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मानव शरीर में कुल कितने अंग तंत्र होते हैं ?
1. अस्थि-तन्त्र
उत्तर शरीर की अस्थियों का ढाँचा ही ‘अस्थि-तन्त्र’ कहलाता है। इस ढाँचे के निर्माण में 200 से अधिक अस्थियाँ होती हैं।
अस्थि की रचना
अस्थि शरीर को सबसे कड़ी वस्तु है। यह कड़ी, मजबूत किन्तु लचकदार होती है। इसका कड़ापन चूने के कुछ लवणों के कारण होता है। यह लवण कैल्सियम, फॉस्फेट कार्बोनेट, क्लोराइड तथा मैग्नेशियम फॉस्फेट हैं। इनमें से कैल्सियम तथा फॉस्फेट अस्थियों से अधिक मात्रा में होता है।
अस्थियाँ नली के आकार की होने के कारण हल्की और मजबूत होती हैं। उनकी नलियों में एक प्रकार का गूदा भरा रहता है, जिसे अस्थि मज्जा (Bone-Marrow) कहते हैं।
अस्थि-तन्त्र के कार्य
- शरीर के भार को सम्हालना तथा शरीर को आकृति प्रदान करना ।
- मस्तिष्क, हृदय, फुफ्फुस आदि कोमल अंगों को सुरक्षित रखना।
- पेशी तन्त्र को सहारा देना।
वर्गीकरण
अस्थि-तन्त्र को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है— (क) खोपड़ी (कपाल), (ख) धड़ और (ग) ऊपर-नीचे के आन्त ।
2. पेशी तन्त्र
शरीर के अस्थि-पिंजर पर जो माँस का आवरण होता है, उसे पेशी तन्त्र कहते हैं। पेशीय तन्तुओं में संकुचित शक्ति बढ़ती जाती है। इस प्रकार के जिस भाग में पेशी जुड़ी हुई है, उसे वह एक-दूसरे के पास का काम करती है और शरीर में गति उत्पन्न करती है। पेशी का संकुचन ऐच्छिक या अनैच्छिक होता है। हाथ-पैर की पेशियाँ इच्छा द्वारा नियन्त्रित होती हैं, अतः उन्हें ऐच्छिक पेशियाँ कहते हैं और वे पेशियाँ जो पेट, आँतों और हृदय का आवरण बनाती हैं, इच्छा द्वारा नियन्त्रित नहीं होतीं, अतएव उन्हें अनैच्छिक पेशियाँ कहते हैं।
ऐच्छिक पेशियाँ अस्थि-तन्त्र के समस्त भागों से सम्बन्धित हैं। वे सन्धियों में गति उत्पन्न करती हैं। मस्तिष्क से उत्पन्न तन्त्रिका संवेदना से वे सक्रिय होती हैं। उनमें बड़ी शक्ति होती है और तेजी से कार्य कर सकती हैं। लेकिन लगातार कार्य से वे थक जाती हैं। सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र से उनमें स्थित तन्तुओं को देखा जा सकता है और इसलिए रेखित कहा जाता है।
ऐच्छिक और अनैच्छिक रेखित पेशियों में अन्तर है। अनैच्छिक पेशियों की क्रिया की गति धीमी होती है। उनकी गति को इच्छा के द्वारा संचालित नहीं किया जा सकता है। उनकी गति का संचालन स्वतन्त्र तन्त्रिका तन्त्र द्वारा होता है। वे रेखित नहीं होतीं। वे थकती भी नहीं और रात-दिन कार्य करती रहती हैं।
हृदय की पेशियों में इन दोनों प्रकार की पेशियों का मिश्रण है। यह ऐच्छिक पेशियों की भाँति रेखित होती हैं, पर सक्रियता में अनैच्छिक होती हैं।
पेशियों का उपयोग
शरीर में पेशियों की तीन उपयोगिताएँ-
(1) वे गति उत्पन्न करती हैं। यदि पेशियाँ न हों तो खाना, पीना, देखना, बोलना, हँसना, चलना, फिरना, लिखना आदि क्रियाओं का होना असम्भव हो जाये।
(2) वे आसन को स्थिर रखती हैं।
(3) वे शरीर के उन भागों को सहारा प्रदान करती हैं जहाँ पर अस्थियाँ कम होती हैं विशेषकर आमाशय-क्षेत्र में।
