व्यक्तित्त्व भेद का शिक्षा में क्या महत्त्व है? व्यक्ति के महत्व पर प्रकाश डालिये?
व्यक्तित्व के विभिन्न प्रकारों तथा उसको प्रभावित करने वाले कारकों के अध्ययन के बाद अब यह स्पष्ट हो गया है कि व्यक्तित्त्व भेद के लिए दो मुख्य तत्त्व आनुवंशिकता एवं वातावरण उत्तरदायी होते हैं। चूंकि बालक के व्यक्तित्त्व का विकास शैशवकाल से ही प्रारम्भ हो जाता है, अतः इसके समुचित विकास का प्रथम उत्तरदायित्व माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों का होता है दूसरे रूप में कहा जा सकता है कि माता-पिता के व्यक्तित्त्व एवं मनोवृत्ति का बालक के व्यक्तितव के विकास पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अतः उचित प्रारम्भिक शिक्षा द्वारा माता-पिता बालक के व्यक्तित्व के विकास को सही दिशा प्रदान कर सकते हैं।
बालक के व्यक्तित्व के विकास में दूसरा मुख्य स्थान विद्यालय का होता है। विद्यालयों में बालक विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ बहुत से व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है। जिससे उसमें मानसिक एवं सामाजिक विकास होता है। इसी काल में बालक मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास को एक सही दिशा मिलनी चाहिए। अतः इसके लिए शिक्षक की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। शिक्षक को व्यक्तिगत भेदों को ध्यान में रखते हुए बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए सतत् प्रयत्नशील रहना चाहिए। इसलिए उसे कुछ विशेष बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है जो अग्रांकित हैं-
1. बालकों के उचित शारीरिक विकास के लिए विद्यालयों में स्वच्छता, शुद्ध वायु, पौष्टिक आहार, नियमित दिनचर्या, खेल तथा व्यायाम आदि का ठीक तरह से प्रबन्ध होना चाहिए।
2. यद्यपि शिक्षा का सम्बन्ध सभी तरह के विकास से है लेकिन मानसिक विकास से उसका अत्यन्त घनि सम्बन्ध होता है। विद्यालय का वातावरण तथा शिक्षकों की योग्यता बालकों के मानसिक विकास में सबसे अधिक सहायक होती है। अतः पाठ्यक्रम बालक की रूचि एवं आवश्यकता को पूर्ण करने वाला तथा शिक्षण विधि उन्हें प्रभावित करने वाली होनी चाहिए। साथ ही शिक्षकों के व्यक्तित्त्व एवं व्यवहार तथा आचार-विचार का बालकों के व्यक्तित्व के विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। अतः शिक्षकों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए तथा बालकों के सम्मुख नैतिक एवं आदर्श आचरण प्रस्तुत करना चाहिए ।
3. व्यक्तित्व के निर्माण में संवेगों का बहुत महत्त्व होता है। इसलिए विद्यालय में बालक के संवेगात्मक विकास की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। शिक्षक द्वारा बालक को असामाजिक एवं असामान्य व्यवहारों में बचाने तथा उसके संवेगों को वांछित दिशा में मोड़ने के लिए उचित प्रशिक्षण, निर्देशन एवं परामर्श दिया जाना चाहिए। बालकों में सौन्दर्य बोध उत्पन्न करने के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाना चाहिए जिसमें उनमें श्रे तत्त्वों को समझने की क्षमता विकसित हो सके। अतः उन्हें व्यावहारिक एवं रचनात्मक कार्यों को करने का अवसर प्रदान करना चाहिए। इससे बालकों में अच्छे आदर्शों का विकास होता है तथा व्यक्तित्त्व सुगठित होता है।
4. विद्यालयीय जीवन में ही बालक का सर्वाधिक सामाजिक विकास होता है। वह घर से बाहर आकर व्यक्तियों के सम्पर्क से अपने को समाज में समायोजित करने के ढंग सीखता है। वह विभिन्न समूहों के सदस्य बनकर व्यवहार कुशलता सीखता है। अतः विभिन्न पाठ्यसहगामी एवं पाठ्येतर क्रिया-कलापों के आयोजन के द्वारा सामूहिक भावना का विकास करना चाहिए। सामूहिक भावना के विकास से बालक में आज्ञापालन, आत्मनिर्भरता, सहयोग एवं सहिष्णुता आदि गुणों का विकास होता है।
5. शिक्षक को व्यक्तित्व भेद का अच्छा ज्ञान होना चाहिए जिससे वह बालकों की प्रकृति के अनुसार उनके व्यक्तित्व के विकास में सहायता प्रदान कर सके।
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