शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

स्वामी विवेकानन्द की शैक्षिक विचारधारा | Educational ideology of Swami Vivekananda in Hindi

स्वामी विवेकानन्द की शैक्षिक विचारधारा | Educational ideology of Swami Vivekananda in Hindi
स्वामी विवेकानन्द की शैक्षिक विचारधारा | Educational ideology of Swami Vivekananda in Hindi

स्वामी विवेकानन्द की शैक्षिक विचारधारा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

जीवन परिचय (Swami Vivekanand’s Life – 1863-1902)

स्वामी जी का जन्म कोलकाता में सन् 1863 ई० में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उन्होंने कॉलेज स्तर तक शिक्षा प्राप्त की। वे अत्यन्त प्रखर बुद्धि वाले तेजस्वी छात्र थे। उनके प्रधानाचार्य मिस्टर हेस्टी ने उनके विषय में कहा था, “नरेन्द्रनाथ दत्त वस्तुतः प्रतिभाशाली है। मैंने विश्व के विभिन्न देशों की यात्राएँ की हैं, किन्तु किशोरावस्था में ही, इसके समान योग्य एवं महान् क्षमताओं वाला युवक मुझे जर्मन विश्वविद्यालयों में भी नहीं मिला।” नरेन्द्रनाथ ने एक बार दक्षिणेश्वर की यात्रा की और वहाँ उनका साक्षात्कार स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुआ। उन्होंने स्वामी रामकृष्ण परमहंस से जो भी प्रश्न किए, उनके उत्तरों से नरेन्द्रनाथ को बहुत संतोष मिला। वे जब दूसरी बार अपने गुरु के दर्शन करने के लिए गये तो उन्हें दिव्य शक्ति का अनुभव हुआ। श्री परमहंस के दिवंगत हो जाने के पश्चात् नरेन्द्रनाथ ने उनकी शिक्षाओं का प्रसार किया और इसके लिए वे अनेक स्थानों पर गए। 31 मई, 1893 को वे एक विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने अमेरिका गए। वहाँ जाने से पूर्व उन्होंने अपना नाम विवेकानन्द रखा। अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने जो भाषण दिया, उसका संसार के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा। अमेरिका से वे इंग्लैण्ड गए और वहाँ से वे भारत आ गए। भारत में वे अपने जीवन के अन्त तक संगठन एवं प्रचार के कार्य में लगे रहे। उनकी मृत्यु अल्प आयु में 1902 में ही हो गई।

जीवन-दर्शन (Philosophy of Life)

1. स्वामी विवेकानन्द सृष्टि के कर्ता ब्रह्मा को मानते थे, किन्तु वे माया और जगत को भी सत्य मानते थे। भला सत्य से असत्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?

2. उनके अनुसार ज्ञान के दो रूप हैं-वस्तु जगत का ज्ञान तथा आत्म-तत्व का ज्ञान। मनुष्य को इन दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए।

3. स्वामी जी मानव मात्र की सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानते थे।

4. उनके अनुसार मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति, ईश्वर प्राप्ति अथवा मुक्ति है।

5. आत्मानुभूति के लिए ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्तियोग आवश्यक हैं।

6. योग सभी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति की सर्वोत्तम विधि है।

7. ध्यान के लिए इन्द्रियनिग्रह एवं नैतिक विकास आवश्यक है।

8. वे मनुष्य के उद्यमी, निर्भय और वीर बनने पर बल देते थे। उन्हीं के शब्दों में, “वीर बनो ! हमेशा कहो, ‘मैं निर्भय हूँ’, सबसे कहो-डरो मत, भय मृत्यु है, भय पाप है, भय नर्क है, भय अधार्मिकता है तथा भय का जीवन में कोई स्थान नहीं है। “

9. स्वामी जी ने मनुष्य को आगे बढ़ते रहने के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहने का आह्वान किया। उन्होंने विभिन्न सिद्धान्तों में समन्वय पर भी बल दिया है।

शिक्षा-दर्शन (Educational Philosophy)

1. स्वामी विवेकानन्द मैकॉले द्वारा प्रचारित तत्कालीन अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य मात्र बाबुओं की संख्या बढ़ाना था।

2. स्वामी जी भारत में ऐसी शिक्षा चाहते थे, जिससे व्यक्ति चरित्रवान बने, साथ में आत्मनिर्भर भी बने। उन्हीं के शब्दों में, “हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। “

3. स्वामी जी सैद्धान्तिक शिक्षा की तुलना में व्यावहारिक शिक्षा पर बल देते थे। उन्हीं के शब्दों में, “तुमको कार्य के सब क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।”

शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त (Basic Principles of Educational Philosophy)