3. रक्त परिसंचरण तन्त्र (Blood Circulatory System)
हमारे शरीर में रक्त भ्रमण करता रहता है। यह हमारा प्राण है। रक्त ही अंगों को कार्य करने की शक्ति प्रदान करता है। रक्त वास्तव में पीले रंग का होता है, परन्तु इकट्ठा होने के कारण यह लाल दिखाई देता है। रक्त में लाल तथा सफेद रंग की कणिकायें होती हैं। पीले रंग का पदार्थ प्लाज्मा कहलाता है। रक्त में विषाणु भी पाए जाते हैं।
रक्त के कार्य-
रक्त के कार्य निम्न प्रकार हैं –
- ऑक्सीजन का वितरण करना।
- शरीर के तापक्रम पर नियन्त्रण करना।
- पचे हुये भोजन का वितरण करना ।
- हारमोन्स का वितरण करना।
- व्यर्थ के पदार्थों को शरीर से बाहर निकालना।
- विभिन्न ऊतकों को गीला रखना।
- संग्माणुओं को नष्ट करना ।
रक्त के प्रकार-
वैज्ञानिकों ने मानव रक्त का परीक्षण करके रक्त को निम्न वर्गों में बाँटा है-
- वर्ग – ए (A)
- वर्ग – वी (B)
- वर्ग – वर्ग ए बी (AB)
- वर्ग – ओ (o)
- एबी (AB) वर्ग सर्वग्राही है। ओ (O) वर्ग का रक्त सभी को दिया जा सकता है।
4. तन्त्रिका तन्त्र (Nervous System)
शरीर में जितने भी तन्त्र कार्य करते हैं, उन सभी में समन्वय का कार्य तन्त्रिका तन्त्र द्वारा किया जाता है। तन्त्रिका तन्त्र के अन्तर्गत न्यूरॉन्स, नाड़ी, अन्य नाड़ियाँ शरीर की क्रिया को व्यवस्थित रूप से नियमित तथा नियन्त्रित करने में भाग लेती हैं।
तन्त्रिका तन्त्र को एक फैक्ट्री की संज्ञा दी गयी है। जिस प्रकार फैक्ट्री में अनेक विभाग होते हैं, उसी प्रकार शरीर में भी अनेक भाग हैं। तन्त्रिका तन्त्र अनेक तंत्रिका कोशिकाओं से बनती है। इनको न्यूरॉन कहते हैं। न्यूरॉनों की आकृति भिन्न होती है। इसमें विद्युत संवेग प्रवाहित करने का गुण होता है। तन्त्रिकाओं से निकले अक्षतंतुओं की लम्बाई बहुत अधिक होती है।
तन्त्रिकाओं के प्रकार- तन्त्रिकाएँ निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं-
1. संवेदी तत्रिकाएँ — ये तन्त्रिकाएँ बाहरी संसार के अनुभवों को मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं। इसीलिये इन्हें संवेगी तन्त्रिकाएँ कहा जाता है। त्वचा, नाक, कान, जीभ, आँख आदि में से तन्त्रिकाएँ अपनी प्रकृति के अनुसार अनुभव ग्रहण करती हैं और उसे मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं।
2. प्रेरक तन्त्रिकाएँ— ये तन्त्रिकाएँ मस्तिष्क से प्राप्त संदेश को ग्रहण करती हैं तथा सम्बोधित मांसपेशियों को क्रिया करने के लिए प्रेरित करती हैं।
5. प्रजनन तन्त्र (Reproductive System)
प्रत्येक प्राणी के वंश की वृद्धि में प्रजनन तन्त्र का विशेष महत्व है। यह तन्त्र जैविक वंशक्रम को आगे बढ़ाने का कार्य करता है। स्त्री तथा पुरुष दोनों में ये तन्त्र होते हैं। पुरुष तन्त्र लिंग तथा स्त्री तन्त्र योनि कहलाता है। परन्तु ये तो तन्त्र बाहरी अंग हैं। प्रजनन तन्त्र किशोरावस्था में विकसित होता है। अनेक हार्मोन्स बनते हैं जिनसे लैंगिक आकर्षण उत्पन्न होता है। पुरुष में लिंग के नीचे दो वृषण (अण्डकोष) होते हैं। इन्हीं में शुक्राणु उत्पन्न होते हैं जो लिंग मार्ग के द्वारा स्त्री योनि में प्रवेश करके गर्भाशय तक पहुँचते हैं। वहाँ पर एक शुक्राणु स्त्रीडिम्ब से मिलता है और गर्भ में शिशु की स्थापना होती है। स्त्री प्रजनन अंगों का विकास भी 12-13 वर्ष की आयु में प्रथम रजोदर्शन के समय से माना जाता है। स्त्री प्रजनन अंगों में डिम्ब नलिकाएँ तथा गर्भाशय प्रमुख हैं।
