‘निराला जन्मजात विद्रोही कवि थे।’ इस कथन के पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रस्तुत कीजिए।
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जीवन परिचय-
महाकवि निराला का जन्म सन् 1897 ई. को बंगाल प्रान्त के महिषादलं रियासत के मेदिनीपुर गाँव में बसन्त पंचमी के दिन हुआ था। इनके पिता का नाम पं. रामसहाय त्रिपाठी था जो उस समय महिषादल रियासत में नौकरी करते थे। वैसे निराला के परिवारी जन उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के गढ़कोला गाँव के रहने वाले थे। निराला जी की प्रारम्भिक शिक्षा महिषादल में सम्पन्न हुई। उन्होंने कुश्ती, संगीत, बंगला, संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी का ज्ञान प्राप्त किया। निराला जी का लगभग सम्पूर्ण जीवन अभावों से प्रसित रहा बाल्यावस्था में ही माता का देहान्त हो गया। चौदह वर्ष की आयु में निराला जी का विवाह मनोहरा देवी से हो गया। एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म देकर पत्नी मनोहरा देवी भी स्वर्ग सिधार गयी। उनकी अवस्था भी बीस वर्ष की ही थी कि उनके चाचा-चाची आदि भी एक-एक करके दिवंगत गए। निराला अभी युवावस्था में पहुँचे ही वे उनके ऊपर दो उनकी सन्तानों और चार भतीजों का बोझ आ पड़ा। विधि की विडम्बना को निराली जी ने धैर्य से सहन किया। रियासत की नौकरी उनके आत्मसम्मान के अनुरूप नहीं थी। वे कविताएँ लिखते और उस समय की साहित्य की श्रेष्ठ पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ भेजते तो कविता भी वापस आ जाती। तत्कालीन ‘प्रभा’ पत्रिका में भी बड़े प्रभावशाली लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित होती थीं, निराला जी, को वहाँ से भी हताशा मिली। निराला जी हताश व निराश रहने लगे तब भी उनका साक्षात्कार द्विवेदी जी से हो गया द्विवेदी जी निराला जी से प्रभावित हुए और निराला जी को उसी समय समन्वय का सम्पादन का कार्य मिल गया। एक वर्ष निराला जी ने ‘मतवाला’ में भी सम्पादन कार्य किया ‘मतवाला’ पत्र में इनकी प्रथम रचना ‘जूरी की कली’ प्रकाशित हुई जो एक क्रान्ति लेकर निराला के काव्य जीवन में आई इस कविता के काव्य के परम्परागत नियमों एवं भावों के विरुद्ध स्वच्छन्द कल्पना, शैली एवं छन्दों को स्थान दिया गया था। उनका ‘निराला’ नाम यही से प्रवाहित होना आरम्भ हुआ। इसी समय रामकृष्ण मिशन से सम्पर्क में रहने के कारण निराला जी ने अद्वैतवाद पर कई गम्भीर लेख भी लिखे। निराला जी के जीवन की कुछ ऐसी परिस्थितियाँ रहीं कि वे कहीं भी एक या दो वर्ष से अधिक कार्य नहीं कर सके। कभी स्वाभिमान पर चोट का डर था तो कहीं व्यावहारिकता का अभाव। ‘मतवाला’ का भी सम्बन्ध भी इसा आधार पर छूट गया और वे पुनः आर्थिक संकट से पीड़ित रहे। सन् 1926 से सन् 1928 ई. तक वे अस्वस्थ रहे। सन् 1926 ई. में उन्होंने ‘सुधा’ का सम्पादन किया और लखनऊ आ गये। यहाँ आकर उन्होंने सामाजिकता का बचा खुचा ढोंग भी उतार फेंका और पूरे फक्कड़पन और मस्ती के साथ अपना जीवन यापन करने लगे। अभाव और मनमौजीपन दोनों ही उनके जीवन से अभिन्न अंग थे। अपने इसी स्वभाव के कारण निराला जी राजनीतिज्ञों के विरोधी कहलाने लगे।
