प्रसाद जी छायावादी हैं छायावादी की व्याख्या करते हुए इसमें प्रसाद के योगदान का मूल्यांकन कीजिए। अथवा छायावादी कवियों में प्रसाद का स्थान निर्धारित कीजिए। अथवा कामायनी छायावाद की प्रौढ़ कृति अथवा प्रतिनिधि रचना है। स्पष्ट कीजिए।
प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक कवि हैं। उन्होंने द्विवेदी युगीन काव्यधारा में युगानुरूप क्रान्ति उपस्थित करके छायावाद को स्थापित किया। प्रसाद सभी कृतियों आँसू, लहर, झरना, प्रेमपथिक आदि में छायावादी प्रवृत्तियाँ व्यापक रूप में देखने को मिलती हैं। प्रसाद कृत महाकाव्य ‘कामायनी’ तो छायावाद का गौरव ग्रन्थ है। जिसमें कवि का छायावादी रूप चरमोत्कर्ष पर मुखरित हुआ है। प्रसाद के काव्य में विशेषकर कामायनी उस पर भी ‘श्रद्धासर्ग’ में छायावादी तत्त्वों की उपस्थिति का संक्षिप्त विवेचना निम्नलिखित हैं-
(i) सौन्दर्य भावना— सौन्दर्याङ्कन छायावादी कवियों की आधारभूत विशेषता है। छायावादी काव्य में सौन्दर्य का व्यापक एवं सूक्ष्म चित्रण हुआ है। छायावादी कवि सृष्टि के कण-कण में सौन्दर्य दर्शन करता है। वह सौन्दर्य की आभा से इतना अभिप्राय है कि उसकी आँखों में सौन्दर्य की चंचल कृतियाँ रहस्य बनकर नाच रही हैं। प्रसाद भी सौन्दर्य के उपासक हैं। उन्होंने अपने काव्य में सौन्दर्य का अत्यन्त सूक्ष्म एवं विराट चित्रण किया है-
आह! वह मुख! पश्चिम के व्योम, बीच जब घिरते हों घनश्याम,
तरुण रवि मण्डल उनकी भेद, दिखाई देता हो छवि धाम।
(ii) प्रेम भावना – छायावाद मूलतः प्रेम काव्य है। प्रसाद ने अपने काव्य में प्रेम का ऐसा दीप आलोकित किया है। जिसकी शिखा से प्रस्फुटित होने वाली किरणों ने सम्पूर्ण मानवता को आकर्षित कर लिया।
श्रद्धासर्ग में प्रेम भावना की कितनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति कवि ने की है जब मनु श्रद्धा को देखते हैं और आकर्षण से प्रेरित उनके मन में हलचल पैदा हो जाती है, साथ ही उनके मन की उद्विग्नता शिथिल होने लगती हैं-
कौन हो तुम बसन्त के दूत, विरस पतझड़ में अति सुकुमार।
घन तिमिर में चपला की रेख, तपन में शीतल मन्द बयार।
नख़त की आशा किरण समान, हृदय की कोमल कवि की कांत।
कल्पना की लघु लहरी दिव्य, कर रही मानस हलचल शान्त।
(iii) जीवन के बदलते मूल्यों का चित्रण- छायावादी कवियों में मानवीय आचारों, क्रियाओं, चेष्टाओं और विश्वासों के बदले हुए मूल्य को अंगीकार करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। इन कवियों की विद्रोह भावना ही छायावादी कवि प्रेम के क्षेत्र में स्वच्छन्दतावादी और धार्मिक बन्धनों के प्रति अवज्ञावादी हैं।
(iv) मानवतावादी दृष्टिकोण – छायावादी काव्य में मानवतावादी स्वर खुलकर मुखरित हुआ है। इस काव्य में मानव का महत्त्व सर्वोपरि हैं। मानवतावादी दृष्टिकोण का विकास रवीन्द्र और अरविन्द के दर्शन के आधार पर हुआ है। प्रसाद मानवता के प्रति असीम श्रद्धा रखने वाले कवि हैं। उन्हें विश्व मानवता के कल्याण की चिन्ता है।
(v) वैयक्तिकता अथवा आत्माभिव्यंजना– छायावाद में वैयक्तिक चिन्तन एवं भावनाओं को विशिष्ट महत्त्व मिला है तथा विकास हुआ हैं। देखा जाए तो छायावादी कवि ‘अहम’ के शिकंजे में जकड़ा हुआ है। वह सम्पूर्ण प्रस्तुत जगत को ‘अहं’ के तराजू पर तौलता है। फलस्वरूप उसकी आत्माभिव्यंजना की यह प्रवृत्ति छायावादी काव्य को व्यक्तिवादी बना देता है।
