भारत में उच्च शिक्षा की क्या समस्याएँ हैं ? इन समस्याओं समाधान हेतु उपयुक्त सुझाव दीजिए।
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उच्च शिक्षा की समस्यायें
शिक्षा के विभिन्न स्तर हैं। इनमें से प्रत्येक स्तर के अपने उद्देश्य तथा लक्ष्य होते हैं।
प्रो० हुमायूँ कबीर के शब्दों में, “अनेक बार यह कहा गया है कि विश्वविद्यालयों में जो शिक्षा दी जाती है, वह व्यक्ति को व्यावहारिक शिक्षा प्रदान नहीं करती है। विशेषतः यह कहा जाता है कि विश्वविद्यालयों से पढ़कर निकलने वाले विद्यार्थियों में शारीरिक श्रम तथा ग्रामीण जीवन के प्रति अरुचि हो जाती है। इस प्रकार विश्वविद्यालय एक ऐसा अभिकरण बन गया है, जो गाँवों के योग्य तथा होनहार युवकों को शहर में खींच लाते हैं, लेकिन इस प्रकार गाँवों की हानि होती है, उनसे शहरों को लाभ होता है, ऐसी बात नहीं है। गाँवों के छोटे-से समाज में नेता बनने के बजाय जो अत्यन्त सहजता से बन सकते थे, वे शहर की अज्ञात जनसंख्या के एक हताश और कटु भावना से भरे सदस्य बन जाते हैं।”
इस दृष्टि से शिक्षा के क्षेत्र में अनेक समस्यायें हैं, जो निम्नलिखित हैं-
1. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम- पाठ्यक्रम की समस्या, उच्च शिक्षा से सम्बन्धित एक गम्भीर समस्या है। अनेक विद्यालयों में परम्परागत पाठ्यक्रम दिखाई देते हैं। उनकी पाठ्य सामग्री से कुछ उद्देश्यों को संकेत नहीं मिल पाता और उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम भी छात्रों की रुचि, मनोवृत्ति और अभिरुचि के अनुरूप नहीं है। एन० सी० ई० आर० टी० इस सम्बन्ध में बिल्कुल अनभिज्ञ है कि किस विषय विभाग में किस स्तर पर पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया है।
2. विस्तार की समस्या- उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पंचवर्षीय योजनाओं एवं विकास क्रम के अन्तर्गत अनेक कॉलिजों तथा विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी है। इससे दिन-प्रतिदिन उच्च शिक्षा में विस्तार की समस्या बढ़ती जा रही है। इस अनियन्त्रित शिक्षा के विस्तार से अनेक दुष्परिणाम सामने आये हैं, जैसे-शिक्षित बेरोजगारी, अपव्यय तथा अवरोधन की समस्या, उच्च शिक्षा के स्तर में गिरावट, उपयुक्त शैक्षणिक प्रशिक्षण का अभाव, प्रवेश की समस्या आदि। इस समस्या को अग्रांकित सारणी द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
उच्च शिक्षा में विस्तार (1971 से 1990 तक)
सन् | प्रतिशत | विद्यालयों की संख्या | विश्वविद्यालयों की संख्या |
1971
1972 1973 1974 1975 1976 1977 1978 1981 1985 1990 |
9.0
5.7 5.0 3.1 5.9 2.5 0.2 5.5 0.4 5.8 6.2 |
3,604
3,896 4,158 4,308 4,388 4,508 4,569 4,610 4,700 5,000 5,500 |
84+9
86+9 90+9 95+9 102+9 102+9 105+10 105+10 123 135 149 |
3. शिक्षा के माध्यम की समस्या – स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी भारत में अनेक विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है। आज के नवयुवक अंग्रेजी को अधिक महत्व दे रहे हैं, वे अंग्रेजी भाषा से होने वाली हानि तथा । अहित को नहीं समझ पा रहे हैं। गाँधी जी के अनुसार- “विदेशी माध्यम ने राष्ट्र की शक्ति को क्षीण कर दिया है। उसने व्यक्तियों की आय को कम कर दिया है, उसने उन्हें जनसाधारण से अलग कर दिया है तथा इसने शिक्षा को अनावश्यक रूप में महंगी बना दिया है।”
4. शिक्षा का गिरता हुआ स्तर – उच्च शिक्षा के स्तर गिरने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
- कक्षा में छात्रों की अत्यधिक संख्या होना।
- शिक्षकों द्वारा छात्रों पर ध्यान न देना।
- पुस्तकालयों में अध्ययन की समुचित व्यवस्था न होना।
- शिक्षा का व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित न होना।
- शिक्षकों का वेतन कम होना ।
- शिक्षकों द्वारा शिक्षण कार्य में रुचि न लेना।
