शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

धार्मिक और नैतिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं ? धार्मिक और नैतिक शिक्षा की क्या आवश्यकता है ?

धार्मिक और नैतिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं ? धार्मिक और नैतिक शिक्षा की क्या आवश्यकता है ?
धार्मिक और नैतिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं ? धार्मिक और नैतिक शिक्षा की क्या आवश्यकता है ?

धार्मिक और नैतिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं ? धार्मिक और नैतिक शिक्षा की क्या आवश्यकता है ? आधुनिक भारत में इसे किस रूप में और कैसे दी जानी चाहिए ?

धर्म और नैतिकता

मनुष्य जीवन के प्रमुख रूप से तीन पक्ष होते हैं-प्राकृतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मनुष्य के इन तीनों पक्षों के उन्नयन के लिए प्रत्येक समाज ने कुछ नियम निश्चित किए हैं। इनमें से सामाजिक जीवन सम्बन्धी नियमों का पालन करना नैतिकता कहलाता है और आध्यात्मिक नियमों का पालन करना धर्म कहलाता है, यहाँ यह बात अवश्य समझ लेनी चाहिए कि सामाजिक नियमों का पालन करने से मनुष्य का केवल सामाजिक उन्नयन होता है, जबकि आध्यात्मिक नियमों के पालन से मनुष्य के प्राकृतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक तीनों पक्षों का उन्नयन होता है। सामाजिक नियम देश और काल से प्रभावित होते हैं, इसलिए नैतिकता देश-काल सापेक्ष होती है। इसके विपरीत आध्यात्मिक नियम सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक होते हैं, इसलिए धर्म देश-काल निरपेक्ष होता है। यही नैतिकता और धर्म में अन्तर होता है। उदाहरण के लिए, इंग्लैण्ड और अमेरिका में रहने वाले लोगों का धर्म एक है-ईसाई धर्म, परन्तु उनके सामाजिक नियम भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए, उनकी नैतिकता में भिन्नता है।

धर्म तथा नैतिकता के सम्बन्ध में एक बात अवश्य है कि धर्मप्रधान समाजों में सामाजिक जीवन का आधार प्रायः धर्म होता है। यही कारण है कि वहाँ धर्म तथा नैतिकता में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। हमारा भारतीय समाज इसी प्रकार का समाज है। यहाँ धर्म और नैतिकता में निकट का सम्बन्ध है और इन दोनों का संयुक्त रूप हमारा आदर्श है। हमारी दृष्टि से आध्यात्मिक मान्यताओं और मूल्यों अर्थात् धर्म पर आधारित नैतिकता केवल सामाजिक आदर्शों और मूल्यों पर आधारित नैतिकता से अधिक ठोस तथा स्थाई होती है, और वही सच्ची नैतिकता होती है। अतः धार्मिक और नैतिक शिक्षा को एक ही अर्थ में लेना चाहिए।

इस युग में चाहे लोग धर्म की बात करें और चाहे नैतिकता की, वे इन्हें मनुष्य जीवन के तीनों पक्षों प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक, के सन्दर्भ में प्रयोग करते हैं, किन्तु इतने अन्तर के साथ कि जब धर्म की बात करते हैं तो मूल बिन्दु अध्यात्म होता है तथा जब नैतिकता की बात करते हैं तो मूल विन्दु समाज होता है, और जब हम धार्मिक शिक्षा की बात करते हैं तो उसमें नैतिक शिक्षा जुड़ी होती है और जब नैतिक शिक्षा की बात करते हैं तो उसमें धार्मिक शिक्षा निहित होती है। अतः हमें धार्मिक और नैतिक शिक्षा की बात एक साथ करनी चाहिए।

धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की आवश्यकता (Need of Religious and Moral Education)

विद्यालयों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा दी जाए अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में अब विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वान विद्यालयों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा दिए जाने के पक्ष में हैं और कुछ इसका विरोध करते हैं और इस सन्दर्भ में इनके अपने-अपने तर्क है।

धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा के पक्ष में तर्क

जो विद्वान विद्यालयों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा दिए जाने की आवश्यकता पर बल देते हैं, उनके अपने पक्ष में निम्नलिखित तर्क हैं-

