शारीरिक विकृतियाँ किस प्रकार विकसित होती हैं ? इसके कारणों पर प्रकाश डालिये तथा इसके निवारण के उपाय बताइये। पोलियो तथा चपटा पैर के क्या कारण हैं ? अथवा शारीरिक आसनों से क्या अभिप्राय है। अनुचित आसनों के कुप्रभाव बताइये तथा आसन सम्बन्धी दोषों के निराकरण के उपाय बताइये।
यदि मनुष्य उठते-बैठते या काम करते समय उपयुक्त आसन नहीं धारण करता तो उसके शरीर के ढाँचे का स्वरूप विकृत हो जाता है जिससे उसके व्यक्तित्व पर बुरा प्रभाव पड़ता है। विभिन्न कार्य करते समय अशुद्ध आसन से उसके आन्तरिक अंग अपने कार्य सुचारु रूप से नहीं कर सकते जिससे उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ जाता है और कार्य भी ठीक से नहीं होता। पढ़ते-लिखते समय यदि अनुचित ढंग से बैठा जाता है तो बालक की कमर झुक जाती है, उसके नेत्रों को भी हानि होती है। उसका वक्ष अन्दर धँस जाता है। झुक कर खड़े होने से कंधे आगे की ओर झुक जाते हैं और श्वास क्रिया में बाधा पड़ती है। दोषयुक्त आसन हानि तो पहुँचाते ही हैं, साथ ही मनुष्य को बहुत जल्दी थका भी देते हैं। इसलिए अध्यापक को चाहिए कि वे बालकों को आरम्भ से विभिन्न स्थितियों में उचित आसन धारण करने का अभ्यास कराएँ ।
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अनुचित आसनों के कुप्रभाव
1. थकावट- पढ़ने-लिखने, साइकिल चलाने, सिलाई करने, रोटी बेलने, फर्श पर झाडू देने आदि कार्यों को करते समय शरीर का आसन यदि उपयुक्त और सुविधाजनक नहीं है तो थकावट का अनुभव बहुत शीघ्र होने लगता है और कार्य भी घटिया स्तर का होता है।
2. शारीरिक अंगों पर कुप्रभाव – दिन-प्रतिदिन अनुपयुक्त आसनों से कार्य करते रहने से सम्बन्धित अंगों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अस्वाभाविक दबाव से उनकी आकृति टेड़ी-मेढ़ी हो जाती है। बहुधा खिसकने से उनकी स्थिति भी बदल जाती है। झुककर बैठने से फेफड़े अपना कार्य भली-भाँति नहीं कर सकते जिसका परिणाम अच्छा नहीं होता। अनुचित ढंग से बैठने से आमाशय भी प्रभावित होता है। छोटी आँत में दबाव से भोज्य तत्व भली प्रकार अवशोषित नहीं होते। इस प्रकार अनुचित आसन विविध प्रकार के शारीरिक कष्टों व रोगों को जन्म देने के कारण बनते हैं। कमर झुकाकर चलने से शरीर के अंग भिचते हैं और छोटी आँत में उनके स्रावों को पहुँचने में बाधा प्रस्तुत होती है। भोजन के पाचन व अवशोषण में यह स्थिति हानिकारक सिद्ध होती है। स्पष्ट है कि शरीर के मुख्य अंग तभी सुचारु रूप से कार्य कर सकते हैं जब व्यक्ति के उठने-बैठने, हिलने-फिरने तथा झुकने व बोझ उठाने के ढंग उपयुक्त हों।
3. कार्य निम्न स्तर का तथा मात्रा में कम- विभिन्न कार्य में अनुचित आसून हानिकारक रहते हैं। उनसे शारीरिक अंगों की स्थिति व आकृति ही नहीं बदलती बल्कि कार्य का स्तर निम्न रहता है और वह मात्रा में कम भी होता है। यदि लिखते समय बैठने का ढंग ठीक नहीं है तो लिखाई भी नहीं होगी और लिखने की गति भी मन्द होगी।
4. भद्दापन व कुरूपता- कमर व सिर झुकाकर खड़े होने व चलने-फिरने से मनुष्य अत्यन्त अशोभनीय लगता है।
आसन सम्बन्धी दोषों के निराकरण के उपाय
आसन सम्बन्धी दोषों को निम्नलिखित उपायों के द्वारा दूर किया जा सकता है-
- विद्यार्थियों को सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन मिलना चाहिए।
- उनमें स्वास्थ्य सम्बन्धी दृष्टिकोण पैदा करना तथा वायु एवं प्रकाश की उचित व्यवस्था करना।
- बालकों को उचित तरीके से बैठने की शिक्षा देना।
- विद्यालय में डेस्क एवं कुर्सियों की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। आयु एवं कद के अनुसार विद्यार्थियों को बैठने एवं लिखने के लिए फर्नीचर दिया जाना चाहिए।
- उचित एवं स्वास्थ्यवर्द्धक व्यायामों की आदत डालना ताकि वे शरीर को सुदौल बना सके।