  1. शिक्षा ऐसी हो, जिससे व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास हो सके।
  2. शिक्षा ऐसी हो, जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो तथा व्यक्ति आत्मनिर्भर बने।
  3. बालकों के समान ही बालिकाओं को भी शिक्षा दी जानी चाहिए।
  4. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों से नहीं वरन् व्यवहार, आचरण एवं संस्कारों के माध्यम से दी जानी चाहिए।
  5. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं आध्यात्मिक, दोनों प्रकार के विषय रखे जाने चाहिएँ
  6. शिक्षा गुरुगृह में ही प्राप्त की जा सकती है।
  7. शिक्षक तथा छात्र में महिमामय तथा गरिमामय सम्बन्ध होने चाहिएँ।
  8. जनसाधारण को शिक्षित करने का प्रयास करना चाहिए।
  9. नारी शिक्षा का केन्द्र धर्म होना चाहिए।
  10. देश की औद्योगिक प्रगति के लिए प्राविधिक शिक्षा का विस्तार किया जाना चाहिए।
  11. राष्ट्रीय एवं मानवीय शिक्षा परिवार से प्रारम्भ होनी चाहिए।

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education )

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा का अर्थ मनुष्य में निहित व्यक्तियों का पूर्ण विकास है, न कि मात्र सूचनाओं का संग्रह है। उनके अनुसार, “यदि शिक्षा का अर्थ सूचनाओं से होता, तो पुस्तकालय संसार के सर्वश्रेष्ठ संत होते तथा विश्वकोष ऋषि बन जाते।” उनके अनुसार, “शिक्षा उस सन्निहित पूर्णता का प्रकाश है, जो मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है।”

शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education )

स्वामी जी के अनुसार, “यदि शिक्षा देश-प्रेम की प्रेरणा नहीं देती है, तो उसको राष्ट्रीय शिक्षा नहीं कहा जा सकता।” देश-प्रेम के अतिरिक्त स्वामी जी के अनुसार शिक्षा के अन्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-

  1. मानव शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, धार्मिक, नैतिक, चारित्रिक व व्यावसायिक विकास करना।
  2. मानव में आत्मनियन्त्रण, आत्म-त्याग, आत्मनिर्भरता, आत्मज्ञान आदि सद्गुणों को विकसित करना।
  3. मानव में मानव-प्रेम, समाज सेवा, विश्व-चेतना एवं विश्व बन्धुत्व के गुणों का आविर्भाव करना।
  4. मनुष्य की आन्तरिक एकता को बाह्य संसार में प्रगट करना।
  5. मनुष्य द्वारा अपनी शक्तियों का उपयोग मुक्ति पाने के लिए करना ।

पाठ्यक्रम (Curriculum)

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “हमें अपने ज्ञान के विभिन्न अंगों के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान का अध्ययन करने की आवश्यकता है। हमें प्राविधिक शिक्षा और उन सब विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है जिनसे हमारे देश के उद्योगों का विकास हो और मनुष्य नौकरियाँ खोजने के बजाय अपने स्वयं के लिए पर्याप्त धन का अर्जन कर सकें और दुर्दिन के लिए कुछ बचा भी सकें।”

स्वामी जी के शैक्षिक विचार के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण के निम्नलिखित सिद्धान्त होने चाहिएँ –

  1. पाठ्यक्रम ऐसा हो, जिसमें शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शक्ति का विकास हो ।
  2. पाठ्यक्रम ऐसा हो, जो किसी रोजगार की शिक्षा दे।
  3. विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया जाना चाहिए।
  4. पाठ्यक्रम में विज्ञान की शिक्षा को सम्मिलित किया जाए।
  5. पाठ्यक्रम में क्रियात्मक कार्यों को स्थान दिया जाए।

उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर स्वामी विवेकानन्द ने बालकों को इतिहास, भूगोल, विज्ञान एवं साहित्य पढ़ाने का सुझाव दिया। इसके साथ ही धर्म एवं सत्य की शिक्षा देने का भी अत्यधिक महत्व बताया। उन्होंने पाठ्यक्रम में क्रियात्मक कार्यों जैसे कृषि, रोजगार, धन्धों आदि की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया ताकि व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बन सकें। शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्वामी जी ने इन सबके अतिरिक्त आंग्ल भाषा और पाश्चात्य विज्ञान के अध्ययन के अतिरिक्त मातृभाषा एवं संस्कृति की शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया।”

संक्षेप में, स्वामी जी ने उन सभी विषयों के अध्ययन पर बल दिया, जो मनुष्य की सांसारिक समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं। लौकिक विषय हैं— भाषा, विज्ञान, मनोविज्ञान, गृहविज्ञान, प्राविधिक विषय, कृषि, व्यावसायिक विषय, इतिहास, भूगोल, कला, गणित, राजनीति, अर्थशास्त्र, खेल-कूद, व्यायाम, समाज सेवा तथा राष्ट्र सेवा। आध्यात्मिक विषय हैं—दर्शन, पुराण, धर्म, उपदेश, भजन, कीर्तन, श्रवण तथा साधु संगति ।

