण विदोहन
(iv) प्रशासनिक खर्ची कटौती
(v) विनियोग एवं लाभ पर नियन्त्रण
(vi) कीमत नियन्त्रण एवं राशनिंग
(vii) आवश्यक वस्तुओं के आवागमन को वरीयता देने के उद्देश्य से यातयात नियमन
(viii) विविध क्रियाओं के बीच उचित समन्वय ।
(6) कीमत नीति (Price Policy)- प्रो. गाडगिल के विचार में कीमत नीति एक दीर्घ कालीन घटना (Long Run Phenomenon) है जिसके लिए प्रशासनिक एवं अन्य प्रयास किये जाने आवश्यक हैं। प्रो. गाडगिल के विचार में तात्कालिक न्यूनतम कार्यक्रम के दो पहलू हैं जो परस्पर सम्बद्ध हैं-
- कृषिगत मूल्यों का स्थिरीकरण
- कीमत रेखा का नियन्त्रण
प्रो. गाडगिल के विचार में ग्रामीण जनता के लिए आवश्यक वस्तुओं (अनाज, कपड़ा, चीनी, गुड़, खाद्य तेल, साबुन, चाय, तम्बाकू एवं मिट्टी का तेल) की कीमतों का नियमन किया जाना आवश्यक है। इसके लिए यह आवश्यक है कि सरकार स्वयं इन वस्तुओं की पूर्ति को उचित कीमतों पर प्राप्त करे तथा उन्हें फुटकर दुकानों के माध्यम से उचित कीमतों पर जनता को वितरित करे। प्रो. गाडगिल ने यद्यपि स्वीकार किया है कि आवश्यक वस्तुओं की कीमत निर्धारण एक उलझाने वाली प्रक्रिया है।
प्रो. गाडगिल देश में वस्तुओं को सुरक्षित रखने के लिए भण्डारगृहों तथा शीतगृहों का विस्तार करने के पक्षधर थे और साथ ही विपणन सुविधाएँ सुनिश्चित करने की वकालत करते थे। प्रो. गाडगिल ने उपभोक्ता सोसायटी के माध्यम से सहकारी वितरण की आवश्यकता पर भी बल दिया।
(7) आर्थिक विकास की पूर्व शर्तें (Pre-Conditions for Economics Development)- प्रो. गाडगिल के विचार ने आर्थिक विकास की रणनीति के सफल परिणामपूरक कार्यान्वयन के लिए आवश्यक है कि देश में परम्परागत धार्मिक एवं सामाजिक अवरोधों को नियन्त्रित किया जाए। उनकी दृष्टि में ये धार्मिक एवं सामाजिक अवरोध अर्थव्यवस्था के शीर्षक स्वरूप को स्थैतिक बनाए रखते हैं। आर्थिक विकास की पूर्व शर्त है जनता की मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन जनमानस को धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिबद्धताएँ दूर करके ही देश में अधिक विकास की गति को स्थायी रूप से बढ़ाया जा सकता है।
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