  1. धर्म मनुष्य को जीवन के वास्तविक सत्य से परिचित कराता है, उन्हें अपने जीवन के अन्तिम उद्देश्य से परिचित कराता है और उसकी प्राप्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।
  2. धर्म मनुष्य को सद्विचार और सदाचरण की ओर प्रवृत्त करता है, उनमें उचित आदतों का निर्माण करता है और उनका नैतिक एवं चारित्रिक विकास करता है।
  3. धर्म मनुष्य को अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार और शोषण आदि बुराइयों से दूर रखता है।
  4. धर्म सार्वभौमिक सत्य है, यह मनुष्य को मनुष्य बनाता है
  5. धर्म मनुष्य को शक्ति के दुरुपयोग से बचाता है और उन्हें मानव सेवा का सच्चा पाठ पढ़ाता है।
  6. धर्म मनुष्य के प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक, तीनों पक्षों का विकास करता हैं
  7. धर्म राष्ट्रीय एकता और अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध के विकास में सहायक होता है।
  8. बच्चों में धर्म के संस्कार प्रारम्भ से ही पड़ने चाहिएँ और विद्यालयों की इस क्षेत्र में अपनी अहम् भूमिका होती है।
  9. धर्म मनुष्य को वास्तविक सुख और शान्ति प्रदान करता है।

धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा के विपक्ष में तर्क

कुछ विद्वान विद्यालयों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा दिए जाने का विरोध करते हैं। अपने मत के पक्ष में उसके निम्नलिखित तर्क हैं-

  1. धर्म हमें वास्तविक सत्य की ओर नहीं, अन्धविश्वासों की दुनियाँ में ले जाता है।
  2. धार्मिक सम्प्रदाय धार्मिक साम्प्रदायिकता को जन्म देते हैं, ईर्ष्या और द्वेष को जन्म देते हैं और युद्ध और रक्तपात को जन्म देते हैं।
  3. धर्म राष्ट्रीय एकता और अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध के विकास में साधक नहीं, बाधक होता है। “
  4. धर्म मनुष्य को सन्तोष की गोली खिलाकर कर्महीन बनाता है, उनकी भौतिक प्रगति में बाधा डालता है।
  5. धर्म आत्मनिष्ठ विषय है, यह मनुष्यों में भेद भावना का विकास करता है।
  6. धर्म मनुष्य को पारलौकिक सुख का लोभ देकर उन्हें लौकिक सुखों से दूर रखता उनकी प्रगति में बाधक होता है।
  7. धर्म की शिक्षा तो बच्चे अपने अपने परिवार एवं समुदाय की क्रियाओं में भाग लेते हुए स्वाभाविक रूप से प्राप्त करते हैं; विद्यालयों में इसकी शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं
  8. मार्क्स के अनुसार धर्म पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देता है, आर्थिक शोषण को बढ़ावा देता है और वर्ग भेद को बढ़ावा देता है।
  9. धर्म मनुष्यों को विवेकशील नहीं, अन्धा अनुयायी बनाता है, उनमें धर्म के नाम पर भेदभाव उत्पन्न करता है।

हमारा मत

हम विद्यालयों में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की व्यवस्था किए जाने के पक्ष में हैं। हम स्वीकार करते हैं कि संसार में धर्म के नाम पर सदैव लड़ाई-झगड़े होते रहे हैं, रक्तपात होता रहा है; किन्तु वास्तविकता यह है कि यह सब धर्म के वास्तविक अर्थ और उसके वास्तविक उद्देश्य को न समझने के कारण होता रहा है, धार्मिक सम्प्रदायों के संकीर्ण दृष्टिकोणों के कारण होता रहा है। हम तो धार्मिक संकीर्णता के अन्त के लिए धर्म तथा नैतिकता की शिक्षा की आवश्यकता समझते हैं। परिवार और समुदाय में बच्चे अपने-अपने धर्म की शिक्षा प्राप्त करते हैं और वह भी अस्पष्ट रूप में। विद्यालयों में हमारा पहला उद्देश्य बच्चों को धर्म के वास्तविक रूप से परिचित कराना होना चाहिए। दूसरा उद्देश्य संसार के मुख्य धर्मों के सामान्य सिद्धान्तों का ज्ञान कराना होना चाहिए। तीसरा उद्देश्य उनमें धार्मिक सहिष्णुता का विकास करना होना चाहिए। उस स्थिति में धर्म लड़ाई-झगड़ों और रक्त-पात के स्थान पर मानव मात्र के प्रति प्रेम और सेवा भाव उत्पन्न करेगा।