शिक्षण विधि (Method of Teaching)

प्रो० लक्ष्मीनारायण गुप्त के शब्दों में, “शिक्षा की विधि में स्वामी विवेकानन्द का अपना एक विशिष्ट स्थान है। उनकी शिक्षा-विधि एकमात्र आध्यात्मिक कही जा सकती है, जिसका आधार धर्म है। इस विचार से उन्होंने धर्म की विशेष पद्धति को अपनाकर शिक्षा देने के लिए कहा।” इस पद्धति की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  1. चित्तवृत्तियों के विरोध के लिए योग-विधि का प्रयोग।
  2. शिक्षक के गुणों व आदर्शों के अनुकरण हेतु अनुकरण विधि का प्रयोग।
  3. मन को एकाग्र करने हेतु केन्द्रीयकरण विधि (Method of Concentration) का प्रयोग।
  4. ज्ञान अर्जित करने हेतु विचार-विमर्श, व्याख्यान, उपदेश एवं तर्क-विधि का प्रयोग।
  5. छात्रों को सुझाव देने हेतु व्यक्तिगत निर्देशन एवं परामर्श-विधि का प्रयोग।
  6. प्रयोग प्रदर्शन द्वारा तथ्यों का ज्ञान देने अथवो स्वयं प्रयोग करके तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रयोग विधि का प्रयोग ।

अनुशासन (Discipline)

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, अनुशासन का अर्थ है अपने व्यवहार में आत्मा द्वारा निर्दिष्ट होना। अनुशासन के सम्बन्ध में उनके विचार प्रकृतिवाद से मिलते-जुलते हैं। उनका कहना था कि बालक को स्वानुशासन सीखना चाहिए। उन्हें किसी प्रकार का शारीरिक दण्ड नहीं देना चाहिए तथा उन पर अनुचित दबाव भी नहीं डालना चाहिए, बल्कि उन्हें सीखने के लिए पर्याप्त स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए। उन्हें स्व-अनुशासन की शिक्षा दी जानी चाहिए तथा सहानुभूतिपूर्वक सीखने के लिए उत्साहित करना चाहिए।

शिक्षक का स्थान (Place of Teacher)

1. स्वामी जी चाहते थे कि बालकों को लौकिक तथा आध्यात्मिक (पारलौकिक) दोनों जीवनों के लिए तैयार करने हेतु दोनों प्रकार का ज्ञान होना चाहिए।

2. शिक्षक संयमी, आत्मज्ञानी परिश्रमी एवं उच्च चरित्र वाला हो, जिससे बालक उसका अनुकरण कर आदर्श मानव बन सकें।

3. शिक्षक वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर बालकों को शिक्षा प्रदान करे।

4. शिक्षक को बालक से निकट, घनिष्ठ और व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए।

5. शिक्षक को बालक को संसार के प्रति उचित दृष्टिकोण का निर्माण करने में सहायता देनी चाहिए।

6. शिक्षक को बालक की ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में उपस्थित होने वाली सब बाधाओं को दूर करना चाहिए।

7. शिक्षक द्वारा बालक को इस प्रकार के सभी अवसर प्रदान किए जाने चाहिएँ, जिनसे वह अपने हाथों, पैरों, कानों, आँखों आदि का प्रयोग कर अपनी बुद्धि का विकास कर सकें।

8. शिक्षक को कभी यह नहीं समझना चाहिए कि वह बालक को शिक्षा दे रहा है, क्योंकि इससे शिक्षा का उद्देश्य नष्ट हो जाता है।

स्वामी जी के शब्दों में, “वास्तव में, किसी को, किसी के द्वारा कभी शिक्षा नहीं दी गई है। हममें से प्रत्येक को अपने आपको शिक्षा देनी पड़ती है। बाह्य शिक्षक केवल ऐसे सुझाव देता है, जिससे आत्मा कार्य करने और समझने के लिए चैतन्य हो जाती है।”

शिक्षार्थी (Student)

स्वामी जी के अनुसार गुरु-शिष्य का सम्बन्ध केवल सांसारिक ही नहीं होना चाहिए वरन् उन्हें एक-दूसरे के दिव्य स्वरूप को भी देखना चाहिए।

विवेकानन्द के अनुसार ज्ञान चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक, उसको प्राप्त करने के लिए शिक्षार्थियों द्वारा ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य के पालन द्वारा ही वह अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है, उसमें सीखने की प्रबल इच्छा उत्पन्न होती है और वह गुरु में श्रद्धा के भाव रखते हुए सत्य को जानने का प्रयत्न करता है, तभी वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