5. दोषयुक्त परीक्षा प्रणाली- आज उच्च स्तर पर निबन्धात्मक परीक्षायें आयोजित की जाती हैं। इससे छात्रों की योग्यता के सम्बन्ध में पूरी जानकारी नहीं मिल पाती है। इसका कारण यह है कि इन परीक्षाओं में रहकर ही छात्र उत्तीर्ण हो जाते हैं। फलस्वरूप शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती है। राधाकृष्णन आयोग के अनुसार- “यदि हम विश्वविद्यालय शिक्षा के मात्र एक विषय में सुधार का सुझाव दें तो वह परीक्षाओं के सम्बन्ध में होगा।”
6. मार्ग दर्शन तथा समुपदेशन की समस्या- भारतवर्ष की उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों के मार्ग दर्शन तथा परामर्श को – कोई व्यवस्था नहीं है। परामर्श तथा मार्ग दर्शन के अभाव में अधिकतर विद्यार्थी ऐसे विषयों का चयन कर लेते हैं, जिनसे वे उचित ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उचित ज्ञान प्राप्त न कर पाने के कारण वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं। फलस्वरूप, उनमें निराशा की भावना घर कर जाती है। इस सम्बन्ध में धर्मयुग में प्रकाशित एक लेख में लिखा है-“हमारे देश में एक तो यह जानने की सुविधा बहुत कम है कि कौन बालक किस विषय का अध्ययन करने की क्षमता रखता है। इस प्रकार के परीक्षण हमारे देश में उच्च शिक्षा में नहीं हैं। दूसरा, अभिभावक इस तरह का परामर्श मानने को तैयार नहीं है। लड़के की सामर्थ्य को बिना समझे ही यह निश्चित कर लिया जाता है कि उसे क्या बनायेंगे ?”
7. अनुशासहीनता की समस्या- विश्वविद्यालयों में अनुशासनहीनता के लिए छात्र तथा शिक्षक दोनों ही उत्तरदायी है। प्रवेश को लेकर कुलपति का घेराव, तोड़-फोड़, आगजनी आदि घटनायें घटित होती रहती हैं, परिणामस्वरूप, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को अनिश्चित काल के लिए बन्द करना पड़ता है। उच्च शिक्षा पर कुछ राजनीतिक तथा सामाजिक वर्गों का प्रभाव पड़ रहा है। फलस्वरूप, छात्र वर्ग का अन्य वर्गों के साथ संघर्ष बढ़ रहा है। आजकल अध्यापकों से दुर्व्यवहार, परीक्षा में नकल को लेकर होने वाली हिंसा, अनैतिकता, अनुशासनहीनता इसके ज्वलंत प्रमाण है।
8. उद्देश्यहीनता की समस्या- उद्देश्यहीनता उच्च शिक्षा की अत्यन्त गम्भीर समस्या है। उद्देश्यहीनता की समस्या के. कारण छात्रों का भावी जीवन अन्धकारमय प्रतीत हो रहा है। आज का छात्र समाज का मात्र चेतनाहीन सदस्य बनकर ही रह गया है। इसका मुख्य कारण किसी विशिष्ट उद्देश्य से शिक्षा प्राप्त न करना है। इस सम्बन्ध में गुजार मिरडल ने लिख है-“विश्वविद्यालयों को उपाधियाँ, सरकारी नौकरियों हेतु पासपोर्ट थीं। शिक्षा, शिक्षार्थियों को नौकरी हेतु न कि जीवन हेतु तैयार करने के संकीर्ण उद्देश्य से दी जाती है। “
9. शिक्षा में विशिष्टीकरण की समस्या- उच्च शिक्षा में विभिन्न विषयों के विशिष्टीकरण पर जोर दिया जाता है। फलस्वरूप, किसी विषय में दक्षता प्राप्त करने के पश्चात् छात्रों का दृष्टिकोण अत्यन्त संकीर्ण बन जाता है। इस सम्बन्ध में श्री सैयदेन ने लिखा है-“विशिष्टीकरण में एक तरह की संकीर्णता अकाल्पनिकता होती है, जिसका परिणाम यह होता है. कि विज्ञान वर्ग के शिक्षार्थियों को कला, कविता तथा सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं का कोई ज्ञान नहीं होता। विज्ञान और वैज्ञानिक विधियों ने इस संसार को, जिसमें वे रहते हैं, किस तरह बदल दिया है। “
10. अनुसन्धान की समस्या – आज भारतवर्ष में ऐसे अनेक विश्वविद्यालय हैं, जिनमें अनुसन्धान की समस्या अत्यधिक गम्भीर समस्या है। इसका मुख्य कारण यह है कि आज विश्वविद्यालयों में पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं और कार्यशालाओं का अभाव है। आज प्रत्येक छात्र एम० ए० (स्नातकोत्तर) परीक्षा पास करने के उपरान्त अनुसन्धान कार्य करना चाहता है। इसी कारण अनुसन्धान की समस्या दिन-प्रतिदिन गम्भीर होती जा रही है।