6. उत्सर्जन तन्त्र (Excretory System)
भोजन तथा अन्य पदार्थों का सेवन किया जाता है, उनके अवशेष को शरीर से बाहर निकालने का कार्य उत्सर्जन तन्त्र द्वारा होता है। हमारे शरीर की रचना ही ऐसी है कि इसमें अवशेष पदार्थों का उत्सर्जन होता रहता है।
उत्सर्जन तन्त्र के अंग- उत्सर्जन तन्त्र के निम्नलिखित अंग हैं-
- वृहद् आंत (Large Intestine) – बिना पचा हुआ भोजन मल के रूप में आँत द्वारा बाहर निकलता है।
- त्वचा (Skin) – निरर्थक लवण तथा कार्बन डाइऑक्साइड को त्वचा पसीने के रूप में बाहर निकालती है।
- फेफड़े (Lungs) – शरीर के भीतर अशुद्ध जल को भाप बनाकर शरीर से बाहर निकालने का काम फेफड़े करते है।
- वृक्क या गुर्दे (Kidneys) – गुर्दों के द्वारा मूत्र के रूप में यूरिया, यूरिक एसिड, कुछ विशेष लवण शरीर के बाहर निकलते हैं।
7. पाचन तन्त्र
बालक के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए शरीर के विभिन्न अंगों का स्वस्थ होना नितान्त आवश्यक है। यदि बालक का रक्त दूषित है, रक्त परिवहन ठीक प्रकार नहीं हो रहा है, हृदय संक्रामक रोग आदि से पीड़ित है या श्वसन-प्रक्रिया में किसी भी प्रकार का व्याघात है तो इन सबका उसके शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर अत्यन्त दूषित प्रभाव पड़ता है। किन्तु यदि इन दोषों एवं रोगों के सम्बन्ध में सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया जाये तो यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होगा कि इन सबकी जड़ में पाचन क्रिया ही कार्य करती है। यदि बालक के पाचन अवयव-आमाशय, पक्वाशय, आँत या दाँत आदि समुचित रूप से कार्य करते हैं तो स्वास्थ्य स्वमेव ही उत्तरोत्तर वृद्धि करता है, क्योंकि पाचन क्रिया से ही रक्त बनता है, रक्त का समस्त शरीर के अंगों में परिवहन होता है। यदि रक्त ही ठीक प्रकार से नहीं बनेगा, उसका संचार उचित रूप से नहीं होगा तो स्वास्थ्य में वृद्धि किस प्रकार होगी। अतः बालक के जीवन में पाचन तन्त्र तथा पाचन क्रिया में का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। अतएव शिक्षक को इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी होनी चाहिये। इसी दृष्टि से हम उनका यहाँ विस्तृत रूप से विवेचन कर रहे हैं।
पाचन का अर्थ है- लाए हुए भोजन को अत्यन्त सूक्ष्म कणों में विभक्त करने के पश्चात् रसों की क्रिया द्वारा उसको उस रूप में परिवर्तित कर देने से है, जिससे उनका सार तत्व रक्त द्वारा शोषित किया जा सके। रक्त इस सार-तत्व को शोषित करके शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों में ले जाता है और उसका पोषण करता है।