- बालकों को ढीले एवं शारीरिक अंगों में विकास के सहायक वस्त्रों को पहनने की आदत डालना।
- बालकों की थकावट दूर करने के लिए उन्हें विश्राम देना एवं मनोरंजनात्मक एवं स्वास्थ्यवर्द्धक खेल खिलवाना।
- बालकों में व्याप्त शारीरिक दोषों का उपचार किया जाना चाहिए।
- शिक्षण कालांशों के मध्य अवकाश की व्यवस्था होनी चाहिए तथा कश्था परिवर्तन भी होना चाहिए।
- बालकों को बताया जाना चाहिए कि एक ही कन्धे पर पुस्तकों का बोझ नहीं ढोना चाहिए।
विभिन्न स्थितियों के उपयुक्त आसन
सभी स्थितियों में शरीर का उचित आसन धारण करना सुन्दरता, स्वास्थ्य सुविधा व कार्यकुशलता के निमित्त आवश्यक है। प्रत्येक अवसर के लिए आसन के विषय में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
बैठना व बैठकर कार्य करना
कुर्सी पर बैठकर यदि कार्य करना है तो कुर्सी की ऊँचाई इतनी हो कि बैठने पर घुटना 90° कोण पर मुड़े और पैर फर्श पर पूरी तरह जम सकें। कार्य करते समय झुक कर बैठना ठीक नहीं। सिर ऊँचा व कमर सीधी रहनी चाहिए जिससे शरीर का सन्तुलन बना रहे। इससे शरीर के अन्दर के अंगों पर दबाव भी नहीं पड़ता। साथ के चित्रों में पढ़ते और लिखते समय की उचित विधियाँ बताई गई हैं।
खड़े होना
इन दोनों चित्रों में खड़े होने के उचित व अनुचित ढंग स्पष्ट हैं। जिस चित्र में सिर, धड़ तथा जाँघों में से एक सीधी रेखा गुजरती है, खड़े होने का वह ढंग ठीक तथा चित्र में यह रेखा मुड़ गई है जिससे शरीर कुरूप बनता है और स्वास्थ्य को हानि होती है।
मनुष्य को स्वाभाविक रूप से खड़ा होना चाहिए। खड़े होने में शरीर का भार दोनों पैरों पर एक-सा होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो सके, चेहरा सामने की ओर हो।
खड़े होकर कार्य करना
जिन लोगों को अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में दीर्घ काल तक खड़े होकर कार्य करना पड़ता है उनका खड़े होने का आसन सामान्य खड़े होने का होना चाहिए और उनके जूते आरामदायक हों तो उनके पैरों में खड़े होने से बहुत कम कष्ट होगा और वे शीघ्र थकेंगे भी नहीं। ऐसे व्यक्तियों को कार्य के बीच में कभी-कभी थोड़ा बहुत चल-फिर भी लेना चाहिए। इस प्रकार रक्त परिसंचरण अच्छा होने से थकावट कम होती है।
चलना-फिरना
चलने में पैरों तथा टाँग का संचालन कूल्हों से होना स्वाभाविक है। यदि चलते समय धड़ श्रेणी गुहा में सीधी व सन्तुलित अवस्था में स्थित होता है तो धड़ सिर को भी सहारा दे सकता है। धड़ व सिर को झुकाकर नहीं चलना चाहिए। अकड़कर चलना भी स्वाभाविक नहीं है। वह बनावटी भी लगता है। पूरा शरीर स्वाभाविक रूप से सीधा होना चाहिए। पेट अन्दर की ओर, कमर सीधी, कूल्हे अन्दर की ओर, सिर ऊँचा व सामने की ओर। बाँहों को भी स्वाभाविक गति करने दी जाए तो अच्छा लगता है।
पोलियो
पोलियो विषाणु जनित रोग है। यह शैशवावस्था में बालक पर आघात करता है। इस रोग में बालक की टाँगें सूखने लगती हैं तथा कमजोर हो जाती हैं और वह धड़ के भार को वहन नहीं कर पातीं। इससे बालक की टाँगें विकृत हो जाती हैं और बालक खड़े होकर नहीं चल पाता।
पोलियो की रोकथाम के लिए जन्म के तीन माह के उपरान्त से शिशु को पोलियो की दवा पिलाई जाती है। बालक को उचित समय पर पोलियो की दवा पिलाते रहने से पोलियो के आक्रमण की सम्भावना नहीं रहती। पोलियोग्रस्त बालक की चिकित्सा योग्य चिकित्सक द्वारा करानी चाहिए। बालक को बैशाखी का प्रयोग करना चाहिए।
चपटा पैर
चपटा पैर बाल्यावस्था में पैर में विकसित होने वाली विकृति है। इसमें बालक के पैर का तलवा चपटा हो जाता है जिससे खड़े होने और चलने में पैर में दर्द होता है। चपटे पैर की मुख्य चिकित्सा विशेष प्रकार का जूता पहनना है। इससे चलने में दर्द कम होता है ।
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