(vi) वेदना एवं करुणा का आधिक्य – छायावादी काव्य में वेदना तथा करुणा का तीव्र अनुभूति देखने को मिलती है। प्रसाद ने तो सृष्टि का आरम्भ ही वेदना से माना है। श्रद्धा सर्ग में श्रद्धा द्वारा मनु का परिचय पूछे जाने पर परिचय कम मनु की मनोव्यथा अधिक व्यक्त हुई है। मनु तो सचमुच व्यथा, पीड़ा, वेदना एवं दुःख के पिंड से दिखाई पड़ते हैं-
एक विस्मृति का स्तूप अचेत, ज्योति का धुंधला सा प्रतिविम्य।
और जड़ता की जीवन राशि, सफलता का संकलित विलम्ब।
(vii) आध्यात्मिकता एवं रहस्य भावना – आत्मा और परमात्मा की चिन्तन शैली का नाम रहस्यवाद है। अनेक सुधी आलोचक रहस्यवाद को छायावाद का प्राण स्वीकार करते हैं। महादेवी वर्मा के शब्दों में “विश्व के अथवा प्रकृति के सभी उपकरणों में चेतना का आरोप छायावाद की पहली सीढ़ी है, तो किसी असीम के प्रति अनुरागजनित आत्म-विसर्जन का भाव अथवा रहस्यवाद छायावाद की दूसरी सीढ़ी है।” प्रसाद के समूचे काव्य में रहस्य व्याप्त है। और कहीं-कहीं तो क्लिष्ट होकर सामान्य पाठक की बुद्धि के परे हो गया है-
कर रही लीलामय आनन्द, महाचिति सजग हुई सी व्यक्त।
विश्व का उन्मीलन अभिराम, इसी में सब होते अनुरक्त ।
(viii) कल्पना का प्राचुर्य कल्पना का आश्रय लेकर ही कवि सौन्दर्य का अपार्थिव एवं अतीन्द्रिय चित्र प्रस्तुत करने में समर्थ हुआ है। स्थान-स्थान पर अप्रस्तुत विधानों का संरचना के कवि ने अपनी जिस कल्पना सौन्दर्य का परिचय दिया है वह अनुपम हैं-
घिर रहे थे घंघराले बाल, अंस अवलम्बित मुख के पास।
नील धन शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधु के पास।
(ix) नारी विषयक नवीन दृष्टिकोण- छायावाद में नारी के उदात्त स्वरूप का उच्च मूल्यांकन किया है, कारण था इन कवियों में नारी जाति के प्रति गहरी संवेदना है। प्रसाद ने नारी के सच्चे अस्तित्व को पहचानने और परखने का प्रयास किया है। समाज में नारी की उपेक्षा के प्रति विद्रोह एवं क्षोभ तथा उसके महत्त्व के प्रति उत्साह उसी छायावादी कवियों का मूल विषय रहा है। इन कवियों ने नारी को भोग की वस्तु नहीं स्वीकार किया अपितु प्रेम, ममता, श्रद्धा, त्याग, प्रेरणा अनुसार की साकार प्रतिमा माना है। उनकी दृष्टि में नारी मात्र भोग्या नहीं माँ, पत्नी, बहिन और प्रेयसी है। तभी तो समाज को ललकारते हुए कहते हैं-
योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,
उसे पूर्ण स्वाभीन करो, वह रह न नर पर अवसित।
(x) प्रकृति प्रेम – छायावादी कवियों को प्रकृति के प्रति विशेष लगाव है। इसीलिए उनकी भावाभिव्यक्ति प्रकृति के माध्यम से हुई हैं। वे प्रकृति को कभी नारी के रूप में देखते हैं तो कभी उसकी छवि में किसी प्रेयसि के सौन्दर्य भाव का साक्षात्कार करते हैं। प्रसाद ने प्रकृति को सचेतन रूप में देखा है, यही कारण है कि उनके काव्य में प्रकृति का मानवीकरण हुआ है। चूँकि प्रकृति के प्रति अधिक संवेदनशील रहे हैं अतएव प्राचीन कवियों की तरह उन्होंने प्रक्ति को उद्दीपन मात्र ही नहीं समझा है। प्रत्युत उसे चेतना और स्वतन्त्र व्यक्तित्व भी दिया है। श्रद्धा सर्ग स्वयं प्रसाद के अगाध के प्रकृति के प्रति प्रेम का परिचय देता है।
(xi) देश प्रेम एवं राष्ट्रीय भावना- छायावादी कवि अपने युग में प्रति उदासीन नहीं रहा। राजनीतिक क्षितिज पर उभरता हुआ क्रान्ति का स्वर एक नवीन इतिहास का पृष्ठ पलट रहा था इसलिए छायावादी काव्य में स्वदेश प्रेम की भावना व्यापक रूप में निरूपित हुई हैं-
अरुण यह मधुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
(xii) बौद्धिकता- छायावादी काव्य पर विज्ञान के विकास का भी प्रभाव पड़ा है। इसी कारण इस काव्य में बौद्धिकता का पर्याप्त समावेश हुआ है। कामायनी में इड़ा का सौन्दर्य वर्णन करते समय बौद्धिकता का परिचय दिया है। अथवा सहारा लेकर किया जाता है। ‘श्रद्धासर्ग’ में ‘श्रद्धा द्वारा दुःख की व्याख्या आनन्द एवं दार्शनिक मान्यताओं का विवेचन आदि में बौद्धिक पक्ष का ही निरूपण हुआ है।
विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान्।
यही दुःख-सुख विकास का सत्य, यही भूमि का मधुमय दान।
(xiii) स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह- इति वृत्तात्मक कविता का सम्बन्ध यदि स्थूल शरीर से है तो छायावाद का सूक्ष्म प्राण है। छायावादी कवियों ने संवेदना और नुभूति के तत्त्वों पर बल दिया है इसलिए उनके काव्य में वर्णनात्मक विस्तार तो नहीं है लेकिन अनुभूतिपरक गहराई अवश्य है। कामायनी में साकेत और प्रिय-प्रवास का इतिवृत्तात्मक विस्तार नहीं हैं लेकिन संवेदना और अनुभूति की गहरायी में डूबने का प्रयास किया है, न कि घटनाओं का विस्तार करने में खण्ड प्रथम में क्षुब्ध चिन्ताकार मनु का श्रद्धा से साक्षात्कार मात्र इतना ही इस सर्ग का वर्ण्य विषय है। अनुभूति का गहरायी ही इसकी विशेषता है।
कला-पक्ष
अनुभूति की जटिलता और सूक्ष्मता की अभिव्यक्ति के लिए छायावादी कवियों ने नयी कलाविधियाँ विकसित की। इनमें प्रतीकात्मकता, बिम्बात्मकता एवं चित्रात्मकता, मानवीकरण, लाक्षणिकता, विशेषण विपर्यय, नवीन अप्रस्तुत विधान एवं नवे छन्द विधान आदि प्रमुख है। श्रद्धा सर्ग विशेष रूप से तथा कामायनी सम्पूर्ण इन नवीन कलात्मक अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है।
(i) प्रतीकात्मकता प्रतीक विधि के अन्तर्गत कोई वस्तु अपने विशिष्ट युग धर्म के कारण किसी अन्य वस्तु का बोधक बन जाती है। जिसमें वे गुण धर्म प्रधान होते हैं। श्रद्धा सर्ग में पराग, मधुराका, उल्का शैलनिर्झर हिमखण्ड जलनिधि तिमिर गर्भ, संगीत आदि अनेक प्रतीक देखे जा सकते हैं। चिन्ताकार मनु की निराश स्थिति का चित्र इन प्रतीकों में देखिए-
(क) वायु की भटकी एक तरंग, शून्यता का उजड़ा सा राज ।
(ख) दुःख की पिछली रजनी बीच, विकसता सुख का नबल प्रभात।
(ii) बिम्बात्मकता एवं चित्रमयता – उदात्त काव्यात्मकता बिम्बात्मकता एवं चित्रमयता प्रसाद की छायावादी कृति कामायनी की सर्वश्लाघ्य विशेषता है। श्रद्धा सर्ग इस दृष्टि से कामायनी का प्रतिनिधित्व करता है। हिमालय के वर्णन में वहीं उदात्त काव्यात्मकता एवं विम्बात्मकता है। हिमालय की उठान को धरा की भयभीत सिकुड़न के रूप में देखना बिम्ब के माध्यम से देखना सम्भव हुआ है। कामायनी महाकाव्य के सफलतम बिम्ब श्रद्धा सर्ग में ही है। श्रद्धा के अधखुले अंगों को रूपायित करने के लिए कवि ने फूल का बिम्ब लिया है-
(iii) मानवीकरण एवं सादृश्य विधान- मानवेतर वस्तु विषय को मानक का रूप देना ही मानवीकरण है। श्रद्धासर्ग में इसके अनेक उदाहरण है। श्रद्धा स्वयं हृदय वृत्ति का प्रतीक है। एवं उसका मानवीकरण किया गया है। निम्नलिखित पंक्तियों में श्रद्धा की मुस्कान को किरण के अलसाने के द्वारा मानवीकरण किया है।
(iv) अप्रस्तुत विधान – प्रस ने चिन्ता, आशा, लज्जा श्रद्धा अमूर्त भावों को रूप प्रदान करने में सफलता पाई है।
(v) नूतन अलंकारों का प्रयोग- छायावाद में अनेक नूतन अलंकारों का प्रयोग किया गया है। प्रसाद ने मानवीकरण, विशेषण विपर्यय ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि नूतन अलंकारों का प्रयोग किया है। विशेषण विपर्यय अलंकार के प्रयोग में प्रसाद को एक प्रकार से सिद्धहस्तता प्राप्त थी और इसका प्रमाण श्रद्धा सर्ग में अनेक स्थलों पर मिल जाता है।
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