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लेखांकन प्रथायें या लेखांकन के परिवर्तनशील सिद्धान्त | Accounting Conventions or Modifying Principle of Accounting in Hindi

लेखांकन प्रथायें या लेखांकन के परिवर्तनशील सिद्धान्त | Accounting Conventions or Modifying Principle of Accounting in Hindi
लेखांकन प्रथायें या लेखांकन के परिवर्तनशील सिद्धान्त | Accounting Conventions or Modifying Principle of Accounting in Hindi

लेखांकन प्रथाएँ एवं परिवर्तनशील सिद्धान्त क्या है? लेखांकन की प्रमुख प्रथाओं की विवेचना कीजिए। 

लेखांकन प्रथायें या लेखांकन के परिवर्तनशील सिद्धान्त (Accounting Conventions or Modifying Principle of Accounting)

लेखांकन का इतिहास उतना ही पुराना हो सकता है जितना व्यवसाय का व्यवसाय के प्रारम्भ में किसी न किसी रूप में लेखांकन मौजूद रहा होगा। अपने हिसाब-किताब रखने की कोई न कोई प्रथा हर युग में प्रचलित रही है। किसी न किसी रीति का प्रयोग करते हुए हर युग के व्यापारी अपने हिसाब किताब रखते थे।

लेखांकन प्रथाओं से हमारा आशय लेखांकन की उन रीति-रिवाजों से है जो प्राचीन काल से व्यापारियों द्वारा हिसाब-किताब रखने में प्रयोग की जाती रही हैं। लेखांकन प्रथायें आज भी बहुत महत्वपूर्ण हैं, उदाहरण के लिए अंतिम रहितया को सदैव लागत मूल्य पर प्रदर्शित करने की प्रथा है, अधिकतर व्यवसायी आज भी इसे लागत पर ही प्रदर्शित करते हैं।

इसी प्रकार रीति-रिवाज द्वारा यह प्रथा चली आ रही है कि कोई भी लेन-देन हो यदि वह व्यवसाय से सम्बन्धित है तो उसे पुस्तकों में प्रकट करना चाहिए ताकि उसका ज्ञान सम्बन्धित पक्ष को हो जाये यह प्रकटीकरण की प्रथा कहलाती है।

इसी प्रकार लेखांकन में एकरूपता की भी प्रथा है उदाहरण के लिए सम्पत्तियों पर ह्रास की कई विधियाँ प्रचलित हैं और एक बार जो प्रथा अपना ली जाती है उसे बार-बार बदला नहीं जाता है।

लेखांकन में निम्नलिखित प्रथाओं का पालन किया जाता है-

1. एकरूपता की प्रथा (Convention of Consistency)- प्रबन्धकों को चाहिए कि वे व्यापार का लेखा करने के लिए प्रत्येक वर्ष समान नियमों व पद्धतियों का प्रयोग करें जिससे कि वे अपने व्यापार के सम्बन्ध में निश्चित निष्कर्ष निकाल सकें और धारणायें बना सकें।

यह प्रथा परिणामों के तुलनात्मक अध्ययन में सहायक होती है। यदि विभिन्न व्यापारिक वर्षों में समान परम्पराओं का प्रयोग किया जाता है, तो व्यापारिक निष्कर्षों की सन्तोषजनक विधि से तुलना की जा सकती है। इस प्रथा का पालन न होने की स्थिति में निर्णयात्मक प्रश्नों के उत्तर मिथ्या एवं भ्रामक होने की सम्भावना अधिक रहती है। अतः विभिन्न व्यापारिक वर्षों में समान धारणा का प्रयोग किया जाना चाहिए।

2. रूढ़िवादिता की प्रथा (Convention of Conservatism)- इस प्रथा के अनुसार लाभों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए बल्कि सभी सम्भावित हानियों की व्यवस्था करनी चाहिए। अतः यह प्रथा लागत अवधारणा में संशोधन की हिमायती है। लागत अवधारणा के अनुसार सामग्री का मूल्यांकन लागत मूल्य पर होना चाहिए, किन्तु रूढ़िवादिता प्रथा के अनुसार सामग्री का मूल्यांकन क्रय मूल्य और बाजार मूल्य में जो भी मूल्य कम हो उस पर किया जाना चाहिए। इस प्रकार व्यवसाय के स्वामी को हानि नहीं होगी। इस प्रथा के अनुसार-

  1. देनदारों पर अप्राप्य ऋण या छूट के लिए संचय किया जाता है।
  2. ह्रास की व्यवस्था की जाती है।
  3. अन्तिम रहतिये का मूल्यांकन उसके बाजार मूल्य या लागत मूल्य जो दोनों में कम हो, पर किया जाता है।
  4. लेनदारों पर बट्टे की व्यवस्था नहीं की जाती है।
  5. विनियोगों के मूल्यों में होने वाले उच्चावचनों के लिए प्रावधान किए जाते हैं।

3. प्रकटीकरण की प्रथा (Convention of Disclosure) – प्रकटीकरण प्रथा का अर्थ यह है कि वित्तीय विवरणों को तैयार करने में पूर्ण ईमानदारी बरतनी चाहिए और उनमें सभी तथ्यों व सूचनाओं का सही-सही उल्लेखत किया जाना चाहिए।

4. सारता की प्रथा (Convention of Materiality)- इस प्रथा के अनुसार, लेखांकन से प्राप्त होने वाली सूचनायें यथार्थ रूप से सत्य होनी चाहिए। इस प्रथा के अनुसार महत्वपूर्ण तथ्यों पर ध्यान दिया जाता है और महत्वहीन पदों को या तो छोड़ दिया जाता है या फिर अन्य पदों में शामिल कर लिया जाता है।

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Anjali Yadav

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