जीवन की विविधताओं के बीच भी वे साधना पथ पर बरावर अग्रसर रहे वैषम्य उनके सम्मुख आया पर वे उससे नहीं डरे। मृत्यु ने चौखट खटखटायी परन्तु निराला जी मुस्कराते रहे। सन् 1929 ई. से सन् 1942 ई. तक निराला जी लखनऊ में रहे और साहित्य सर्जना करते रहे। सन् 1930 ई. को उन्होंने अपनी पुत्री सरोज का विवाह अपने परिचित युवक शिवशेखर द्विवेदी से कर दिया। उस समय पुत्री की अवस्था 18 वर्ष पूर्ण कर उन्नीसवें वर्ष में थी। विधाता ने निराला को एक और आघात पुत्री के विवाह के बाद उसकी मृत्यु के रूप में दिया अब तो निराला एकदम टूट गये। 1935 ई. में पुत्री के दारूण दुःख की अभिव्यक्ति निराला ने ‘सरोज स्मृति’ कविता में किया। ‘सरोज स्मृति’ की यह पंक्तियाँ निराला के वेदनामय हृदय की अनुभूति कराती है।-
“दुःख ही जीवन की कथा रही। क्या कहूँ आज तो नहीं कहीं ॥
कन्ये! रात कर्मों का अर्पण-कर करता मैं तेरा तर्पण॥”
चारों दिशाओं का सामाजिक विरोध साहित्यिक छल और व्यक्तिगत वेदनाओं ने कवि जीवन तक को जड़ से झकझोर दिया, परन्तु यह सारा कुछ निराला को समूल नष्ट नहीं कर पाया। दैवी घटनाओं की चोट से घायल कवि गिरने पर भी घुटने टेक कर बैठा। महादेवी जी के प्रयासों से काव्य रचना की ओर अग्रसर हुए। इसी समय तक निराला जी सांसारिकता से ऊपर उठकर सामान जगत से उत्कृष्ट स्तर तक पहुँच चुके थे। ‘कुकुरमुत्ता’ कविता में धनिकों द्वारा गरीबों पर किए जाने अत्याचार से कवि निराला क्रुद्ध हो उठे और धनिकों को ललकारने लगे-
“अबे सुन बे गुलाब, भूल मत जो पाई खुशबू रंगों आव।
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्टा”
इस प्रकार निराला जी अपने समस्त जीवन में संघर्षो से टकराते रहे किन्तु कभी उन्होंने हार नहीं मानी। उनके व्यक्तित्व में गरीबी तथा अभावग्रस्तों के प्रति अपरिमित ममता तथा सहानुभूति प्राप्त होती है। मानव-रूप में वे निश्चय ही महान् आत्मा थे। एकान्त में बैठ कर वे घण्टों विचार मान रहते हैं इसी कारण कुछ लोगों ने उन्हें विक्षिप्त भी कह डाला था। जीवन के अन्तिम दिनों में के काफी बीमार हो गए थे। 15 अक्टूबर सन् 1961 को निराला जी का देहान्त हो गया।
साहित्य व्यक्तित्व —
निराला युगान्तकारी कवि थे। छायावाद तथा प्रगतिवाद के समर्थक निराला झुकना नहीं जानते थे, वे टूट जाना पसन्द करते थे। समाज ने उन्हें विक्षिप्त तक कहा किन्तु उन्होंने सबको काव्यामृत बाँट खुट कालकूट विषपान करके कविता के नीलकण्ठ बने रहे। सन्तों का सा जीवन, कबीर की सी मस्ती और फक्कड़पन, डाँट-फटकार, निडरता ललाकर किन्तु अन्दर से परम उदार व्यक्तित्व के निराला वास्तव में निराला ही थे। लोकचेतना के सभी तत्व उनमें विद्यमान थे। छायावादी प्रगतिवादी, मानवतावादी और आध्यात्मवादी विचार उनके साहित्य में भरे पड़े हैं। निराला जी स्वयं तो समाज का व्यंग्य सहन करते रहे किन्तु उन्होंने अपने व्यंग्य बामों से समाज में किसी को नहीं छोड़ा। अपने युग की काव्य परम्परा के प्रति विद्रोह का भाव लेकर रचना करने वाले कवि निराला हिन्दी जगत के एक विशिष्ट कवि के रूप में विख्यात है।
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