बड़े पैमाने के उत्पादन की हानियाँ (Disadvantages of Large Scale Production)
बड़े पैमाने की बचतों (लाभों) को देखने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इनसे हमेशा लाभ ही होते हैं। बड़े पैमाने के उद्योगों की अनेक हानियाँ अर्थात् अबचतें (Diseconomies) भी हैं। इन हानियों में निम्नलिखित मुख्य हैं :
(1) एकाधिकारी प्रवृत्ति (Tendency towards Monopoly ) — बड़े पैमाने के उद्योगों में एकाधिकार की दशाएँ जन्म लेती हैं। प्रायः प्रतियोगिता के अन्तर्गत बड़े-बड़े उद्योग छोटे-छोटे उद्योगों को समाप्त कर देते हैं। अन्त में, बड़े पैमाने के उद्योगों का एकाधिकार हो जाता है। अपने लाभ को ध्यान में रखते हुए ये उद्योग आपस में प्रतियोगिता नहीं कर सकते हैं, फलतः ऊँचे मूल्य पर वस्तुओं को बेचकर अधिक लाभ कमाने लगते हैं ।
(2) धन का असमान वितरण (Unequal Distribution of Wealth) — उत्पादन में जब बड़े पैमाने के उद्योग-धन्धों का बोलबाला बढ़ने लगता है, तो देश के उद्योगपतियों का एकाधिकार बढ़ते-बढ़ते प्राकृतिक साधनों तक पहुँच जाता है। राष्ट्र का सम्पूर्ण धन केन्द्रित होकर कुछ ही लोगों के हाथों में चला जाता है, फलतः एक वर्ग धनी तथा दूसरा वर्ग निर्धन बन जाता है।
(3) कारखाना प्रणाली के दोष (Evils of Factory System) – बड़े पैमाने के उद्योग-धन्धों में कारखाना प्रणाली के दोष दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगते हैं। मुख्य रूप से वर्ग-संघर्ष, गन्दी बस्तियों का बढ़ना, अत्युत्पादन का भय, हड़ताल, तालाबन्दी, संघर्ष, शोषण, दुराचार, भ्रष्टाचार आदि बातों का बोलबाला बढ़ने लगता है।
(4) श्रम विभाजन की हानियाँ (Disadvantages of Division of Labour ) – ज्यों-ज्यों बड़े पैमाने का उत्पादन बढ़ता है त्यों-त्यों श्रम विभाजन की बारीकियाँ भी बढ़ती हैं। श्रम-विभाजन के बढ़ जाने से श्रम-विभाजन सम्बन्धी हानियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। मशीनों के अधिकाधिक प्रयोग से व्यक्ति की प्रवृत्ति भी मशीनी बन जाती है।
(5) लघु एवं कुटीर उद्योगों का ह्रास (Decline of Small scale and Cottage Industries) – बड़े पैमाने का उत्पादन मशीनों पर आधारित है। प्रायः मशीनों द्वारा निर्मित माल हाथ से निर्मित माल की अपेक्षा सस्ता होता है। इन सस्ती वस्तुओं के मुकाबले में लघु एवं कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित माल काफी महंगा होता है। इसलिए उपभोक्ताओं के द्वारा मशीनों द्वारा निर्मित माल की मांग की जाती है। भारत में अंग्रेजों के शासन से पूर्व दस्तकारी के साजो-सामान की बेहद मांग थी। अंग्रेजी ने ज्यों-ज्यों उद्योगों में मशीनीकरण को बढ़ावा दिया, त्यों-त्यों लघु एवं कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित माल की मांग कम होती गई और स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि लघु एवं कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित माल की वस्तुएँ इतिहास की सामग्री बन गईं भले ही स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद सरकारी प्रयत्नों के द्वारा इस व्यवसाय में सुधार लाया जा रहा है।
(6) श्रमिकों एवं पूँजीपतियों में संघर्ष (Industrial Disputes) – बड़े पैमाने के उत्पादन से उत्पादन की इकाई का आकार बड़ा हो जाता है, जिससे सेवायोजकों तथा श्रमिकों के बीच भाई-चारे की भावना समाप्त हो जाती है। सेवायोजक श्रमिकों के सुख-दुख का ध्यान नहीं रखते और श्रमिक भी सेवायोजकों की कठिनाइयों से परिचित नहीं रहते हैं। इस प्रकार सेवायोजक और श्रमिक, जो जिस शाखा में बैठा है वह उसी शाखा को सबसे पहले काटना चाहता है, फलतः आए-दिन वर्ग-संघर्ष, तालाबन्दी व हड़ताल जैसी घटनाएँ होती रहती हैं।
(7) अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष की आशंका (International Tension) – बड़े पैमाने के उत्पादक अपने उत्पादन की बिक्री के लिए, विदेशी बाजारों की खोज करते रहते हैं जहाँ उन्हें विदेशी उत्पादकों के साथ तीव्र प्रतियोगिता करनी पड़ती है। उनकी यह प्रतियोगिता कभी-कभी गम्भीर रूप धारण कर लेती है और यह प्रतियोगिता राष्ट्रों के बीच युद्ध का कारण भी बन जाती है।
उपर्युक्त हानियों को देखते हुए प्रत्येक व्यक्ति इतना तो अवश्य कह सकता है कि बड़े पैमाने के उद्योग-धन्धों के जो लाभ हैं उनकी अपेक्षा हानियाँ अधिक हैं। भले ही बड़े पैमाने के उत्पादन में आर्थिक विकास होता है, परन्तु इससे गैर-आर्थिक कल्याण में बहुत अधिक कमी आ जाती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में जो बुराइयाँ पाई जाती हैं लगभग वही बुराइयाँ बड़े पैमाने में पाई जाती हैं। अतः इसमें प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से नियन्त्रण लगाकर बुराइयों को दूर किया जा सकता है।
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