विद्यालय (School)

विवेकानन्द गुरु गृह प्रणाली के पक्षधर थे। वे यह अनुभव करते थे कि आधुनिक परिस्थितियों में विद्यालय प्रकृति की गोद में शहर के कोलाहल से दूर नहीं बसाये जा सकते। अतः आपने केवल इस बात पर बल दिया कि विद्यालय का पर्यावरण शुद्ध होना चाहिए और वहाँ अध्ययन अध्यापन, खेल-कूद, व्यायाम के अतिरिक्त भजन-कीर्तन एवं ध्यान की क्रियाएँ भी उत्पन्न कराई जाएँ।

स्त्री-शिक्षा (Women’s Education)

स्वामी जी स्त्रियों की दीन-हीन दशा से अत्यन्त क्षुब्ध थे। वे चाहते थे कि उन्हें समाज में श्रेष्ठ एवं परम आदरणीय स्थान प्राप्त हो। वे स्त्रियों की शिक्षा के पक्षपाती थे तथा देश के विकास के लिए उनके उत्थान पर बल देते थे। उन्हीं के शब्दों में, “पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब वे आपको बतायेंगी कि उनके लिए कौन-से सुधार आवश्यक है ? उनके मामलों में बोलने वाले तुम कौन हो ?”

जन-शिक्षा (Education of Masses)

स्वामी जी जन-शिक्षा पर अत्यधिक बल देते थे, देश के पुनरुत्थान के लिए जनसाधारण की शिक्षा को अनिवार्य बताते हुए उन्होंने लिखा, “मेरे विचार से जनसाधारण की अवहेलना करना महान् राष्ट्रीय पाप और हमारे पतन का कारण है। जब तक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर अच्छी शिक्षा, अच्छा भोजन और अच्छी सुरक्षा की प्रदान की जायेगी, तब तक अधिक से अधिक राजनीति भी व्यर्थ होगी। वे हमारी शिक्षा के लिए धन देते हैं, वे हमारे मन्दिरों का निर्माण करते हैं, पर इनके बदले में उन्हें मिलता क्या है मात्र ठोकरें। वे हमारे दासों के समान हैं। यदि हम भारत का पुनरुत्थान करना चाहते हैं, तो हमें उनको शिक्षित करना होगा।”

उन्होंने कहा कि जनसाधारण की शिक्षा उनकी निजी भाषा में होनी चाहिए। उनका विचार है कि यदि गरीब बालक शिक्षा लेने नहीं आ सकता, तो शिक्षा को उसके पास पहुँचाना चाहिए। स्वामी जी सुझाव देते हैं कि यदि संन्यासियों में से कुछ को धर्म सम्बन्धी विषयों की शिक्षा देने के लिए संगठित कर लिया जाए, तो बड़ी सरलता से घर-घर घूमकर वे अध्यापन तथा धार्मिक शिक्षा-दोनों काम कर सकते हैं। कल्पना कीजिए कि दो संन्यासी कैमरा, ग्लोब और कुछ मानचित्रों के साथ संध्या समय किसी गाँव में पहुँचे। इन साधनों के द्वारा वे जनता को भूगोल, ज्योतिष आदि की शिक्षा देते हैं। इसी प्रकार कथा-कहानियों के द्वारा दूसरे देश के सम्बन्ध में अपरिचित जनता को वे इतनी बातें बताते हैं, जितनी वे पुस्तक द्वारा अपने जीवन भर में भी नहीं सीख सकते हैं। क्या इन वैज्ञानिक साधनों द्वारा आज की जनता के अज्ञानमय अंधकार को शीघ्र दूर करने का यह एक उपयुक्त सुझाव नहीं है ? क्या संन्यासी स्वयं इस लोक सेवा द्वारा अपनी आत्मा की ज्योति को अधिक प्रदीप्त नहीं कर सकते हैं ?

शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन (Estimate of Educational Philosophy)

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन में वस्तुतः हमें समन्वयवाद के दर्शन होते हैं। वे चिन्तन और क्रिया में विरोध नहीं मानते। दूसरे शब्दों में, उन्होंने ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय पर बल दिया। पं० जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “भारत के अतीत में अडिग आस्था रखते हुए और भारत की विरासत पर गर्व करते हुए भी विवेकानन्द का जीवन की समस्याओं के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के संयोजक थे।”

“Rooted in the past and full of pride in India’s prestige, Vivekanand was yet modern in his approach to life’s problems and was a kind of bridge between the past of India and her present.” -Jawahar Lal Nehru

IMPORTANT LINK

Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: targetnotes1@gmail.com

About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment