मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना पर प्रकाश डालिए।
प्राचीन भारतीय समाज में नारी को उच्च एवं गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था। उसकी मान्यता रही है कि जहाँ नारियों के सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं-
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताट
नारी भावना
(क) काव्य की आपेक्षित नारियों का पुनरुत्थान- ऐसा होते हुए भी प्राचीन काल से ही कुछ तप, त्याग, पतिव्रत में अडिग तथा उज्ज्वल एवं उदात्त चरित्र वाली नारियों की उपेक्षा होती रही है। यहाँ तक कि ‘मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वती समाः’ कहने वाले दर्याद्रवित आदि कवि वाल्मीकि ने भी सीता के चरित्र को उदात्त एवं सर्वाधिक गौरव प्रदान करने के प्रयत्न में उर्मिला को उपेक्षित किया प्रथमतः कवीन्द्र रवीन्द्र की दृष्टि इन उपेक्षित नारियों पर पड़ी और ‘काव्येर उपेक्षिता नारी’ शीर्षक लेख लिखा। इसी समय पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता पर हिन्दी में एक लेख लिखा जिसके कारण मैथिलीशरण गुप्त का युवा कवि हृदय अनुप्रेरित एवं उत्साहित हुआ। परिणामतः गुप्तजी ने काव्य की उपेक्षित नारियों पुनरुत्थान एवं उद्धार का बीड़ा उठाया। वस्तुतः गुप्तजी के प्रमुख काव्यग्रन्थों की सर्जना उपेक्षिता एवं तिरस्कृत नारियों की मनोव्यथा एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ही हुई है। उनका हृदय नारी जाति के प्रति अत्यन्त स्पन्दनशील एवं संकरुण रहा है।
(ख) परवश एवं परतंत्र नारियों के प्रति दृष्टिकोण— गुप्त जी के सहृदय कवि ने विरहविदग्धा उर्मिला की मर्मव्यथा को साकेत के माध्यम से वाणी प्रदान की। यहीं, उन्होंने युगों से तिरस्कृत कैकेयी का भी उद्धार किया। उर्मिला के पश्चात् कवि ने भगवान बुद्ध की उपेक्षिता पत्नी यशोधरा की करुण गाथा गायी है। तत्पश्चात् उनकी दृष्टि चैतन्यदेव की उपेक्षिता एवं निरीक्ष धर्मपत्नी विष्णुप्रिया पर गायी। इसके अतिरिक्त द्वापर में उन्होंने युगों से पुरुषों के कठोर नियन्त्रण में पड़ी परवश एवं परतन्त्र नारी की स्वस्थ वायु में श्वास लेने का अवसर प्रदान किया।
(ग) ‘साकेत’ की उर्मिला पति वियोग में ‘अवधि शिला का उर पर गुरुतर भार’ रखकर अपने अश्रु नेत्रों से प्रतीक्षारत है। हाँ, उसे सहारा है तो केवल यहीं कि उसके उपवन का प्यारा हिरण चौदह वर्षों तक वन में विचरण करने के उपरान्त घर वापस आ जाएगा किन्तु यशोधरा और विष्णुप्रिया की तो यह भी आश्वासन नहीं प्राप्त है क्योंकि उनके प्रिय तो सदैव के लिए घर-बार छोड़कर संन्यस्त हो गये हैं। यशोधरा की सान्त्वना के लिए उसकी मलिन गूदड़ी का लाल राहुल अवश्य है किन्तु विष्णु प्रिया को तो यह सम्बल भी नहीं प्राप्त है।