अब थोड़ा अपने देश भारत के विषय में अलग से विचार करें। हमारे देश में धार्मिक और नैतिक शिक्षा के मार्ग में तीन बड़ी समस्याएँ हैं-

1. नैतिकता का कोई सार्वभौमिक मापदण्ड नहीं होता, जो कृत्य एक स्थान पर उचित समझा जाता है, वही दूसरे स्थान पर हेय समझा जाता है।

2. हमारे देश में विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं और इनमें से कुछ धर्मों में बड़ा मतभेद है।

3. भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है। इसके संविधान की धारा 22 (1) में स्पष्ट लिखा है कि सरकारी सहायता पर निर्भर विद्यालयों में किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।

पहली समस्या के सन्दर्भ में हमारा निवेदन है कि यह भारी मतभेद संकीर्णता के कारण होता जा रहा है। यदि हम सब धर्मों के मूल सिद्धान्तों और नैतिक आचरण को देखें तो उनमें बड़ी समानता है। धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा द्वारा हमें बच्चों को संकीर्णता से निकालकर सभी धर्मों की सामान्य स्वीकृतियों से परिचित कराना चाहिए।

दूसरी समस्या है मापदण्ड की। यह भी दृष्टि भेद के कारण है। जब प्रकृति ने संसार के सब मनुष्यों को एक-सा बनाया है तथा उनके जीवन का अन्तिम उद्देश्य भी एक ही है, तब उस उद्देश्य की प्राप्ति के साधनों में मूलभूत भेद होने की गुंजाइश नहीं है। अतः हमें धार्मिक उदारता से काम लेना चाहिए।

तीसरी समस्या है धर्मनिरपेक्षता की। इस विषय में हमारा यह निवेदन है कि हमारा राज्य सभी धर्मों को समान स्थान देता है और किसी एक धर्म को सभी व्यक्तियों पर जबरन लादने का विरोध करता है। फिर, सब धर्मों के सिद्धान्तों की चर्चा प्रस्तुत कर उनकी समानता का ज्ञान कराने का तो कोई विरोध नहीं करता। अतः धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती हैं।

हमारा तो मत यह है कि संसार में द्वेष, ईर्ष्या, असहयोग, शोषण तथा भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए हमें धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करनी ही चाहिए। धर्म ही मनुष्यों को पशु से ऊपर उठाता है।

धर्मनिरपेक्ष भारत में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा (Religious and Moral Education in Secular India)

भारत एक धर्मप्रधान देश है। प्राचीन काल में तो धर्म हमारे जीवन का मुख्य आधार था। तब शिक्षा के क्षेत्र में धर्म का बोलबाला था और यह पाठ्यचर्या का मुख्य विषय था। मुसलमान काल तक धार्मिक शिक्षा का प्रवाह चलता रहा। अंग्रेजों ने अपने शासन काल में यहाँ की शिक्षा से धर्म को अलग किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमने भी यही नीति अपनाई तथा धर्मनिरपेक्ष भारत की शिक्षा में किसी भी धर्म की शिक्षा देना उपयुक्त नहीं समझा, किन्तु इस शिक्षा के अभाव में हमारा नैतिक पतन हो रहा है, इसलिए अब धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की आवश्यकता पुनः समझी जाने लगी है। अब हमारे सामने समस्या यह है कि भारत में किस प्रकार की धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जाए और कैसे दी जाए। इससे पहले कि इस सम्बन्ध में हम अपने विचार प्रस्तुत करें, कुछ शिक्षा समितियों तथा आयोगों के सुझाव प्रस्तुत करना आवश्यक समझते हैं, अतः प्रस्तुत हैं।

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के सुझाव

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति डॉ० राधाकृष्णन की अध्यक्षता में 1948 में हुई थी। इस आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के सभी पहलुओं पर विचार किया था। धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की आवश्यकता पर इसने भी बल दिया और उसके लिए एक रूपरेखा भी तैयार की। यहाँ हम उसे संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसने धार्मिक शिक्षा की पाठ्यचर्या को दो भागों में बाँटा है-विद्यालयी स्तर तथा विश्वविद्यालयी स्तर ।

विद्यालयी स्तर-विद्यालयी स्तर से आयोग का तात्पर्य माध्यमिक स्तर से है। इस स्तर पर उसने छात्रों को श्रेष्ठ नैतिक और धार्मिक सिद्धान्तों को व्यक्त करने वाली कहानियों, महान् व्यक्तियों की जीवनियों और उनके विचारों को पढ़ाने पर बल दिया है।

विश्वविद्यालयी स्तर– विश्वविद्यालयी स्तर पर उसने धर्म के तुलनात्मक अध्ययन पर बल दिया है और उसके लिए एक विस्तृत पाठ्यचर्या प्रस्तुत की है। आयोग के अनुसार डिग्री कोर्स के प्रथम वर्ष में बुद्ध, कन्फ्यूसियस, जोरोस्टर, सुकरात, ईसा, संकर, रामानुज, माधव, मोहम्मद, कबीर, नानक तथा गाँधी आदि की जीवनियों, द्वितीय वर्ष में संसार के धार्मिक ग्रन्थों में से सार्वभौमिक महत्व के चुने हुए भागों तथा तृतीय वर्ष में धर्म-दर्शन की मुख्य समस्याओं का अध्ययन कराया जाना चाहिए।

धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा समिति के सुझाव

धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा समिति का गठन भारत सरकार ने अगस्त, 1959 में श्रीप्रकाश जी की अध्यक्षता में किया था। धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा समिति ने अपनी रिपोर्ट जनवरी, 1960 में प्रस्तुत की। समिति के विचार में आधुनिक भारतीय शिक्षा जगत तथा समाज के बहुत से दोषों का कारण यह है कि जनता से धर्म का अंकुश हटता जा रहा है। अतः यह आवश्यक है कि शिक्षा के क्षेत्र में धर्म को स्थान दिया जाए। समिति ने इस बात को स्पष्ट किया कि हमें संकीर्णता से उठकर धर्म के वास्तविक रूप को स्वीकार करना चाहिए और विद्यालयों को इस धार्मिक शिक्षा का विधान करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे भारतीय संविधान के विरुद्ध किसी धर्म विशेष की शिक्षा का बलपूर्वक प्रयत्न न करें। समिति ने शिक्षा के भिन्न-भिन्न स्तरों के लिए धार्मिक शिक्षा की निम्नलिखित योजना प्रस्तुत की है-

प्राथमिक स्तर- सामूहिक गान, धर्म प्रवर्तकों तथा सन्तों के जीवन चरित्र और उनके द्वारा दिए गए उपदेश और उनसे सम्बन्धित रोचक कहानियाँ, धर्म से सम्बन्धित कला एवं स्थापत्य कला का दृश्य-श्रव्य साधनों द्वारा प्रदर्शन, सेवा की मनोवृत्ति का प्रचार, शारीरिक शिक्षा और नियमित नैतिक शिक्षा।

माध्यमिक स्तर- प्रातःकालीन प्रार्थना सभा, विश्व के महान् धर्मों के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों की शिक्षा, समाज सेवा कार्य तथा आचरण की शिक्षा

विश्वविद्यालयी स्तर- डिग्री कक्षाओं में सामान्य शिक्षा के कोर्स में विश्व के विभिन्न धर्मों का सामान्य अध्ययन, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन और विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन।

विशेष- इस समिति ने इस सबके लिए प्राथमिक स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक के लिए धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा के की पुस्तकें तैयार करने, सभी स्तरों पर देश भक्ति, सेवा, त्याग तथा अच्छे आचरण के विकास के लिए प्रयत्न करने, माध्यमिक स्तर पर कक्षोन्नति के लिए अच्छा आचरण आवश्यक बनाने और परिवार तथा समुदाय के स्तर को ऊँचा उठाने की सिफारिश भी की है। धार्मिक और नैतिक शिक्षा के लिए समिति ने योग्य तथा चरित्रवान अध्यापकों की नियुक्ति पर बल दिया है और इसके लिए उनके वेतन बढ़ाने की सिफारिश की है। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि अध्यापकों को प्रशिक्षण काल में ही विभिन्न धर्मों का ज्ञान कराना चाहिए और उन्हें धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा देने की विधि में प्रशिक्षित करना चाहिए।

शिक्षा आयोग के सुझाव

शिक्षा आयोग का गठन भारत सरकार ने 1964 में डॉ० डी० एस० कोठारी की अध्यक्षता में किया था। इस आयोग ने देश के गिरते हुए धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्तर के प्रति गहरी चिन्ता व्यक्त की है और सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा के लिए संगठित रूप से प्रयत्न करने पर बल दिया है। शिक्षा आयोग ने धार्मिक और नैतिक शिक्षा के लिए निम्नलिखित योजना प्रस्तुत की है-

विद्यालयी स्तर- विद्यालयी स्तर की पाठ्यचर्या में संसार के सभी धर्मों को उचित स्थान दिया जाए, सम्पूर्ण देश के लिए समान स्तर की पुस्तकें तैयार कराई जाएँ, सभी छात्रों को नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों—प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, दया, सत्यता तथा ईमानदारी आदि की शिक्षा दी जाए। प्राथमिक स्तर पर देश-विदेश के महान् धर्मों से चुनी रोचक कहानियों द्वारा उन धर्मों के मूल्यों की शिक्षा दी जाए। माध्यमिक स्तर पर इन मूल्यों के ऊपर विचार-विमर्श हो, महान् आध्यात्मिक नेताओं की जीवनियाँ पढ़ाई जाएँ तथा विश्व के महान् धर्मों के सिद्धान्तों की शिक्षा दी जाए। आयोग ने सुझाव दिया है कि इन सबको विद्यालयी पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाए और इसकी शिक्षा के लिए समय-सारणी में प्रति सप्ताह कुछ घण्टे निर्धारित किए जाएँ।

विश्वविद्यालयी स्तर- विश्वविद्यालयी स्तर पर छात्रों को व्यक्ति के सम्मान, समानता, सामाजिक न्याय, कल्याणकारी राज्य आदि की शिक्षा दी जाए और उन्हें सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से परिचित कराया जाए। डिमी कोर्स के प्रथम वर्ष में महान् धार्मिक नेताओं की जीवनियाँ पढ़ाई जाएँ, द्वितीय वर्ष में विभिन्न धर्मों के धार्मिक ग्रन्थों में से सार्वभौमिक महत्व के चुने हुए भागों को पढ़ाया जाए तथा फिर सब धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन कराया जाए। इस सबके लिए आयोग ने धार्मिक तथा नैतिक साहित्य तैयार करने की आवश्यकता पर बल दिया है।

कुछ अन्य प्रमुख सुझाव

चयन समिति (1999) ने किसी धर्म विशेष की शिक्षा के स्थान पर धर्मों के बारे में शिक्षा पर बल दिया है। यूनेस्को (2000) ने अन्तर्सास्कृतिक और अन्तर्धामिक आदान-प्रदान और आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता पर बल दिया है।

हमारे सुझाव

धर्म तथा नैतिकता मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता हैं, बिना इनके उसे मनुष्य नहीं बनाया जा सकता। अतः इनकी शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य रूप से होनी चाहिए, परन्तु कितनी और कैसे, यह विषय विचारणीय है। इस सम्बन्ध में मुख्य-मुख्य समितियों तथा आयोगों के सुझाव हमने ऊपर दिए हैं। हमारी दृष्टि से उनके द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम इतना विस्तृत है कि ऐसा लगता है जैसे धर्म ही पाठ्यचर्या का मुख्य विषय है। हमारी अपनी समिति में धर्म तथा नैतिकता पाठ्यचर्या के विषय मात्र हो नहीं होने चाहिएँ, अपितु जीवन विधि के आधार होने चाहिए और इनकी शिक्षा परिवार, समुदाय और जहाँ भी बच्चे उठें-बैठें वहाँ प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों रूप से मिलनी चाहिए। विद्यालयों का कार्य तो यह होना चाहिए कि वे भिन्न-भिन्न परिवारों और समुदायों से आने वाले बच्चों को एक-दूसरे के धर्मों से परिचित कराएँ, उन्हें सब धर्मों का आदर करने की ओर प्रवृत्त करें तथा सर्वधर्म सम्मत नैतिक आचरण में प्रशिक्षित करें। इसके लिए हमारे निम्नलिखित सुझाव हैं-

