स्वामी विवेकानन्द की मानव-निर्माण शिक्षा से आपका क्या तात्पर्य है? स्वामी जी ने देश के नवयुवकों को राष्ट्र निर्माण हेतु क्या संदेश दिया है ?
मानव-निर्माण के लिए शिक्षा की संकल्पना (Concept of Education for Man-Making )
स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त दर्शन की पुनर्व्याख्या आधुनिक परिप्रेक्ष्य में की तथा निराशा एवं कुण्ठा के दलदल में फँसी हुई भारतीय जनता को जीवन का नवीन पथ दिखाया। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के माध्यम से मानव के पुनर्निर्माण की विशेष आवश्यकता समझी। सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य मनुष्य का निर्माण ही होना चाहिए। उनकी व्याख्या के अनुसार मनुष्य वह है जिसकी मांसपेशियाँ लोहे की हों और स्नायु फौलाद के बने होते हैं, जिनमें ऐसी दुर्दमनीय इच्छाशक्ति होती है जो सृष्टि के गुप्त तथ्यों और रहस्यों को भेद डालती है। ऐसा मनुष्य परिस्थितियों से घबड़ाकर भगने वाला नहीं होता, वरन् वह समस्याओं का सामना करके उनका हल निकालने का प्रयास करता है। उपनिषदों के आधार पर स्वामी जी ने मनुष्य चार गुणों पर बल दिया-
1. आशिष्ठ- इसका अर्थ आत्मविश्वास अथवा आशावान होता है। स्वामी जी को उतरे चेहरे वाला व्यक्ति पसन्द नहीं था। उनकी पसन्द का व्यक्ति वह था जो घोर उद्यमी और उत्साही हो, जो प्रचण्ड आत्मविश्वासी हो, जिसके अधरों पर संकट के समय भी हास्य की छटा बिखरी हो।
2. बलिष्ठ- इसका तात्पर्य शरीर से बली होने से है। जिस शिक्षा में विद्यार्थी के शारीरिक विकास की क्षमता न हो, उस शिक्षा को वे व्यर्थ समझते थे। भारत की समस्त बुराइयों के लिए एक-तिहाई के रूप में वे शारीरिक दुर्बलता को जिम्मेदार मानते थे। अनन्त शक्ति ही धर्म है, बल पुण्य है और दुर्बलता पाप । इसी प्रकार मानसिक दुर्बलता भी अभिशाप है। सबसे पहले हमें तरुणों को मजबूत बनाना होगा, धर्म बाद में आयेगा। गीता की अपेक्षा फुटबाल से वे स्वर्ग के निकट पहुँच सकेंगे। कलाई और भुजाएँ मजबूत होने पर ही वे गीता को समझ सकेंगे।
3. दृढ़िष्ठ- इसका अर्थ है मन की दृढ़ता। दुर्बल मन से कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। सुदृढ़ इच्छा शक्ति ही सकता रहस्यों का उद्घाटन करने में समर्थ होती है।
4. साधु- साधुता मनुष्य का सर्वोपरि गुण है। इसका तात्पर्य हृदय की विशालता तथा पवित्रता से है। आशावान, प्रबल, इच्छाशक्ति सम्पन्न तथा शक्तिशाली व्यक्ति भी क्रूर हो जाता है, अतः इन तीन गुणों के साथ ही साधु होना परमावश्यक है। इसीलिए हृदय की शिक्षा पर स्वामी जी ने बल दिया।
शिक्षा। इस दृष्टि से दो प्रकार की शिक्षा पर बल दिया- (क) विधेयात्मक शिक्षा, (ख) निषेधात्मक
(क) विधेयात्मक शिक्षा- अपने एक वक्तव्य में स्वामी जी ने कहा कि हमें विधेयात्मक विचार सामने रखना चाहिए। निषेधात्मक विचार लोगों को दुर्बल बना देते हैं। जहाँ माता-पिता बार-बार बच्चों से कहते हैं कि पढ़ो नहीं तो गधा बन जाओगे, वहाँ बच्चा गधा ही बन जाता है। अतः बच्चों से सहानुभूति से बात करनी चाहिए तभी उनमें उत्साह आयेगा और वे उन्नति करेंगे। उनमें मनुष्यता आयेगी और वे अपने पैरों पर खड़े होना सीखेंगे। भाषा, साहित्य, कला तथा काव्य के माध्यम से विद्यार्थी को मार्गदर्शन कराना चाहिए न कि उनकी भूलों की ओर संकेत करना चाहिए। विद्यार्थी की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा में परिवर्तन होना भी आवश्यक है। “अतीत के जीवनों ने हमारी प्रवृत्तियों को गढ़ा है, इसलिए विद्यार्थियों का मार्ग दर्शन उसी के अनुरूप होना चाहिए। जो जहाँ है उसे वहीं से आगे बढ़ाओ।” शिक्षा देने के लिए विधायक दृष्टिकोण भी आवश्यक है। बच्चों को कुछ भी सिखाते समय माताओं द्वारा उन्हें डरवाने का स्वामी जी ने विरोध किया। यह एक निषेधात्मक दृष्टिकोण है। मनुष्य को अपनी गलतियों पर . रोना नहीं चाहिए। घर में अँधेरा रहने पर अँधेरा-अँधेरा कहने पर ही अँधेरा दूर नहीं होता, वरन् दियासलाई जलाने से ही दूर होता है। अतः शिक्षा देते समय विधेयात्मक दृष्टिकोण अपनाना अत्यन्त आवश्यक है।
(ख) निषेधात्मक शिक्षा- वर्तमान शिक्षा को स्वामी जी ने निषेधात्मक कहा क्योंकि मनुष्य के मन में हीन भावना उत्पन्न हो गयी है। वह यह समझने लगा है कि हम कुछ इससे नहीं हैं। स्वामी जी के ही शब्दों में, “हमारे यहाँ जो शिक्षा दी जाती है वह अभावात्मक या निषेधात्मक है। उसमें कुछ अच्छी बात तो हैं, पर उसमें एक ऐसा भयंकर दोष है जिसके कारण वे सारी बातें दब जाती हैं। पहले तो वह मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही नहीं है।…. निषेधात्मक शिक्षा अथवा कोई प्रशिक्षण जो निषेण पर आधारित हो मृत्यु से भी बदतर है।… हमने केवल यह सीखा है कि हम कुछ नहीं हैं और फल यह है कि पचास वर्ष की ऐसी शिक्षा में एक भी भौतिक विचारवान् पुरुष नहीं हो सका है।”
- शिक्षा के स्वरूप (प्रकार) | Forms of Education in Hindi
- शिक्षाशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र अथवा विषय-विस्तार, उपयोगिता एवं महत्त्व
- शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य | Various Aims of Education in Hindi
- शिक्षा की विभिन्न अवधारणाएँ | Different Concepts of Education in Hindi
- शिक्षा के साधन के रूप में गृह अथवा परिवार का अर्थ, परिभाषा एंव भूमिका
- शिक्षा के अभिकरण या साधनों का अर्थ, वर्गीकरण और उनके महत्त्व
- शिक्षा का अन्य विषयों के साथ सम्बन्ध | Relation of Education with other Disciplines in Hindi
IMPORTANT LINK
- राष्ट्रीय एकीकरण (एकता) या समाकलन का अर्थ | राष्ट्रीय एकीकरण में समस्या और बाधा उत्पन्न करने वाले तत्त्व | राष्ट्रीय समाकलन (एकता) समिति द्वारा दिये गये सुझाव
- जनसंचार का अर्थ, अवधारणा एंव शैक्षिक महत्त्व
- शिक्षा व समाज का अर्थ | शिक्षा व समाज में सम्बन्ध | शिक्षा के अभिकरण के रूप में समाज की भूमिका
- विद्यालय से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा के अभिकरण के रूप में विद्यालय की भूमिका
- घर या परिवार पहला विद्यालय | Home or Family is the First School in Hindi
- सूक्ष्म-शिक्षण का अर्थ, परिभाषा, अवधारणा, विशेषताएँ, उपयोगिता एवं महत्त्व
- बदलते सूचना/संचार के परिप्रेक्ष्य में (ICT) के स्थान | Place of ICT in the Changing Conceptions of Information
- सम्प्रेषण की प्रक्रिया क्या है ? इस प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
- शिक्षा में श्रव्य-दृश्य सामग्री से आप क्या समझते हैं ? शैक्षिक सामग्री का वर्गीकरण एंव लाभ
- जनसंचार क्या है ? शिक्षा में जनसंचार के महत्त्व
- मस्तिष्क उद्वेलन (हलचल) या विप्लव व्यूह रचना | मस्तिष्क उद्वेलन (हलचल) व्यूह रचना के सोपान एंव विशेषताएँ | मस्तिष्क हलचल व्यूह रचना की सीमाएँ एंव उपयोगिता
- शिक्षण की वाद-विवाद विधि के विषय में आप क्या जानते हैं ? इसके गुण एंव दोष
- शिक्षण की योजना विधि से आप क्या समझते हैं ? इसके गुण-दोष
- शिक्षण सूत्रों से क्या अभिप्राय है ? प्रमुख शिक्षण सूत्र
- शिक्षण प्रविधि का अर्थ एंव परिभाषाएँ | प्रमुख शिक्षण प्रविधियाँ | प्रश्न पूछने के समय रखी जाने वाली सावधानियाँ
- शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त | Various Theories of Teaching in Hindi
- शिक्षण की समस्या समाधान विधि | समस्या प्रस्तुत करने के नियम | समस्या हल करने के पद | समस्या समाधान विधि के दोष
Disclaimer