(घ) उपेक्षित नारियों के जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश– कवि ने इस उपेक्षिता नारियों के जीवन के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला है। पिता जनक के स्नेह एवं दुलार में पली हुई अल्हड़ तथा चपल बालिका किस प्रकार लक्ष्मण का साहचर्य पाकर मधुर जीवन दाम्पत्य की ओर अग्रसर होती है, कवि ने इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक एवं भावावेगपूर्ण चित्र खींचा है। पुनः अचानक राम वन गमन के अवसर पर उसका सुखमय दाम्पत्य जीवन स्वप्न सुख की भाँति तिरोहित हो जाता है। प्रियतम को वनगमन की अनुमति देना तो दूर वह नयी वधू भोली-भाली इस आकस्मिक विपत्ति से मर्माहत हो केवल ‘हाय’ कहकर धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ती है। अपने प्रिय की की अनुगामी वह इसलिए नहीं बनी की उसके कारण लक्ष्मण के सेवा भाव में विघ्न उपस्थित होगा। वह प्रिय पथ का विघ्न न बनने का संकल्प स्वेच्छा से करती है। चित्रकूट में सीता की कुटिया में उसका अपने प्रियतम से मिलन अवश्य होता है, किन्तु वह अत्यन्त क्षणिक, लक्ष्मण को द्विविधात्मक स्थिति में पाकर वह उन्हें सान्त्वना देती हुई कहती है-
मेरे उपवन के हरिण आज वनचारी।
मैं बाँध न लूंगी तुम्हें तजो भय भारी॥
पति की मृत्यु हो जाने पर वह क्षण मात्र भी जीवन नहीं धारणा कर सकती है। उसे एक सती का सा आत्मविश्वास है, तभी तो वह कहती है-
जीते हैं वे वहाँ यहाँ जब मैं जीती हूँ।
वाल्मीकी एवं तुलसी की कैकेयी से गुप्तजी की कैकेयी सर्वथा भिन्न हैं। उन्होंने उसके दोष एवं कलंक परिहार का अभिनव प्रयास किया है। चित्रकूट की सभा में वह अपने मातृत्व की दुहाई देकर अपने कृत्य का मनोवैज्ञानिक कारण उपस्थित करती है। उसके पाश्चाताप से सभी भाव-विह्वल हो उठते हैं-
सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।
इस प्रकार उस तिरस्कृत नारी का उद्धार करके कवि ने उसके चरित्र को उज्ज्वल रूप प्रदान किया है। गुप्त जी ने ‘यशोधरा’ में नारी-जीवन की चिरयुगीन कथा केवल इन दो पंक्तियों में अंकित की है-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही काहनी ।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।
नरीप्रिय वियोग में अश्रुजल बहाती है, दूसरी ओर स्वयं क्षीण रहकर स्तन्यपान कराकर सन्तान को सम्पुष्ट करती है। विरह एवं वात्सल्य के मध्य अपना बलिदान करना ही उसकी चिरयुगीन कथा है। कवि की दृष्टि में नारी वासनापूर्ति का साधन मात्र नहीं है। वस्तुतः वह गृहिणी एवं मंगलमय जननी ही है—
वधू सदा मैं अपने वर की, क्या पूर्ति वासना भर की?
सावधान! हाँ निजकुल घर की जननी मुझको जानो ॥
‘यशोधरा के पश्चात् गुप्त जी ने ‘विष्णुप्रिय’ का सृजन करके नारी के त्यागमय कर्तव्यपरायण कष्ट सहिष्णु एवं आदर्श रूप को प्रस्तुत किया।
मूल्यांकन- पुरुष सदैव से नारी के प्रति संशकित एवं अविश्वासी रहा है। नारी के प्रति उसकी वासनात्मक दृष्टि ही प्रधान रही है। वह इतना शंकालु रहा है कि नारी एकान्त में अपने सगेभाई, पुत्र एवं पिता के साथ ही रहन में स्वतन्त्र नहीं है। गुप्त जी को नारी के प्रति यह कृत्रिम एवं समाज द्वारा आरोपित पराधीनता असह्य हो उठी।
उनकी नारी में आत्मबल है, वह भयभीत नहीं होती। उस पर किये गये अत्याचार एवं अन्याय का प्रतिरोध करने के लिए उद्यत दिखाई पड़ती हैं-
इस अन्याय समझ मरूँ मैं कभी नहीं झूक सकती।
संशयशील युग की उसे भी परवाह नहीं है।
इस प्रकार उनकी नारी भारतीय संस्कृति एवं मर्यादाओं का पूर्णरूपेण परिपालन करती हुई दृष्टिगोचर होती है।
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