1. शिक्षा का एक उद्देश्य आध्यात्मिक विकास- हमारी वर्तमान शिक्षा में आध्यात्मिक विकास के उद्देश्य को स्थान – नहीं है। धर्म तथा नैतिक शिक्षा की आवश्यकता को समझने के बाद हमें इसे शिक्षा का एक उद्देश्य मान लेना चाहिए। जो आध्यात्मिकता के नाम से चिढ़ते हैं, उन्हें हमें समझाने का प्रयत्न करना चाहिए और यदि वे नहीं समझते हैं तो फिर उनके लिए अनिवार्य शिक्षा के द्वार बन्द समझने चाहिएँ। लोकतन्त्र का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य पशु बनने के लिए स्वतन्त्र है।

2. शिक्षण विधियों में सुधार – अभी तक हम बच्चों को सूचनाएँ भर देते हैं पर धर्म तथा नैतिकता की वास्तविक शिक्षा के लिए हमें पढ़ाए जाने वाले ज्ञान और सिखाए जाने वाली क्रियाओं का जीवन से सम्बन्ध स्थापित करना होगा। विभिन्न धर्मों के सिद्धान्त और नैतिक नियमों की शिक्षा तुलनात्मक ढंग से स्वीकारोक्ति की प्रवृत्ति के साथ देनी चाहिए। अध्यापकों का स्वयं का दृष्टिकोण निरपेक्ष एवं व्यापक होना चाहिए।

3. सहपाठ्यचारी क्रियाओं में वृद्धि- अभी तो सहपाठ्यचारी क्रियाओं में प्राय: खेल-कूद एवं साहित्यिक तथा सांस्कृतिक क्रियाएँ ही होती हैं। धर्म तथा नैतिक शिक्षा के लिए इन क्रियाओं में धार्मिक उत्सवों और नेताओं के जन्मदिन मनाने, धार्मिक स्थानों की यात्रा करने और धार्मिक मेलों में सेवा कार्य करने के कार्यक्रम और शामिल किए जाएँ।

4. पुस्तकालयों और वाचनालयों में सुधार- पुस्तकालयों में विभिन्न धर्मों एवं संस्कृतियों से सम्बन्धित साहित्य होना चाहिए और वाचनालयों में इससे सम्बन्धित पत्र-पत्रिकाएँ। इन वाचनालयों में यदि विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों के चित्र लगाए जा सकें तो और भी अच्छा रहेगा। विद्यालयों के हाल या आर्ट गैलरियों में विभिन्न राजनैतिक और धार्मिक नेताओं, समाज सुधारकों, शिक्षाशास्त्रियों और वैज्ञानिकों के चित्र लगाए ही जाने चाहिएँ।

5. परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन – आज की शिक्षा परीक्षा प्रधान है। बच्चे केवल उतना ही सीखना चाहते हैं, जितने से परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाएँ। अतः हमें परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन करना होगा। परीक्षा रटने पर नहीं, अपितु पर आधारित होनी चाहिए। परीक्षा से केवल ज्ञान की परीक्षा ही नहीं, अपितु ज्ञान के प्रयोग करने की क्षमता की परीक्षा भी होनी चाहिए। बच्चों के स्वास्थ्य तथा आचरण को भी परीक्षा का क्षेत्र बनाना चाहिए और कक्षोन्नति करते समय इसका ध्यान रखा जाए। अस्वस्थ और अनुचित आचरण करने वाले छात्रों को कक्षोन्नति न दी जाए। जब तक इस सबका प्रत्यक्ष और तत्कालीन महत्व नहीं होगा तब तक बच्चे उसकी ओर आकर्षित नहीं होंगे।

6. शिक्षा की पाठ्यचर्या में परिवर्तन- धर्म तथा नैतिकता अलग विषय के रूप में नहीं, अपितु समस्त विषयों के अभिन्न अंग और जीवन की विधि के रूप में विकसित होने चाहिएँ। इसके लिए विशेषकर भाषा की मुख्य पुस्तकों में विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों पर लेख होने चाहिएँ और सहायक पुस्तकों में धर्म पुरुषों की जीवनियाँ तथा रोचक कहानियाँ होनी चाहिएँ। इतिहास में विभिन्न धर्मों के विकास, उनके प्रवर्तकों की जीवनियाँ और उन धर्मों के मुख्य सिद्धान्तों और नैतिक शिक्षाओं का समावेश होना चाहिए। सहपाठ्यचारी क्रियाओं में धार्मिक तथा सांस्कृतिक क्रियाओं को विशेष स्थान देना चाहिए। धर्म एवं नैतिकता के प्रति विस्तृत दृष्टिकोण का निर्माण बच्चों को यथा-परिस्थितियों में रखकर ही किया जा सकता है।