11. छात्र संघ तथा छात्र समितियों की समस्या- उच्च स्तर पर छात्र संघ की समस्या भी अत्यधिक गम्भीर समस्या बनी हुई है। छात्र संघ, प्रधानाचार्यों तथा प्रबन्धकों के कार्यों में अपना हस्तक्षेप करते हैं। वर्तमान युग में छात्र संघ विद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में अभिशाप सिद्ध हुए हैं। इस सम्बन्ध में श्री वी० के० आर० वी० राय ने लिखा है—छात्र समितियों के प्रश्न पर वे अपने सहयोगियों के विचार तथा स्वयं के विचारों को अनुकूल बनाने हेतु विशेष रूप से चिन्तित हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में इस प्रकार की समितियों की संख्या अत्यधिक है, जिनमें अनेक रजिस्टर्ड भी नहीं होतीं। हम यह भी जानते हैं कि उनको अपना फण्ड कहाँ से प्राप्त होता है या वे इनका किस प्रकार से उपयोग करते हैं। हम यह कह सकते हैं कि कभी-कभी हमें चिन्ता में डाल देने वाले विशाल विदेशी फण्ड भी उनको मिल जाते हैं। हमारा विचार यह है कि ऐसी समितियों की मौजूदगी के कारण ही छात्र राजनीतिज्ञों का निर्माण होता है।”
उच्च शिक्षा की समस्याओं का समाधान
1. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम की समस्या – के समाधान के लिए पाठ्यक्रम का चयन विद्यार्थियों की अभिरुचि के अनुसार किया जाए। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्धारण व्यावहारिकता को दृष्टि में रखते हुए किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम लचीला तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील होना चाहिए। इसके साथ ही प्राध्यापकों को मूल्यांकन को नयी रीतियों से अवगत कराया जाए तथा केन्द्रीय परीक्षा सुधार यूनिट की स्थापना की जाए।
2. शिक्षा के माध्यम की समस्या – के समाधान के लिए अंग्रेजी को उच्च शिक्षा का माध्यम न बनाया जाए। इस समस्या के समाधान हेतु अनेक आयोगों ने समय-समय पर अपने सुझाव प्रस्तुत किए हैं, जैसे कोठारी आयोग द्वारा क्षेत्रीय भाषाओं को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव प्रस्तुत किया गया। इसके अतिरिक्त राधाकृष्णन आयोग, भावात्मक एकता तथा भारतीय सरकार ने भी क्षेत्रीय भाषा को ही शिक्षा के माध्यम के रूप में मान्यता प्रदान की परन्तु अनेक क्षेत्रीय भाषायें ऐसी हैं, जिन्हें शिक्षा का माध्यम नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि उन क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। इसलिए आज यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि अधिकाधिक व्यक्तियों को संघीय भाषा हिन्दी का ज्ञान प्रदान किया जाए तथा सम्पूर्ण देश में हिन्दी को ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।
3. शिक्षा के गिरते हुए स्तर की समस्या – के समाधान के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत हैं-
- अध्यापकों के वेतनमान बढ़ाये जाएँ और उनसे एक सप्ताह में अठारह घण्टे से अधिक कार्य न कराया जाए।
- अतिरिक्त कक्षाओं की व्यवस्था की जाए।
- पाठ्यक्रम को व्यावहारिक बनाया जाए।
- अध्यापकों के सेवा प्रतिबन्धों में सुधार किया जाए।
- प्रयोगशाला तथा पुस्तकालय का सुसंगठन किया जाए।
इस समस्या के समाधान के लिए कोठारी कमीशन ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किए-
- नये प्रवक्ताओं हेतु एक निश्चित पाठ्यक्रम बनाया जाए।
- जूनियर प्रवक्ताओं को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाए।
4. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली की समस्या – के समाधान के लिए प्रचलित परीक्षा पद्धति में निम्नलिखित सुधार किए जाएँ-
- निबन्धात्मक परीक्षाओं के स्थान पर वस्तुनिष्ठ परीक्षायें आयोजित की जानी चाहिएँ ।
- 50 प्रतिशत से कम अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी को उच्च शिक्षा से वंचित कर देना चाहिए।
- केन्द्रीय परीक्षा सुधार यूनिट की स्थापना की जाए।
- प्राध्यापकों को मूल्यांकन की नवीन रीतियों से अवगत कराया जाना चाहिए।
इस सम्बन्ध में कोठारी कमीशन ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किए हैं-
- मूल्यांकन के नवीन दृष्टिकोणों के माध्यम से परीक्षाओं में सुधार किया जाना चाहिए।
- बाह्य परीक्षाओं के प्रश्न-पत्रों को वस्तुनिष्ठ बनाया जाना चाहिए।
- विद्यार्थियों के विकास से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों का मापन करने हेतु नवीन रीतियों की खोज की जानी चाहिए।
5. मार्ग दर्शन तथा समुपदेशन की समस्या – के समाधान के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं-
- अनुभवी तथा प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा विद्यार्थियों को निर्देशन और परामर्श दिया जाना चाहिए।
- महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में ऐसे प्राध्यापकों की नियुक्ति की जानी चाहिए, जो विद्यार्थियों की रुचि को ज्ञात कर उन्हें परामर्श दे सकें।
- प्राध्यापकों को मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए।
6. अनुशासनहीनता की समस्या – के समाधान के लिए कोठारी आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किए-
- अध्यापक तथा विद्यार्थियों के मध्य प्रेम तथा सहयोग की भावना का विकास किया जाए।
- समस्त शिक्षण संस्थाओं में सुधार किया जाए।
- शिक्षा द्वारा सभी स्तरों में सुधार किया जाए।
- शिक्षा तथा प्रशासन से सम्बन्धित सभी दोषों को समाप्त किया जाए।
- समस्त उच्च शिक्षा संस्थानों में निर्देशन तथा परामर्श की समुचित व्यवस्था की जाए।
- विश्वविद्यालय की सभा और साहित्यिक परिषद् में छात्रों को प्रतिनिधित्व दिया जाए।
- समस्त विश्वविद्यालय के जीवन को एक मानकर अध्यापकों, विद्यार्थियों और प्रशासन के बीच विभेदीकरण के समस्त प्रयासों को समाप्त किया जाए।
- विद्यार्थियों में स्वानुशासन और सकारात्मक अनुशासन की भावना का विकास किया जाए।
इस सम्बन्ध में भारतीय विश्वविद्यालय प्रशासन ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किया है-
“अनुशासनहीनता की समस्या का समाधान करने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि युवा छात्रों की क्रियाओं को स्वस्थ दिशाओं में अभिमुख किया जाए। यह तभी सम्भव है, जब उनके लिए अतिरिक्त शैक्षणिक सुविधाओं का आयोजन किया जाए जैसे— खेलकूद, छात्रावासों में सामुदायिक जीवन, भोजनालयों की विद्यार्थियों द्वारा व्यवस्था, वाद-विवाद तथा गोष्ठियाँ, लेकिन शर्त यह है कि इन समस्त कार्यों में अध्यापक अग्रणी हों।”
7. उद्देश्यहीनता की समस्या- का समाधान विद्यार्थियों के समक्ष एक निश्चित उद्देश्य रखकर किया जा सकता है। विश्वविद्यालय आयोग के अनुसार विद्यार्थियों के समक्ष एक निश्चित लक्ष्य होना चाहिए तथा उसी के अनुसार विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
8. शिक्षा में विशिष्टीकरण की समस्या- का समाधान ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समन्वय स्थापित करके ही किया जा सकता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि ज्ञान को भिन्न-भिन्न भागों में अलग-अलग विभाजित करके नहीं पढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, सामान्य तथा विशेषीकृत शिक्षा में भी समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए और शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए, जिससे सभी छात्र शिक्षा प्राप्त कर सकें।
9. छात्र संघ तथा छात्र समितियों की समस्या- के समाधान हेतु छात्र संघों का निर्माण इस प्रकार किया जाए कि वे छात्रों में नेतृत्व के गुणों का विकास कर सकें तथा छात्रों को राष्ट्र उपयोगी कार्यों को करने के लिए प्रेरित कर सकें। इसके अतिरिक्त छात्र संघों का पंजीकरण किया जाना चाहिए। इन संघों का प्रमुख कार्य शैक्षिक जीवन को अधिक से अधिक उन्नतिशील बनाना होना चाहिए तथा इन संघों का उद्देश्य निश्चित होना चाहिए ।
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