पाचन तन्त्र में एक लम्बी नली जिसका व्यास सर्वत्र एक-सा नहीं होता, और कुछ ग्रन्थियाँ सम्मिलित हैं जो अपना रस उसमें डालती हैं। इस नली को पाचन तन्त्र मार्ग (Digestive Tract) कहते हैं। इसका मार्ग मुख से आरम्भ होता है। और मुख-गुहा में मुख को ग्रन्थियाँ का रस ग्रहण करता है। जब यह मुँह के पीछे की ओर जाता है तो यह कीप के आकार का गर्त बनाता है जिसे ग्रसनी गुहा (Pharynx) कहते हैं। इसके बाद यह नली कोमल पेशीय सिकुड़ी नली में परिवर्तित हो जाती है, जिसकी लम्बाई लगभग 15 इंच होती है। इसे भोजन नली (Gullet or Oesophagus) कहते हैं। यह नली ग्रीवा से होती हुई वक्ष में गुजरती है, और श्वास नली के पीछे स्थित होती है। फिर यह डायफ्राम में गुजरती है और आमाशय की थैली के रूप में फैल जाती है। आमाशय का रूप एक बड़े खोखले थैले जैसा है जिसकी लम्बाई 8 या 9 इंच होती है। यह डायफ्राम से ठीक नीचे थोड़ा-सा बायीं ओर को स्थित है। इसके दो खुलाव हैं—(1) Ocsophageal जहाँ भोजन नली समाप्त होती है, और (2) दूसरा Pyloric जहाँ अन्तड़ियाँ आरम्भ होती हैं। अन्नमार्ग पुनः तंग हो जाता है और छोटी अन्तड़ियों का 10 इन्च लम्बा पहला भाग पक्वाशय (Duodenum) अर्द्ध-चन्द्राकार होता है और अंग्रेजी के C अक्षर का आकार बनाता है जिसके खोखले स्थान में एक क्लोम ग्रन्थि (Pancreas) होती है। पक्वाशय में यकृत (Liver) और क्लोम की रस की नालियाँ आकर खुलती हैं। शेष छोटी आँतें पेडू (Abdomen) में मुड़ी-मुड़ाई स्थिति में रहती हैं। छोटी आँतें (क्षुद्रान्त), अन्तिम सिरे पर चौड़ी परन्तु कम लम्बी नली में खुलती हैं जिसे बड़ी आँत (वृहदान्त्र) कहते हैं। वह लगभग 6 फीट लम्बी और 2½ इन्च चौड़ी होती है। छोटी और बड़ी आँत के मिलने के स्थान से ठीक नीचे बड़ी आँत में एक बन्द थैला-सा होता है जिसे अन्धान्त्र (Caceum) कहते हैं। एक संकरी बन्द नली, आँत-परिशिष्ट (Vermiform Appendix) जो लगभग 4-6 इन्च तक लम्बी होती है, अन्यान्त्र से नीचे की ओर लटकी रहती है। अन्धान्त्र के ऊपर बड़ी आंत के भाग को कोलन (Colon) कहते हैं। कोलन पेडू के दाहिनी ओर से चलता है और यकृत और पेट के नीचे पेडू को पार करता और अन्त में बायीं ओर चला जाता है। इसका बिल्कुल अन्तिम भाग मलाशय (Recium) है, जो बाहर गुदा (Anus) में खुलता है
भोजन नली
भोजन मुख में चर्वण किये जाने के पश्चात् जिह्वा की सहायता से प्रसनी गुहा में प्रविष्ट करा दिया जाता है। यहाँ से भोजन नली में प्रवेश करता है। भोजन-नली में अस्थि न होने से इस नलिका की दीवारें आपस में मिली रहती हैं। केवल जब भोजन इसमें आता है तो नली का मार्ग खुलता है। इसकी पेशीय दीवारें लहर की तरह कार्य करती हैं और इस नली के सिकुड़ने और फैलने से भोजन नीचे की ओर पेट में प्रविष्ट हो जाता है। स्वर-यन्त्रच्छद (Epiglotis) भोजन को श्वास नली में जाने से रोक लेता है। यह स्वर-यन्त्र का ऊपरी भाग बन्द कर देता है और भोजन श्वास-नली में न जाकर सीधा भोजन-नली में होकर पेट में चला जाता है।
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