7. प्रातःकालीन सभाओं का आयोजन- विद्यालयों का कार्य सामूहिक सभा से शुरू होना चाहिए। इस समय प्रार्थना, विभिन्न विषयों पर प्रवचन तथा राष्ट्रगान की बात हम कई स्थानों पर लिख चुके हैं। यहाँ इतना और लिखना चाहेंगे कि ये प्रार्थनाएँ कई हो सकती हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों एवं भिन्न-भिन्न भाषा की हो सकती हैं। 10 मिनट प्रवचन के लिए होने चाहिएँ। इस समय कभी भाषा पर, कभी भावात्मक एकता पर, कभी राष्ट्रीय एकता पर, कभी अन्तर्राष्ट्रीय एकता पर तथा कभी विभिन्न धर्मों एवं संस्कृतियों पर भाषण देने चाहिएँ और यह कार्य बड़ी सहृदयता तथा श्रद्धा के साथ करना चाहिए। सब धर्मों के समान नैतिक नियमों की शिक्षा इस समय अवश्य देनी चाहिए।

8. समाज सेवा अनिवार्य – प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, दया, क्षमा, सहनशक्ति, कर्मशीलता और सेवा का सच्चा पाठ पढ़ाने के लिए प्राथमिक स्तर पर अपनी और अपने विद्यालय की सफाई का कार्य अपने आप करने तथा माध्यमिक स्तर पर जन कल्याण के कार्य, जैसे-सफाई, सड़कें बनाना और जन शिक्षा अनिवार्य रूप से सम्मिलित किए जाएँ।

9. भाषा एवं सामाजिक विषयों के साथ प्रबन्ध- हमारी दृष्टि से धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा को भाषा और सामाजिक विषयों के साथ पढ़ाना चाहिए। इसमें संस्कृति के ज्ञान को भी शामिल करना चाहिए। विश्वविद्यालय स्तर पर विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन की व्यवस्था होनी चाहिए।

धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा में शिक्षकों की भूमिका

धार्मिक तथा नैतिक भाषा का कार्य इतना सरल नहीं जितना इसका लिखना। प्रत्येक व्यक्ति, उसमें शिक्षक भी शामिल हैं, किसी धर्म विशेष को मानने वाला होता है और उसके प्रति उसका स्थायी भाव होता है, वह उसे श्रेष्ठतम समझता है। अब यदि हम उससे विभिन्न धर्मों की चर्चा करें अथवा कराएँ तो उसका झुकाव स्वाभाविक रूप से अपने धर्म विशेष की ओर अधिक होगा। इस स्थिति से पूर्ण रूप से निकलना तो सम्भव नहीं है, किन्तु विवेकशील शिक्षकों को इसके लिए प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। शिक्षा की कोई भी योजना शिक्षकों के सहयोग के बिना पूरी नहीं हो सकती।

धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा देते समय शिक्षकों को जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। उन्हें छात्रों और उनके अभिभावकों दोनों की स्वीकृति से ही यह कार्य करना चाहिए।

किसी भी स्थिति में धार्मिक शिक्षा पर इतना बल न दिया जाए कि विद्यालयों के अन्य कार्य गौण हो जाएँ।

इस सम्बन्ध में शिक्षकों को दो सावधानियाँ और बरतनी चाहिएँ। एक तो यह कि किसी भी स्थिति में वे किसी धर्म की निन्दा न करें और दूसरी यह कि वे जिन धार्मिक सिद्धान्तों तथा नियमों की चर्चा करें, उनकी सत्यता, तर्क और अनुभव के आधार पर स्पष्ट करें। जब तक शिक्षकों का दृष्टिकोण निरपेक्ष नहीं होगा, तब तक धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा देना सम्भव नहीं हो सकता। शिक्षकों को ईमानदारी से काम करना चाहिए।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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